दिल्ली ही नहीं भारत के दूसरे महानगरों में भी ट्रैफिक की समस्या दिनो-दिन बढती जा रही है। ट्रैफिक की समस्या भी उन बड़ी समस्याओं की सूची में आती है जिनकी तरफ हमने आज़ादी के बाद ध्यान नहीं दिया है। आज शहरों में वाहनों की बढ़ती भीड़ प्रशासन के लिए सिरदर्द बनी हुई है। तकनीकी कुशलता और प्रबंधन क्षमता में अव्वल अमेरिका में भी ट्रैफिक जाम एक समस्या है। इसमें कोई दो मत नहीं कि भारत के महानगरों में आबादी का बोझ बढ़ा है। उनमें व्यापारिक गतिविधियां लगातार तेज होती जा रही हैं। उनमें लोगों का जीवन स्तर बढ़ रहा है। दूसरी ओर तकनीकी परिष्कार के साथ नए और बड़े वाहन भी सामने आ रहे हैं। ट्रैफिक की समस्या के समाधान में लोगों का जो सहयोग मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। समस्याओं को टालना, उनका सामना न करना या अस्थाई समाधान खोजना शायद हमारी आदत बन गई है। शहरों का अंधाधुंध और बिना समझे-बूझे विस्तार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अभाव, सड़कों और पुलों का अभाव, यातायात के नियमों का पालन न करना आदि कारण हैं जिन पर समग्र रूप से विचार किया जाना चाहिए था। प्रशासन का रवैया टालने वाला है। ज़ाहिर है समस्या के प्रति गंभीर रुझान का अभाव और व्यक्तिगत ढंग से समाधान खोजने की प्रवृति से समस्या विकराल रूप धारण कर रही है।
कहीं भी आने-जाने में लाखों, करोड़ों लोगों के अनगिनत घंटे बर्बाद होते हैं,गाड़ियों में खरबों रुपए का तेल बेवजह फुंकता है, पता नहीं कितना धुआँ परिवेश को गंदा कर देता है? हाल में प्रकाशित अर्बन मोबिलिटी रिपोर्ट- 2005 में इस बात का खुलासा किया गया है कि ट्रैफिक जाम के कारण लोगों का समय तो नष्ट हो ही रहा है, तेल की भी बर्बादी बढ़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में वर्ष 2003 में ट्रैफिक जाम की वजह से लोगों के 3.7 अरब घंटे और 8.7 अरब लीटर तेल की बर्बादी हुई। यह वर्ष 2002 के मुकाबले क्रमश: 7.9 करोड़ घंटे और 26 करोड़ लीटर ज्यादा है। जाहिर है अमेरिका के लिए यह संकट निरंतर बढ़ा है। वहां 1982 से विभिन्न वाहनों द्वारा तय की गई दूरी में 74 फीसदी का इजाफा हुआ है , जबकि सड़कों के दायरे में 6 फीसदी की वृद्धि हुई है। परिवहन अधिकारियों का मानना है कि अमेरिका की ट्रैफिक समस्या को दूर करने में छह वर्ष का वक्त लग सकता है और इस पर करीब 400 अरब डॉलर के खर्च का अनुमान है।
लंदन में ऐसा नियम है कि प्रमुख बाज़ारों जैसे आक्सफोर्ड स्ट्रीट आदि क्षेत्रों में केवल पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा -ही जा सकता है। मतलब यह कि प्राइवेट गाड़ियाँ दूर किसी पार्किंग में खड़ी करनी पड़ती हैं। एशिया के अनेक देशों ने भी इस समस्या से जूझने के लिए कई तरह के उपाय किए हैं। थाईलैंड और मलेशिया जैसे देशों में अर्बन रेलवे का विस्तार किया जा रहा है। सिंगापुर में सड़क पर बढ़ती भीड़ को देखकर पैसेंजर कारों पर टोल टैक्स बढ़ा दिया गया है। तीन या उससे कम लोगों को लेकर आने वाली पैसेंजर कारों के शहर और खासकर व्यावसायिक क्षेत्र में प्रवेश करने पर शुल्क लगा हुआ है , जिसे एरिया लाइसेंसिंग कहते हैं। मलेशिया में भी ऐसी ही व्यवस्था लागू है। इसी संकट को भांपकर जापान ने लाइट रेल ट्रांजिट सिस्टम शुरू किया जिसके तहत हलकी छोटी ट्रामें चलाई जा रही हैं जो पटरी और सड़क पर समान रूप से चलती हैं।
दिल्ली में इसका उल्टा है। कनाट प्लेस में बसें नहीं आ सकतीं, सिर्फ़ प्राइवेट गाड़ियाँ, कारें या टैक्सियाँ आ सकती है। बसें कनाट प्लेस से कुछ दूर आकर रूक जाती है। यानी बस में चलने वाले को कनाट प्लेस तक आने के लिए पैदल चलना पड़ता है लेकिन कार सीधे दुकान के सामने आ सकती है। पब्लिक ट्राँसपोर्ट पर प्राइवेट ट्राँसपोर्ट को प्राथमिकता देना शायदी हमारी सामंती समझ का हिस्सा है। हमारे देश में सामंत तो नहीं हैं लेकिन सामंती संस्कार बहुत प्रबल हैं। एक और बड़ी समस्या यह है कि हमारे देश में जिन लोगों के पास कारें हैं वे अपनी कारों से घर के दरवाज़े के सामने ही उतरना चाहते हैं। दुकानदार भी यह चाहते हैं कि कार से ही दुकान के सामने उतरें। उन्हें दो कदम भी पैदल न चलना पड़े। इस मानसिकता ने सड़क के किनारे वाली जगह को पार्किंग बना दिया है जो मुफ्त में मिल जाती है। दुकानदारो द्वारा अपनी दुकानो के आगे तक करीब 5 से 6 फुट की जगह पर समान रखना, कही पर भी ट्रैक्टर या ट्राली का खडा कर देना जैसे कारक भी ट्रैफिक की समस्या को जटील बना देते है। लेकिन इसकी वजह से कितनी अव्यवस्था होती है। लोगों को कितनी परेशानी होती है, यह सब जानते हैं।
शहरों और खासतौर पर बड़े शहरों के मास्टर प्लान के साथ मनमाने खिलवाड़ ने भी ट्रैफिक की समस्या को विकराल बना दिया है। जहाँ एक कोठी हुआ करती थी और 10-12 लोग रहा करते थे वहाँ अब ऊँची-ऊँची इमारते बन गई है जिनमें सैंकड़ों लोग रहते हैं। बडे बडे शोपिग सैटर, माल खुल गये है। शहर की व्यस्तम सडको पर हर 10 मिनट के बाद लगता जाम प्रत्येक आने जाने वाले के लिए परेशानी का कारण बनता है। 40-50 किलोमीटर प्रति घंटा की चाल से 1 किलोमीटर का सफर तय करने मे मुश्किल से डेढ मिनट लगता है पर यहा तो आधा किलोमीटर का सफर तय करने मे ही 10 मिनट लग जाते है। सड़के रबड़ की तो बनी है नहीं जिन्हे चाहे जितना खीच कर बडा कर लो । ज़ाहिर है कि उनकी अपनी एक क्षमता है जो समाप्त हो सकती है।
यह भी एक विडंबना है कि पिछले दो दशकों में पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्र के लिए राशि बढ़ रही है लेकिन ग्रामीण इलाकों से शहरों-महानगरों की ओर लोगों का पलायन रुकने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में ट्रैफिक की समस्या अब भयावह रूप लेती जा रही है। पर इस संकट को सुलझाने की कोई कारगर योजना नजर नहीं आ रही। अगर आपके पास कोई सामाधान है तो जरूर बताये
बात एकदम सही है
जवाब देंहटाएं"...40-50 किलोमीटर प्रति घंटा की चाल से 1 किलोमीटर का सफर तय करने मे मुश्किल से डेढ मिनट लगता है पर यहा तो आधा किलोमीटर का सफर तय करने मे ही 10 मिनट लग जाते है। सड़के रबड़ की तो बनी है नहीं जिन्हे चाहे जितना खीच कर बडा कर लो । ज़ाहिर है कि उनकी अपनी एक क्षमता है जो समाप्त हो सकती है ..."
मै यह कहना चाहता हूं
समस्या : बढती कारें
समाधान : साईकिल
उत्तम लेखन के लिये बधाई स्वीकार करें!
Good but need a good start with telling transportation's positive values
जवाब देंहटाएं