बहुत दिनो से कोई फिल्म नही देखी थी सोचा चलो आज ये काम भी कर लिया जाये। जीतू भईया ने तो ‘कैश’ देखने का मन बनाने के लिये पहले ही चेतावनी दे चुके थे और मेरा भी मारधाड और काल्पनिक विषय को झेलने का हौशला ना था। रह गई थी ‘चक दे इंडिया’ । बहुत सुना था इस फिल्म के बारे मे सोचा चलो आज आजमा लेते है वैसे भी किसी नये विषय मे बनी फिल्म थी। सच मानो फिल्म देखकर समय और पैसे कि पूरी वशूली हो गई ।
हॉकी हमारा राष्ट्रीय और देसी खेल है, लेकिन आज यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय खेल हॉकी में हमारे देश की टीम का प्रदर्शन बेहद लचर है। इसकी वजह से यह खेल अपनी लोकप्रियता खो बैठा है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। इस खेल और देशभक्ति को आपस में सही अनुपात मिलाकर यशराज फिल्म्स ने इतने उम्दा तरीके से फिल्म बनाई है कि सिनेमाघर में बैठकर दर्शक के अंदर देशभक्ति की भावनाएँ हिलोरे लेने लगती हैं। ना कोई फालतू की मार-धाड, ना फालतू के रोमांस कि खिचडि, ना कोई फालतू दृश्य या संवाद । पटकथा एकदम कसी हुई। दर्शक पहली फ्रेम से ही फिल्म में खो जाता है। छोटे-छोटे दृश्यों में कई बातें सामने आती हैं, जो निर्देशक और लेखक की सोच बयान करती हैं। कई बातें बिना संवादों के केवल दृश्यों के माध्यम से कहीं गई हैं। मसलन शाहरुख को खटारा स्कूटर पर बैठाकर निर्देशक ने भारत के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बता दी है।
कबीर खान (शाहरुख खान) कभी भारतीय हॉकी टीम का कप्तान हुआ करता था। उसकी कभी दुनिया के श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड में गिनती हुआ करती थी। खेल के दौरान एक मामूली चूक के कारण उसे गद्दार मान लिया गया। आज उसकी कोई पहचान नहीं है। उसे कठिन चुनौतियाँ स्वीकारना अच्छा लगता है। उसके अंदर ‘जो नहीं हो सकता है, वहीं करना है’ जैसी भावनाएँ मौजूद है। अपने इस कलंक को धोने के लिए वह एक कठिन चुनौती स्वीकार करता है। वह महिला हॉकी टीम का कोच बनकर इस टीम को विश्वविजेता बनाता है। भारतीय महिला हॉकी टीम को प्रशिक्षण देना बेहद कठिन है। इस टीम में कोई जोश नहीं है। अच्छा खेलने की चाहत नहीं है। भारत के लिए खेलने में जो गर्व महसूस होता है वह कभी इस टीम के खिलाडियों ने महसूस नहीं किया है। वे सिर्फ इसलिए खेल रही हैं ताकि रिटायरमेंट के बाद उन्हें कुछ सरकारी लाभ मिलें।
महिला टीम होने के कारण इन्हें पुरुषों की छींटाकशी का शिकार भी होना पड़ता है। कबीर खान उन्हें सीखाता है कि 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'। कोई भी मैच जीतने का स्वाद कैसा होता है। ट्राफी जीतकर उसे उठाने में कितना आनंद आता है। भारत के लिए खेलना कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। ‘चक दे इंडिया’ उस कबीर खान की कहानी है जिसे निचले पायदान वाली टीम को सँवारना है।
शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है। उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है।फिल्म 2-3 गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है।
‘चक दे इंडिया’ के जरिये निर्देशक शिमित अमीन और लेखक जयदीप साहनी ने कई बातें कही हैं। जैसे
· हॉकी की हमारे देश में जो स्थिति है उसके लिये सिर्फ खिलाडियों को ही जिम्मेदार मानना सही नही है, उसके लिये हॉकी संघ में बैठे भ्रष्ट लोग भी उतने ही जिम्मेदार है।
· हॉकी खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति कैसी होती है। मसलन शाहरुख का खटारा स्कूटर पर बैठकर कोचिग देने जान भारत के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बताती है।
· एक सच्चे देशभक्त मुस्लिम को हर समय संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। खेल के दौरान एक मामूली चूक के कारण कबीर खान को गद्दार मान लिया गया।
· महिला खिलाड़ियों को पुरुषों से कमतर आंका जाता है ऐसा समझा जाता है चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी
· मिजोरम जैसे उत्तर-पूर्वी लोगों को हमारे देश का सदस्य नहीं माना जाता है।
· मै हिन्दू हूँ, यह मुस्लिम है, वह सिख है, सभी बोलते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि सबसे पहले वे भारतीय हैं।
मै तो इस फिल्म को 100 मे से 99 अंक दूँगा तथा आप लोगो से ‘चक दे इंडिया’ को देखकर आने कि अपील करुँगा अगर आप एक अच्छी फिल्म देखने के उदेश्य से सिनेमाहाल जाते है।
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