मंगलवार, जून 05, 2012

इमोशनल अत्याचार

इमोशनल अत्याचार यानी कि भावुकता का उत्पीड़न term की पैदाइश. DEV-D के गाने “तौबा-तेरा जलवा..तौबा तेरा प्यार…तेरा emotional अत्याचार ..” के कोख से सन 2009 में हुई. बचपन से ही होनहार ये term बिना ज्यादा समय गवाए बच्चे-बूढ़े -जवान सबकी जुबान पे चढ गया.वैसे ऐसा नहीं है कि ये अचानक ही आसमान से टपक पड़ा है. इसके पूर्वज धोखा, फरेब, विश्वासघात आदि को हम सदियों से जानते हैं.एक बात ध्यान देने की ये है कि Emotional Atyachar तभी हो सकता है जब किन्ही दो लोगों की रिश्ते में कम-से-कम एक गंभीर और निष्ठावान हो

अगर कुछ एक दशक पहले कि बात करें तो इमोशनल अत्याचार बहुत ज्यादा देखने को नहीं मिलता था ..पर अब तो ये पान कि दूकान जितना आम हो गया है…. ये अक्सर आस-पड़ोस, गली-चौरहों, कॉलेज की कैंटीन और कार्यालय के गलियारों में दिखाई दे जाता हैं …हो सकता है आपके साथ भी ये हो चुका हो …या आप किसी के साथ ये कर चुके हो..कुछ भी संभव है खैर जो भी हो! मैं ये सोच रहा था कि आखिर अचानक इस अत्याचार में इतनी बढोत्तरी कहाँ से आ गयी…दो-तीन बातें मेरे दिमाग में आयीं

पहली— अगर कोई चीज आसानी से मिल जाये तो इंसान उसकी कीमत नहीं समझता.
दस-बारह साल पहले के प्रेमियों और आज कल के प्रेमी युगल में बहुत अंतर आ चुका है. पहले किसी प्रेम लीप्त मामले के जन्म लेने में उतना ही वक्त लगता था जितना कि बच्चे को पैदा होने में लगता है,..करीब नौ महीने. लड़का लड़की को देखता है कॉलेज की कैंटीन और कार्यालय के गलियारों में या फिर कहीं और….अब वो लड़की की गतिविधियों पे नज़र रखना शुरू करता है….वो कब घर से निकलती है…कहाँ जाती है…उसकी कौन सी सहेलियां हैं, उसका भाई.. भाई तो नहीं है…और कहीं उसका पहले से ही कोई चक्कर तो नहीं है…इतना सब होमवर्क करने के बाद ही लड़का आगे बढ़ता था….पर आज-कल तो कोई ज़रा सा भी अच्छा लगा तो बस facebook पे search किया थोड़ी line मारी ….ठीक रहा तो ठीक नहीं तो next…और आज नहीं तो कल कोई न कोई मिल ही जाता है…और हो जाता है affair शुरू.

पहले कि बात करें तो एक संबंध विकसित करने में इतने पापड़ बेलने पड़ते थे की सिर्फ वही लोग हिम्मत करते थे जिन्हें वाकई में प्यार होता था ..पर आज कल मोबाइल और इंटरनेट ने ये सब कुछ इतना आसान बना दिया है कि हिम्मत करने जैसी कोई बात ही नहीं रही…. और इसका हर्जाना उन बेकसूरों को भुगतना पड़ता है जो सच-मुच किसी संबंध को लेकर गंभीर होते हैं…वो बेचारे समझते हैं कि उनका साथी भी उतना ही गंभीर है..पर अफ़सोस बहुत बार ऐसा नहीं होता है… अब आप ही सोचिये नौ महीने में मिले प्यार के ज्यादा टिकाऊ होने के संभावना हैं या नौ घंटे में मिले प्यार के ??

दूसरी — नैतिक प्रणाली में बदलाव
अपने इस बिन्दु को समझाने के लिए मैं एक नवीनतम उदाहरण को पेश करना चाहूँगा. क्या आपने- बैंड बाजा बारात फिल्म देखी है? इसमें नायक और नायिका जो अभी तक एक-दुसरे से प्यार .. भी नहीं करते हैं, बिना किसी पूर्व मकसद के एक दुसरे के बहुत करीब आ जाते हैं..और अंत में वे एक दूसरे के साथ यौन संबंध स्थापित कर लेते हैअगर ये आठ-दस साल पुरानी फिल्म होती तो क्या होता…शायद वो लोग दोषी महसूस करते…पर अभी क्या होता है…लड़का सोचता है कहीं ये लड़की अब उसके गले न पड़ जाये ..और लड़की सोचती है चलो अब इसी से प्यार और शादी कर लेंगे. इस फिल्म के हिसाब से शादी से पहले यौन संबंध कोई बड़ी बात नहीं रही, और यौन संबंध और प्यार को अलग-अलग देखा जा रहा है..नायक ने नायिका के सेक्स किया था लेकिन वह शादी करने के मूड में नहीं है…क्योंकि वो नायिका से प्यार नहीं करता!!!

ऐसा ही देखने को मिला इश्क्जादे फिल्म में. फिल्म का नायक अपने दादा को चुनाव जिताने के लिए नायिका के साथ प्यार-विवाह का नाट्क कर यौन संबंध स्थापित करता है छोड़ देता है

ये एक बड़ा बदलाव है. मुझे लगता है जो लोग अपने प्रिय या पति के आलावा किसी और से रिश्ता रखते हैं वो कुछ ऐसा ही तर्क देते होंगे कि, “भले मैं किस और के साथ संबंध में हूँ पर मैं प्यार तो उसी से करता हूँ.” दरअसल ऐसे लोग बस खुद को अपनी ही नज़र में गिरने से बचाने के लिए ऐसा सोचते हैं ..वो अच्छी तरह से जानते हैं कि ये गलत है….पर ….???? तो नैतिक प्रणाली में आया बदलाव भी कुछ हद्द तक जिम्मेदार है…जो चीजें पहले बहुत बड़ा पाप होती थीं अब वो महज़ एक भूल बनकर रह गयी हैं. और भूल तो सभी से होती है.!!!

तीसरी – दोस्तों का दबाव
अगर आपका प्रेमी या प्रेमिका; (जाहिर है, अपने सेक्स पर निर्भर करता है) नहीं है तो आपको पिछड़ा समझा जाता है….. “अरे!! क्या बात कर रही है –तेरा कोई प्रेमी नहीं है”, मानो प्रेमी न हो सांस कि नली हो कि इसके बिना मौत पक्की है.लेकिन क्या करियेगा जब तक आप अकेले हैं ये दोस्त-यार आपको घूरते रहेंगे और और मजबूरन आपको जल्द से जल्द एक साथी ढूँढना पड़ेगा…इस जल्द्ब्जी में दिल से करने वाला काम दिमाग से कर बैठेंगे…किसी अच्छा लड़का या हॉट बेब से संबंध बना बैठेंगे. पर आपका दिल तो कुछ और ही तालाश करता रहेगा..और जिस दिन उसे वो मिली वो आपको इमोशनल अत्याचार करने के लिए उकसाने लगेगा.

कैसे बचें इमोशनल अत्याचार से:

किसी प्रतिबद्ध रिश्ते में जाने से पहले खुद को अच्छा-खासा वक्त दें. ज्यादा अवसर है कि अगर लड़का/लड़की गंभीर नहीं है तो उससे ज्यादा दिन इन्तज़ार नहीं होगा..और आपको खुद-बखुद पता चल जायेगा.

संबंध कि शुरुआत में अपने साथी को परख ले…शायद ये आपको थोडा अटपटा लगे पर बाद में पछताने से अच्छा है कि पहले ही सावधानियां बरत ली जायें. अब test कैसे करें ये आप अपने सबसे अच्छा दोस्त से ही पूछ लें तो अच्छा है..पर किसी आम दोस्त से पूछने कि गलती मत कीजियेगा. और एक बार अगर बंद/बंदी सही निकल जाए तो फालतू में उसपे शक भी ना कीजिये. वैसे अगर परखने के इस खेल में आप पकडे जाएँ तो मेरा नाम बता दीजियेगा..कहियेगा सारा दोष इसी का है…इसी ने ये घटिया विचार दिया था.

अगर सब-कुछ ठीक-ठाक चलते चलते अचानक आपको ऐसा लगने लगे कि आपका साथी धोखा कर रहा है तो खुद से जानने कि कोशिश करें कि ऐसा आपको क्यों लग रहा है…आप थोडा सतर्क हो जाइए अगर सच-मुच ऐसा हुआ तो कोई न कोई लक्षण दिख जायेगा..जैसे office से देर से आना , mobile का कुछ ज्यादा ही busy रहना,mail का password बदलना, etc …पर मैं एक बार फिर कहना चाहूँगा कि ज़बरदस्ती का शक कभी न कीजिये…कई बार अच्छी खासे संबंध बेबुनियाद शक कि वज़ह से बर्वाद हो जाती हैं.

अगर ऐसी मजबूरी आ जाये कि आपको अपने partner को छोड़ना पड़े तो भी आप सही तरीके से बात-चीत करके अपने संबंध को समाप्त कीजिये..बहुत हद्द तक आप खुद को अपने साथी पे इमोशनल अत्याचार करने से बचा पायेंगे…और कम-से-कम अपनी नज़रों में कुछ बेहतर स्थिति में होंगे.

जाते-जाते मैं एक बात कहना चाहूँगा…अगर आप सच्ची खुशी और एक चिरस्थायी संबंध चाहते हैं तो इमोशनल अत्याचार नहीं इमोशनल सदाचार कीजिये. पहले तो काफी सोच-समझ कर ही किसी संबंध में खुद को समर्पित कीजिये और अगर एक बार जो समर्पित हो गये तो उसे पूरी सच्चाई और इमानदारी से निभाइए. संबंधो में छोटी-मोटी समस्याएँ तो आएँगी ही आयेंगी लेकिन इसका समाधान इमोशनल अत्याचार नहीं इमोशनल सदाचार . इस सत्याचार को अपना के देखिये जिंदगी खूबसूरत बन जायेगी.

मैं ये इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि मैंने हमेशा ही इसका अनुगमन किया है और कहना होगा कि मैं अब तक इस से खुश हूँ. इसका सबसे बड़ा फायदा खुद को ही होता है.आप अच्छा महसूस करते है कि आपने कभी किसी को धोखा नहीं दिया. धोखा खा के शायद कोई इतना बुरा न महसूस करे जितना वो धोखादे के महसूस करेगा…तो फिर ऐसी भावना आने ही क्यों दी जाये..क्यों न इमोशनल अत्याचार को छोड़ इमोशनल सदाचार अपनाया जाये.

यदि आपके पास भी इमोशनल अत्याचार से बचने के कुछ सुझाव हों तो कृपया जनहित में अपने टिप्पणी के द्वारा बताएं.

रविवार, मार्च 04, 2012

क्यों मुझे गाँधी पसंद नहीं है ?


दोस्तों इस लेख को पढ कर आप को पता लग जयेगा कि गाँधी संत या फिर कुछ और.......इस लेख को पढे और अपनी राय व्यकत करे

1. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (1919) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।

2. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गाँधी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किंतु गाँधी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।

3. 6 मई 1946 को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गाँधी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

4.मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए 1921 में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला में मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग 1500 हिन्दु मारे गए व 2000 से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गाँधी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

5.1926 में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या अब्दुल रशीद नामक एक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।

6.गाँधी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।

7.गाँधी ने जहाँ एक ओर काश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को काश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

8. यह गाँधी ही था जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

9. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (1931) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी कि जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

10. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गाँधी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।

11. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गाँधी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

12. 14-15 जून, 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गाँधी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

13. मोहम्मद अली जिन्ना ने गाँधी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।

14. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गाँधी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

15. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।

16. 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को 55 करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गाँधी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।

17.गाँधी ने गौ हत्या पर पर्तिबंध लगाने का विरोध किया

18. द्वितीया विश्वा युध मे गाँधी ने भारतीय सैनिको को ब्रिटेन का लिए हथियार उठा कर लड़ने के लिए प्रेरित किया , जबकि वो हमेशा अहिंसा की पीपनी बजाते है

19. क्या ५०००० हिंदू की जान से बढ़ कर थी मुसलमान की ५ टाइम की नमाज़ ????? विभाजन के बाद दिल्ली की जमा मस्जिद मे पानी और ठंड से बचने के लिए ५००० हिंदू ने जामा मस्जिद मे पनाह ले रखी थी...मुसलमानो ने इसका विरोध किया पर हिंदू को ५ टाइम नमाज़ से ज़यादा कीमती अपनी जान लगी.. इसलिए उस ने माना कर दिया. .. उस समय गाँधी नाम का वो शैतान बरसते पानी मे बैठ गया धरने पर की जब तक हिंदू को मस्जिद से भगाया नही जाता तब तक गाँधी यहा से नही जाएगा....फिर पुलिस ने मजबूर हो कर उन हिंदू को मार मार कर बरसते पानी मे भगाया.... और वो हिंदू--- गाँधी मरता है तो मरने दो ---- के नारे लगा कर वाहा से भीगते हुए गये थे...,,, रिपोर्ट --- जस्टिस कपूर.. सुप्रीम कोर्ट..... फॉर गाँधी वध क्यो ?

२०. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी लगाई जानी थी, सुबह करीब 8 बजे। लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई और शव रिश्तेदारों को न देकर रातोंरात ले जाकर ब्यास नदी के किनारे जला दिए गए। असल में मुकदमे की पूरी कार्यवाही के दौरान भगत सिंह ने जिस तरह अपने विचार सबके सामने रखे थे और अखबारों ने जिस तरह इन विचारों को तवज्जो दी थी, उससे ये तीनों, खासकर भगत सिंह हिंदुस्तानी अवाम के नायक बन गए थे। उनकी लोकप्रियता से राजनीतिक लोभियों को समस्या होने लगी थी।
उनकी लोकप्रियता महात्मा गांधी को मात देनी लगी थी। कांग्रेस तक में अंदरूनी दबाव था कि इनकी फांसी की सज़ा कम से कम कुछ दिन बाद होने वाले पार्टी के सम्मेलन तक टलवा दी जाए। लेकिन अड़ियल महात्मा ने ऐसा नहीं होने दिया। चंद दिनों के भीतर ही ऐतिहासिक गांधी-इरविन समझौता हुआ जिसमें ब्रिटिश सरकार सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने पर राज़ी हो गई। सोचिए, अगर गांधी ने दबाव बनाया होता तो भगत सिंह भी रिहा हो सकते थे क्योंकि हिंदुस्तानी जनता सड़कों पर उतरकर उन्हें ज़रूर राजनीतिक कैदी मनवाने में कामयाब रहती। लेकिन गांधी दिल से ऐसा नहीं चाहते थे क्योंकि तब भगत सिंह के आगे इन्हें किनारे होना पड़ता।