रविवार, जनवरी 30, 2011

बट वी लव गाँधी...!!


सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट 'फेसबुक' पर भारतीय युवाओं ने 'आई हेट गाँधी' ग्रुप बनाए। पंजाब प्रांत के चार युवाओं ने आई हेट गाँधी नामक समूह बनाया है। पंजाब के राहुल देवगन इस समूह के क्रिएटर हैं और इसमें एक युवती भी है। दुखद आश्चर्य की बात कि वेबसाइट पर लगभग 700 भारतीय युवा फ्रेंडलिस्ट में हैं। यहाँ गाँधीजी के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ डाली गई है।

इन युवाओं का कहना है कि गाँधीजी अँग्रेजों के सहायक थे, इस कारण हमने इस समूह का निर्माण किया है। इस समूह ने गाँधीजी के कई अशोभनीय फोटो भी इस वेबसाइट पर अपलोड कर दिए हैं। लखनऊ के एक आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने इस समूह के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी। पंजाब का राहुल देवगन मुख्य आरोपी है। इसके अलावा अमेरिका स्थित फेसबुक के कार्यालय को भी इसमें नामजद किया गया है।

ये भारतीय युवा अपने अधकचरे ज्ञान की यह पोटली अपने सीमित वर्ग तक ही खोलते तो शायद क्षम्य भी होता। क्योंकि इतिहास गवाह है कि हर महान व्यक्तित्व को कतिपय कुंठित लोगों ने नीचा दिखाने की चेष्टा की है। यह बात और है कि इससे उस शख्सियत का कद तो बौना होने से रहा ऐसी बेवकूफाना हरकते हँसी का विषय अवश्य बनी है। सार्वजनिक रूप से अपने मानसिक दिवालिया होने का सबूत इस तरह देने से पहले बेहतर होता कि वे अपने अतीत को गंभीरतापूर्वक खंगाल लेते। और अगर अतीत तक पहुँचना उनके लिए मुश्किल है तो डॉमिनिक लेपियर की 'फ्रीडम इन द मिडनाइट' ही एक बार पढ़ ली होती।

लेकिन यह अपेक्षा हम किससे कर रहे हैं? उनसे जिनके लिए हर पुराने को कोसना ही आधुनिकता की निशानी है? उनसे जिनके लिए राष्ट्र के महान संत को गाली देना फैशन स्टेटस है। गाँधी को कितना जानते हैं वे? और उन्हें कोसने का अधिकार इन युवाओं ने हासिल किस आधार पर किया? देश के लिए अपने घर को खाली और खत्म करना क्या होता हैं, क्या यह सोचना भी उनके लिए संभव है जबकि बापू ने अप्रत्यक्षत: समूचे परिवार को देश पर न्योछावर कर दिया? अपने ही बच्चों को अपने नेता होने का फायदा ना पहुँचाने के गाँधी के संकल्प को क्या यह अज्ञान पीढ़ी समझ सकेगी जो येनकेन प्रकारेण खुद अपने लिए नेताओं की 'अप्रोच' तलाशती है? काश, एक अँगुली उन पर उठाने से पहले अपनी तरफ मुड़ी तीन अँगुलियाँ भी देख ली होती।

गाँधी उन तक इसलिए भी नहीं पहुँच सके क्योंकि उन्होंने गाँधी को कथनी और करनी की दृ‍ष्टि से एक जुबान रहते स्वयं नहीं देखा। गाँधीवाद उन तक उन भ्रष्ट नेताओं के माध्यम से पहुँचा जो मात्र सफेद टोपी धारण कर कर्मों से गाँधी से कोसों दूर थे। वे युवा गाँधी जिनके लिए एमजी रोड़ है, नोट पर छपी तस्वीर है, घटिया एसएमएस है, सस्ता चुटकुला है, खादी में मिलता डिस्काउंट है या फिर एक शर्मनाक प्रचलित मुहावरा कि 'मजबूरी का नाम...? भला कैसे जानेंगे कि उस राष्ट्रसंत ने अपनी हर छोटी से छोटी भूल की खुद को कठोरतम सजा दी है। क्या उन युवाओं के लिए यह सोच पाना भी संभव है कि जेल में तकिए के स्थान पर लकड़ी के पटिए को रखना कितना भीषण कष्टकारी है लेकिन गाँधी ने ऐसा बार-बार किया तब जब-जब देश के हित में कोई एक छोटी सी अनिवार्य भूमिका भी वे नहीं निभा सके। अपनी ही संतान के लिए जीवन भर उन्होंने अपराधी बनना स्वीकार किया बजाय देश के प्रति भूल से भी कोई अपराध करने के।

फ्रीडम इन द मिडनाइट में लेखक उन्हें बार-बार बुढ़ऊ कहता है पर यह शब्द भी संदर्भों में इसलिए बुरा नहीं लगता है क्योंकि वह उस दुर्बल से दिखने वाले प्राणी की ताकत को पहचान कर उसे अति आत्मीयतावश यह संबोधन देता है। वह उसे एक चमत्कारी इंसान मानता है कि अगर कोलकाता में अपने अनशन से उसने हजारों के जनसैलाब को नहीं रोका होता तो आज इतिहास का सबसे खूनी संघर्ष वही होता।

लेखक बार-बार मानता है कि यह चमत्कार सिर्फ और सिर्फ वहीं इंसान कर सकता था जिसकी जनता पर ऐसी अदभुत पकड़ थी। तन पर एक कपड़ा और हाथ में एक लाठी,बस यही तो चीजें तो थी उसकी ताकत। लेखक ने घोर आश्चर्य व्यक्त किया है कि आखिर ऐसा क्या था उस बूढ़े मनुष्य की वाणी में कि उग्रतम जनसमुदाय भी उसे सुनकर ऐसे शांत और कोमल हो जाता था मानों कोई तुफानी समंदर अचानक शांत हो गया हो।

पर 'फेसबुकी कल्चर' के अधकचरे-अल्पज्ञानी भला उस दौर की कल्पना भी कैसे करें जबकि उनके लिए गाँधी सिर्फ एक शब्द है जिस पर भरपूर विकार निकाले जा सकें। आई हेट गाँधी कहने वालों आपके मुकाबले में कई गुना युवा कह रहे हैं आई लव गाँधी क्योंकि वे गाँधी को जान रहे हैं, पहचान रहे हैं। आप क्या सोचते हैं?

सभार : वेब दुनिया- स्मृति जोशी

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