मंगलवार, अगस्त 31, 2010

काँच की बरनी और दो कप चाय

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा, "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है ।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं…उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची… उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ… आवाज आई…फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी, समा गये, फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ.. कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे… फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ.. अब तो पूरी भर गई है.. सभी ने एक स्वर में कहा..सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई…प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो… टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है..अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी…ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है…यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा… मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक-अप करवाओ.. टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है… पहले तय करो कि क्या जरूरी है… बाकी सब तो रेत है..छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे.. अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं ?प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया… इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये । अपने खास मित्रों और निकट के व्यक्तियों को यह विचार तत्काल बाँट दो..मैंने अभी-अभी यही किया है.. :)

अकेला

इस अजनबी सी दुनिया में, अकेला इक ख्वाब हूँ.
सवालों से खफ़ा, चोट सा जवाब हूँ.

जो ना समझ सके, उनके लिये "कौन".
जो समझ चुके, उनके लिये किताब हूँ.

दुनिया कि नज़रों में, जाने क्युं चुभा सा.
सबसे नशीला और बदनाम शराब हूँ.

सर उठा के देखो, वो देख रहा है तुमको.
जिसको न देखा उसने, वो चमकता आफ़ताब हूँ.

आँखों से देखोगे, तो खुश मुझे पाओगे.
दिल से पूछोगे, तो दर्द का सैलाब हूँ.

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

अप्रेजल की दुखद कहानी

हर बार नए फैनेंशियल इयर की शुरुआत में अक्सर ऑफिसों में अप्रेजल की बात चलने लगती है। और इसी अप्रेजल की बात के साथ शुरू हो जाता है अप्रेजल का खेल । अप्रेजल से संम्बधित विपीन खनडूरी कि ये कविता बहुत ही अच्छी लगी जो मुझे मेल द्रारा प्राप्त हुई । तो सोचा क्यो ना आप लोगो से भी इसे बाँटा जाये । कुछ इसी तरह का वाक्या मेरे साथ भी घटित हो चुका है फरक इतना है कि मेरा 2 रुपये कि जगह पर सिर्फ 500 रुपये कि बढोतरी हुई थी और मेने भी खनडूरी कि तरह कि करना उचित समझा इस कविता ने ने 2 साल पहले का वाक्या याद दिला दिया।

अप्रेजल के नाम पर एक लम्बी आह भरते है,
चलीये अब हम इस दुखद कहानी कि शुरुआत करते है,

हमेशा कि तरह 10 बजे ठुमकते हुए आफिस आया,
11 बजे नाश्ता किया और बारह बजे तक मेल पढ पाया,

हमेशा कि तरह आज भी मुझे आलस आ रहा था,
और मेरा PM मुझे तिरछी निगाहो से देख देख गुस्सा रहा था,

मै बडे कन्सनट्रेसन के साथ एक मेल पढ रहा था,
तभी देखा मेरे PM के नाम का नया मेल कोने मे से झाक रहा था,

फिर कोई ट्रेनिग करनी होगी, ये क्या बकवास है,
क्या जबाब दू कि, मेरे मेल बाक्स का उपवास है,

मेने आखे बंद कि और 10 बार ॐ ॐ बोला
और प्रणाम करते हुये मैने वो मेल खोला,

PM के इस मेल मैं एक अजीब सा सुकून और भोलापन है
लिखा है भाइयों अप्रेजल पत्र आ गएअब तो आमने सामने कि बात है।

मॅन मैं ऐसे बुरे बुरे ख्याल आ रहे थे
ऊपर से कुछ लोग मेरे डि अप्रेजल की गन्दी अफवाह उड़ा रहे थे

PM को पत्र लाते देख हर कोई उसे देखता जाता है
जैसे मलिका के किसी नए गाने को देखा जाता है

आखिर वो वक़्त आयाPM ने एक एक करके सब को बुलाया
जो भी अंदर जाता हँसता हुआ जाता
जो बहार आतामुरझाया हुआ आता

बहार आ कर इंसान संभल भी नहीं पता है
की कितना हुआ कितना मीला हर कोई उसपे टूट जाता है

किसी एक को अप्रेजल मैं 2000 रुपये मिले थेमैं उसकी हंसी उड़ा रहा था
तभी मैंने देखा मेरा PM इशारे से मुझे अंदर बुला रहा था

मैं आत्मविश्वास से उठा और आगे कदम बढाया
तभी मेरी बेलट का बकल टूट के नीकल आया

मेरी हालत तो अभी से ही बुरी हो गयी
साला इज्ज़त उतरना तो यही से शुरू हो गयी

मैं अंदर पहुंचा और PM ने मुझे बिठाया
उसने पत्र पढा और वो हंसी रोक न पाया

वोह इतना हंसा की उसके आंसू आ गए
क्या मेरे अप्रेजल के अंक इतने भा गए

जैसे ही उसने अप्रेजल पत्र मेरी तरफ बढाया
मेरी आँखों के आगे घनघोर अँधेरा छाया

मुझे लगा जैसे मेरे दिल की दीवार को किसी ने गोबर से पोता है
अरे यार बीस रुपये ये भी कोई बढोतरी का इनाम होता है

ये साप्टवेयर इन्ड्स्ट्री है अखाडा नहीं है
ये वेतन बढोतरी है रोहनी आने -जाने का भाडा नहीं है

मेरे चारों तरफ कलि घटा छायी तभी मेरे PM की मोहक आवाज़ आई

तुम सोच रहे होगे के company mgmt का दिमाग फिर गया है
पर बेटा हम क्या करें डालर का भाव 2 रुपये जो गिर गया है

पर फिर भी मुझे लगता है ये पत्र गलत है
मुझे तो लगता है ये प्रिन्टिग की गलती है

तुम HR मैं जाओ और ये पता करके आओ

भाई HR मैं जाने के लिए तैयार होना पड़ता है
वही तो ऐसी जगह है जहाँ सुंदर लड़कियों से पला पड़ता है

ये क्या जहाँ रेनुका बैठी है आज वहां बैठा आपताब है
मैं समझ गया बेटा आज अपना किस्मत ही ख़राब है

उसने मेरा पत्र खोला और खुश हो के बोला

वो बोला श्रीमान आप के लिए खुशखबरी है
आप के पत्र ने प्रिन्टिग की ही गलती है

मैंने कहा मित्र अब देर न लगाएं
और मुझे मेरा सही सही हिसाब किताब बताएं

वो बोला माफ करे श्रीमान ये एक्सीडेंट है
बीस रुपये नहीं दो रुपये आप कि बढोतरी है

मैं क्या करूं आप को ये बताते हुए मेरा दिल रो रहा है
पर क्या करें डालर का भाव भी तो कम हो रहा है

मैं बस वहाँ खडा था कुछ समझ नहीं आ रहा था
मुझसे ज्यादा बढोतरी तो चपरासी वाला पा रहा था

मैंने खुद को संभालाखुद को उठाया
मैं लौटा और सीधे PM के पास आया

मैं सीधा उसके केबिन गया और दरवाज़ा खोला
इस से पहले की वो बोले मैं ही उस से बोला

महाशय ये पैसे वापिस ले लीजिये बात करना फीजूल है
मैं गरीब हूँ पर भीख नहीं लेता ये मेरा उसूल है|

सभार : विपीन खनडूरी

रविवार, अगस्त 01, 2010

दोस्ती, खुशी का मीठा दरिया है

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए समाज से उसके रिश्तों का ताना-बाना बड़ा ही वृहद होता है। वैसे तो उसके रिश्तों की फेहरिस्त बड़ी लंबी होती है, परंतु कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो जीने का जुनून जगाते हैं, कुछ कर गुजरने की जिद बन जाते हैं क्योंकि उन रिश्तों में 'प्रेरणा' की ऊर्जा निहित होती है। ये रिश्ते उस स्पंदन की अनुभूति होते हैं, जिनका आधार ही दोस्ती की नींव है। दोस्ती कहें या मित्रता, बोलने-सुनने में भले ही सहज सा लगे परंतु इस आत्मीय रिश्ते की गहराइयाँ पग-पग पर किस तरह हमें अनुकूलता/प्रतिकूलताओं में प्रेरित करती है, हमारा सम्बल बनती है, हमें संभालती है, यह वही समझ सकता है जिसके पास एक अच्छा दोस्त है। कुछ रिश्ते तो निभाए जाते हैं मगर यह इकलौता ऐसा है, जिसे जिया जाता है। 'दोस्ती' जिंदादिली का नाम है। 'दोस्त' बनकर दर्द दूर नहीं किया तो दोस्ती क्या खाक निभाई। सुख-दु:ख में दोस्ती ठंडी हवा का झोंका बनकर गले से लिपट जाती है, जिसका स्नेहिल स्पर्श तनाव में भी सुकून देता है।

सच्चा दोस्त किस्मत वालों को ही मिलता है। आसान नहीं है दोस्त मिलना और खुद किसी का दोस्त बन जाना। क्योंकि आज हम जिन लोगों के साथ घूमते-फिरते हैं। पिक्चर देखते हैं। टाइम पास करने के लिए हँस-बोल लेते हैं। उन्हें ही दोस्त कहने और समझने भी लग जाते हैं। दोस्ती एक अनमोल रिश्ता है जिसमें आदमी कब बँध जाता है। पता ही नहीं चलता। मुश्किल समय में काम आने वाला, नेक सलाह देने वाला मित्र ही सच्चा मित्र है। सच्ची मित्रता को किसी फ्रेंडशिप डे या फ्रेंडशिप बेल्ट जैसी औपचारिकताओं की जरूरत नहीं होती। उनके लिए प्रत्येक दिन ही मित्रता दिवस होता है। यह दिन शायद उन मित्रों के लिए बना हो जोकि बहुत ही मुश्किल से साल भर में यदा-कदा ही मिल पाते हों तो कम से कम इस दिन उन्हें याद कर लें।

'दोस्ती' की सरगम पर विश्वास के सुर पैरों में अपनेपन के नुपूर बाँधकर थिरकते हैं। 'दोस्ती' के पर्वत से ही प्रेरणा के झरने बहकर सफलतारूपी सरोवर में जा मिलते हैं। 'दोस्ती' वह जुगनू है, जिसकी टिमटिमाती रोशनी प्रतिकूलताओं की निशा में उम्मीद की किरण की तरह हमेशा जगमगाती रहती है।

'दोस्ती' उस सुरभि का नाम है जिसका अहसास 'अपनत्व' का अनुभव कराता है। कोई कहे 'दोस्त' हमदर्द होता है परंतु सच्चाई तो यह है कि 'दोस्त' वह गुरूर होता है, जिसके आश्रय में हममें मुसीबतों से लड़ने का साहस जाग जाता है।

बदलते कालचक्र में भले ही दोस्ती ने नया आयाम ले लिया हो परंतु इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता है कि दोस्ती का रिश्ता आज भी उसी विश्वास, समर्पण और अगाध स्नेह का पर्याय है, जितना कि वह बीते समय में रहा है। चूँकि समय बलवान है इसलिए बदलता रहता है परंतु तमाम रिश्तों में एक सच्चे दोस्त की 'दोस्ती' का रिश्ता समय की धारा के साथ परिवर्तित नहीं बल्कि प्रगाढ़ होता है।

वॉशिंगटन अर्विंग ने कहा है - सच्ची दोस्ती कभी व्यर्थ नहीं जाती, यदि उसे प्रतिदान नहीं मिलता तो वह लौट आती है और दिल को कोमल और पवित्र बनाती है।

तो बोलिए... क्या आप बन सकते हैं, ऐसे दोस्त। यदि 'हाँ' तो आज ही के दिन से इसकी शुरुआत कीजिए...।