सोमवार, नवंबर 28, 2011

ऐसे अनपढ़ चाहिये उत्तराखंड को

एक आंदोलन, जिसने विश्वव्यापी पटल पर धूम मचाई। पर्वतीय लोगों की मंशा और इच्छाशक्ति का आयाम बना। विश्व के लोगों ने अनुसरण किया, लेकिन अपने ही लोगों ने भुला दिया। एक क्रांतिकारी घटना, जिसकी याद में देश भर में चरचा, गोष्ठियां और सम्मेलन आयोजित होने चाहिए थे, अफसोस! किसी को सुध तक नहीं रही। हम बात कर रहे हैं विश्वविख्यात 'चिपको आंदोलन ’ की। 'पहले हमें काटो, फिर जंगल ’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। आंदोलन की सफलता अपनी परिणति पर पहुंची और सैकड़ों-हजारों पेड़ कटने से बच गए। लेकिन आज सवाल यह खड़ा होता है, क्या अब सब कुछ सुधर गया है? क्या हमें अब पेड़ों की जरूरत नहीं? या एक बार आंदोलित होने के बाद हम चैन की बंशी बजा रहे हैं।

विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के बारे में सभी जानते हैं लेकिन इस आन्दोलन की जननी गौरा देवी को कम ही लोग जानते हैं। लेकिन आज जब विकास के नाम पर पर्वतीय राज्य की रूपरेखा को एक आयाम देकर उत्तराखंड राज्य का गठन कर दिया गया, तब यहीं के लोग इसे भूल गए। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो न ही आम आदमी को इसकी जानकारी है और न ही सरकार के नुमाइंदों को।

चिपको की महिलाओं को और गौरा देवी को पढ़े-लिखे लोग ‘अनपढ़’ कहते हैं। यह कोई नहीं बताता कि पढ़े-लिखे होने का क्या अभिप्राय है ? क्या स्कूल न जा पाने के कारण वे ‘अनपढ़’ कहलाएँ ? क्या अपने परिवेश को समझ चुकीं और उसकी सुरक्षा हेतु प्रतिरोध की अनिवार्यता सिद्व कर चुकीं महिलाएँ किसी मायने में अनपढ़ हैं ? क्या वे स्कूल-कालेजों की पढ़ी होतीं तो ऐसे निर्णय लेतीं ? देवी की बात करते हुए कोई उन सच्चाइयों को नहीं देखता जो स्वतः दिखाई देती हैं और जिनसे उनका कद और ऊँचा हो जाता है।

आइए आपको मै इसकी पृष्ठभूमि के बारे में अवगत कराता हूँ , जहां से शुरू हुई थी एक मुहिम, जिसने देखते ही देखते न सिर्फ विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में एक तूफान खड़ा कर दिया। हमेशा नमन की हकदार रहेगी वह महिला गौरा देवी जिसने इस मुहिम को न सिर्फ शुरू किया, बल्कि इसे इसके मुकाम तक पहुंचाया। 1925 में जोशीमठ से करीब 24 किलोमीटर नीती घाटी के लाता गांव के एक जनजातीय परिवार में जन्मी गौरा देवी का अपना जीवन खुद एक संघर्ष की गाथा है।

12 साल की उम्र में विवाह, 19 साल की उम्र में एक पुत्र को जन्म और 22 साल की उम्र में पति का स्वर्गवास। । सिर्फ 10 साल का वैवाहिक जीवन रहा उनका! एक पहाड़ी विधवा के सारे संकट उन्हें झेलने पड़े पर इन्हीं संकटों ने उनके भीतर निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। दुखों का पहाड़ झेलते हुए अशिक्षित होने के बावजूद इस महिला ने कभी हार नहीं मानी और अपने जीवन को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उसे पूरा विश्व सम्मान की नजर से देखता है।
गौरा देवी ने ससुराल में रह्कर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिये अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र को स्वालम्बी बनाया, उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई, इससे गौरा देवी आश्वस्त हुई और खाली समय में वह गांव के लोगों के सुख-दुःख में सहभागी होने लगीं। इसी बीच अलकनन्दा में १९७० में प्रलंयकारी बाढ़ आई, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरुकता बनी और इस कार्य के लिये प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसा भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिये सुगम मार्ग बनाने के लिये पेड़ों का कटान शुरु हुआ। जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी। इसी चेतना का प्रतिफल था, हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना, १९७२ में गौरा देवी जी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया। इसी दौरान वह चण्डी प्रसा भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आईं। जनवरी १९७४ में रैंणी गांव के २४५१ पेड़ों का छपान हुआ। २३ मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया। प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि २६ मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिये सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिये ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि २६ मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो।

इसी योजना पर अमल करते हुये श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े और रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा। गांव में उपस्थित २१ महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं। इनका नेतृत्व कर रही थी, गौरा देवी, इन्होंने खाना बना रहे मजदूरो से कहा”भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।” ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी, लेकिन यह महिलायें नहीं डरी। ठेकेदार ने बन्दूक निकालकर इन्हें धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “मारो गोली और काट लो हमारा मायका” इस पर मजदूर सहम गये। गौरा देवी के अदम्य साहस से इन महिलाओं में भी शक्ति का संचार हुआ और महिलायें पेड़ों के चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो। ऋषिगंगा के तट पर नाले पर बना सीमेण्ट का एक पुल भी महिलाओं ने तोड़ डाला, जंगल के सभी मार्गों पर महिलायें तैतात हो गई। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि उनके ऊपर थूक तक दिया गया। लेकिन गौरा देवी ने नियंत्रण नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा। इससे मजदूर और ठेकेदार वापस चले गये, इन महिलाओं का मायका बच गया। इस आन्दोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। सरकार को इस हेतु डा० वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन किया। जांच के बाद पाया गया कि रैंणी के जंगल के साथ ही अलकनन्दा में बांई ओर मिलने वाली समस्त नदियों ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है। इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अतुलित प्रेम का प्रदर्शन करने और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान को भी ताक पर रखकर गौरा देवी ने जो अनुकरणीय कार्य किया, उसने उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन फ्राम इण्डिया बना दिया।

श्रीमती गौरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी संलग्न रहीं, उन्होंने ऐसे कई कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामीण कार्यक्रमों की सलाहकार समिति की भी वह सदस्य थी। सीमित ग्रामीण दायरे में जीवन यापन करने के बावजूद भी वह दूर की समझ रखती थीं। उनके विचार जनहितकारी हैं, जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। श्रीमती गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं” उन्हें दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की तीस महिला मंगल दल की अध्यक्षाओं के साथ भारत सरकार ने वृक्षों की रक्षा के लिये 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा प्रदान किया गया था।

गौरा देवी ने ही अपने अदम्य साहस और दूरदर्शिता से चिपको आन्दोलन का सूत्रपात किया था। हालांकि उन्हें परे कर अनेक लोगों ने इस आन्दोलन को हाईजैक कर अनेकों पुरस्कार बटोरे। लेकिन हमारी नजर में चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी ही हैं। इस महान व्यक्तित्व का निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ, यद्यपि आज गौरा देवी इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उत्तराखण्ड ही हर महिला में वह अपने विचारों से विद्यमान हैं। हिमपुत्री की वनों की रक्षा की ललकार ने यह साबित कर दिया कि संगठित होकर महिलायें किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकती है। जिसका ज्वलंत उदाहरण है चिपको आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होना है। चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी आज विश्वभर के पर्यावरण वैज्ञानिकों के बीच ‘चिपको वुमेन फ्राम इण्डिया’ के नाम से विख्यात है।

गौरा देवी और साथियों के संघर्ष का ही परिणाम था जो 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा। आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रहा है। भविष्य में इसके खतरे पूरी पृथ्वी को लील लेना चाहते हैं, ऐसे में हमें जरूरत है फिर से एक चिपको आंदोलन की। हम अल्प समय के लिए मिलने वाली सुविधाओं के लिए प्रकृति से खिलवाड़ नहीं कर सकते। आज नहीं तो कल हमें इसके भयंकर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। अगर हम आज नहीं चेते तो कल इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

सभार : विभिन्न चिटटा जगत, मीडिया नारद, अपना उत्तराखंड