क्या आपने कभी गौर किया है कि किसी आफिस मे ज्यादा काम करने वाले को ही बास उसके काम के अलावा भी दूसरे काम क्यो पकडा देता है? क्यो वह शाम को 6:30 ( जो समय है उस दिन को बाय- बाय कहने का ) के बावजूद काम मे व्यस्त है? अगर बास उसे इतना हि भरोसेमंद समझता है तो क्यो उसको वेतन बढोतरी के समय रुलाया जाता है? जबकी उसके सहपाठी जो उस से कम या ना के बराबर काम करते है (क्योकि उन का ज्यादातर काम तो बेचारा वही करता है) मजे से आफिस सुख का आनंद ले रहे होते है, टेशंन फ्री होकर घूम रहे होते है, गप्पे लडा रहे होते है, हमउम्र के विपरित लिग वाले चोच लडा रहे होते है और वो बास के साथ झक छेत रहा होता है । इन सब सवालो का जबाब चाहिये तो आपको पगला कार्यसंस्कृति को विस्तार से समझना होगा। अब आप लोग कहेगे भइया ये होती क्या है? ये तो नरेन्द्र जी का हिन्दुस्तान दैनिक मे 17.08.07 को लिखा ये लेख पढ ले सबकुछ समझ मे आ जायेगा।
प्यार मे पागल होना रिस्की होता है । इसमे कामयाबी की संभावना कम होती है। लेकिन काम मे पागल होना शतप्रतिशत फलदायी होता है। पूरी सफलता की गारंटी । अपने आफिस मे आजमा कर देखिये। बडा साफ और सीधा फंडा है “ बने रहो पगला, काम करेगा अगला ” । कार्यसंस्कृति का यह सिद्धांत बडा सरल है। जो जितना काम करेगा, उससे उतना ही काम करवाया जाएगा। ‘ए’ अगर बहुत अच्छा काम करता है बास ‘ए’ को ही काम करने के लिये कहेगा।
‘ए’ भले ही लंच मिस कर चुका हो और उसके पेट मे चूहे दौड रहे हो, उस के कानो मे तो बास की ये बात ही रहेगी कि ‘खूब बढिया से रेड्डी करवा दो बेटा, एकदम चकाचक’। अब ‘ए’ चाह्कर भी आफिस मे ‘बी’ कि तरह बेपरवाह ‘इडियन आयड्ल’ का फाईनल नही देख पाएगा। ‘पगला’ एक कार्यसंस्कृति है जिसे ‘बी’ ने अपना लिया है और इसी के साथ उस ने आफिस मे टेशन फ्री कैसे रहे का बोध हासिल कर लिया है। विस्तार से जान ना है कि ‘पगला कार्यसंस्कृति’ है क्या, तो पूरा सूत्र समझना होगा। आगे कहानी मे हम ‘ए’ को अगला और ‘बी’ को ‘पगला’ कहेगे। एक दिन जब बास ने ‘अगले’ को एक एसाइन्मेट दिया, तो काम सौपने का तरीका कुछ ऐसा था, मानो इसे ‘अगले’ के अलावा कोई कर ही नही सकता है… ‘अगला’ कोई चार घंटे तक प्यासे मन को डपट कर काबू मे रखने के बाद पानी पीने गया था कि इधर बास को उसकी जोरदार तलब हो गई। आग टाइप एक खबर आई और बास चीख पडे ‘अगला’ कहा गया उसे बुलाओ।
एक साथ दस ‘पगले’ ‘अगले’ के मोबाइल पर रिग करने लगे। दो-तीन ‘पगले’ तो चिल्लाते हुए दौड पडे – अभी-अभी पानी पीता हुआ दिखा था। एक ने तो ह्द कर दी। ‘अगले’ की बाह् पकडकर उसे लगभग धकेलते हुए बास के पास ले आया।
अत्यंत गौरवान्वित होते हुए कहा- बास ये काम ‘अगले’ के अलावा कोई कर ही न ही सकता। ‘अगले’ ने बास की पूरी बात सुने बिना हाँ कर दी- ‘समझ गया बास हो जाएगा, अभी हो जाएगा’। सारे ‘पगले’ ‘अगले’ को ढूँढ कर लौट चुके थे। उस ‘पगले’ की और ईष्यार्लु नजरो से देख रहे थे, जो ‘अगले’ को पकड लाया था। देख लो बास… अभी तक हाफ रहे है। ‘अगला’ काम मे लग गया था। लंच की जरुरत अब महसूस नही हो रही थी। पेट पानी से भर चुका था। ‘पगला’ ‘अगले’ को देख कर गा रहा था – जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम । मेरे ख्याल है आप भी दफ्तर मे काम करने का ये बेजोड नुस्खा समझ गए होगे – “ बने रहो पगला, काम करेगा अगला ”
नरेन्द्र जी का हिन्दुस्तान दैनिक मे लिखा ये लेख मुझे नेहरु पैलेस से कुछ सामान लेते हुए मिला। लेख पढा तो काफी अच्छा लगा और ज्ञानपूर्वक भी तो सोचा क्यो न आप लोगो तक भी कि ये बांटा जाये।