सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

पहाड़ से गिरकर मरती हैं सैकड़ों महिलाएं

हिमालय की ऊंची-ऊंची और लंबी चोटियों से घिरे उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में आज भी पशुओं को चारे के लिए घास काटते समय प्रति वर्ष करीब 200 महिलाएं पहाड़ों से गिरकर अपनी जान गंवा बैठती हैं लेकिन अनेक मामलों में इनकी न तो रिपोर्ट दर्ज होती है और न ही इन्हें कोई मुआवजा दिया जाता है। प्रशासन में ज्यादातर मामलों में ये सामान्य मौत के तौर पर ही दर्ज होती हैं।

राज्य में अधिकांश गांव सुदूर पहाड़ों की चोटियों पर बसे हुए हैं और इन गांवों में रहने वाले लोग काफी संख्या में भेड़ों, बकरियों गायों, बैलों और भैंसों को पालते हैं। पशुओं के चारे के लिए घास काटने का काम पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाएं ही करती हैं। उत्तराखंड के कुछ जिलों के गांवों का दौरा करने के बाद यह रोचक तथ्य सामने आया कि अभी भी गांवों में घास काटने का काम या तो लड़कियां करती हैं या घर में ब्याह कर आने वाली बहुएं। घर की बुर्जुग महिलाओं द्वारा इन बालिकाओं और युवतियों को घास काटने का काम दिया जाता है। बालिकाओं को जहां यह काम स्कूल से आने के बाद सौंपा जाता है वहीं बहुएं इस काम को सूर्यास्त के पहले ही निपटाना पसंद करती हैं लेकिन अक्सर सूर्य की रोशनी कम होने के चलते और कभी-कभी अति विश्वास के चलते इनके पैर ऊंची चोटियों से लड़खड़ा जाते हैं जिससे ये गिर जाती हैं और इनकी मौत हो जाती है।

पहाड़ों के गांवों में महिलाओं को शाम के समय पीठ पर लाद कर घास को लाते हुए देखा जा सकता है। राज्य में दूध के लिए जहां बकरियों गायों और भैंसों को पाला जाता है वहीं अभी भी पारंपरिक खेती के लिए बैलों की जरुरत होती है क्योंकि खेत सीढ़ीनुमा होने के चलते वहां ट्रैक्टर सफल नहीं हो पाते। जाड़ों के मौसम में ऊन की जरूरत के लिए भेड़ों को पाला जाता है। इन सभी पशुओं के चारे के लिए सितम्बर से लेकर फरवरी महीने तक पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चट्टानों से सूखी घास काटी जाती है और यही चार महीने उत्तराखंड की ग्रामीण महिलाओं के चट्टान से गिरकर मौत के महीने होते हैं।

राज्य प्रशासन के पास हालांकि इन मौतों का कोई आकलन नहीं होता। समाज कल्याण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हकीकत में कम से कम पूरे राज्य में साल में करीब 200 महिलाओं को घास काटने के चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ती है और कई पूरे जीवन के लिए अपाहिज हो जाती हैं।

राज्य सरकार के पास इन महिलाओं के परिजनों को मुआवजा देने की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं है। यहां तक कि उनको घायल होने की अवस्था में अस्पताल ले जाने के लिए भी ग्रामीणों को अपनी जान जोखिम में डालनी होती है क्योंकि पहाड़ियों के कारण गिरने वाली जगह पर आसानी से पहुंचना भी लगभग असंभव होता है। खास तौर पर रात के अंधेरे में बहुत दिक्कत होती है। अधिकांश दुर्घटनाएं सूर्यास्त के बाद रास्ते का पता नहीं चलने और पैर फिसलने के चलते होती हैं।


दूसरी ओर समाज कल्याण विभाग के पास चूंकि जिले से कोई सरकारी आंकड़ा नहीं प्राप्त होता है इसलिए ऐसे मामलों में मुआवजा नहीं दिया जाता है।

Source : जागरण

सोमवार, सितंबर 14, 2009

हिन्दी के बारे में 14 बातें

* राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है। राष्ट्र के गौरव का यह तकाजा है कि उसकी अपनी एक राष्ट्रभाषा हो। कोई भी देश अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को अपनी भाषा में ही अच्छी तरह व्यक्त कर सकता है।
* भारत में अनेक उन्नत और समृद्ध भाषाएँ हैं किंतु हिन्दी सबसे अधिक व्यापक क्षेत्र में और सबसे अधिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है।
* हिन्दी केवल हिन्दी भाषियों की ही भाषा नहीं रही, वह तो अब भारतीय जनता के हृदय की वाणी बन गई है।
* सर्वोच्च सत्ता प्राप्त भारतीय संसद ने देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी को राजभाषा के पद पर आसीन किया है। अब यह अखिल भारत की जनता का निर्णय है।
* संसार में चीनी तथा अँग्रेजी के बाद हिन्दी सबसे विशाल जनसमूह की भाषा है।
* प्रांतों में प्रांतीय भाषाएँ जनता तथा सरकारी कार्य का माध्यम होंगी, लेकिन केंद्रीय और अंतरप्रांतीय व्यवहार में राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही कार्य होना आवश्यक है।
* प्रादेशिक भाषाएँ तथा राष्ट्रभाषा हिन्दी दोनों एक-दूसरे की पूरक तथा सहोदरा हैं। एक-दूसरे के सहयोग से वे अधिक समृद्ध होंगी।
* प्रादेशिक हिन्दी और राष्ट्रीय हिन्दी जैसी कोई चीज नहीं। जिसे आज हिन्दी कहते हैं, वही राष्ट्रभाषा है और उत्तरोत्तर विकास करके समृद्ध एवं गौरवशाली बनेगी।
* प्रत्येक मनुष्य दो आँखों से देखता है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र के निवासी के पास भी दो आँखें चाहिए। ये दो आँखें हैं - 1. अपने प्रांत की भाषा 2. सारे देश के लिए परस्पर व्यवहार की भाषा।
* हिन्दी का प्रचार करना राष्ट्रीयता का प्रचार करना है। हिन्दी किसी पर न तो जबर्दस्ती लादी जा रही है और न लादी जाएगी। वह तो प्रेम का प्रतीक है।
* कोई भी शब्द चाहे वह किसी भी भाषा का क्यों न हो, यदि वह जनता में प्रचलित है, तो वह राष्ट्रभाषा हिन्दी का शब्द है। आगे भी हिन्दी विभिन्न भाषाओं से शब्द-राशि लेकर समृद्ध बनेगी।
* राष्ट्र की एकता के लिए जैसे एक राष्ट्रभाषा होना आवश्यक है, उसी प्रकार एक लिपि का होना भी आवश्यक है। नागरी लिपि में वे सभी गुण उपस्थित हैं, जो किसी वैज्ञानिक लिपि में होने चाहिए।
* अत: समस्त प्रादेशिक भाषाओं की एक नागरी लिपि हो, यह आवश्यक है।
* अँग्रेजी को बनाए रखना हमारी शान और इज्जत के खिलाफ है। वह हमारे देश में रहने वालों के बीच एक दीवार है। इस देश में केवल अँग्रेजी जानने वालों का राज नहीं रह सकता।
* कौन कहता है कि दक्षिण में अँग्रेजी बोलने वालों की संख्‍या अधिक है? वहाँ अँग्रेजी जानने वालों से पाँच गुना संख्‍या हिन्दी जानने तथा समझने वालों की है।
'हिन्दी दिवस के दिन हम प्रतिज्ञा करें कि राष्ट्रभाषा हिन्दी और देवनाग‍री लिपि का प्रचार कर राष्ट्रीय भावना को हम सुदृढ़ करेंगे।
सौजन्य से - देवपुत्र

'दूसरी औरत'_(दुर्गादत्त जोशी )

शहर से कोसों दूर बढ़ापुर नाम का एक गाँव है, गाँव में चौहान जाति के ठाकुर रहते हैं, पुराने ज़मींदार थे। आज भी किसी-किसी के पास आठ-आठ दस-दस एकड़ ज़मीन है। फसल भी अच्छी हो जाती है हर एक के खेत में टयूबवेल लगा है, कुछ घर ब्राह्मणों के हैं जो खेती नहीं करते हैं खेत भी नहीं है, कुछ और जातियों के घर भी हैं जो इन ज़मींदारों के घर पर काम करते हैं, फसल पर कुछ अनाज मिल जाता है कुछ मजदूरी करते हैं जहाँ भी आसपास काम मिल गया, कुल मिलाकर गाँव खुशहाल है।

इसी गाँव में राजेश नाम का एक किसान रहता है, कोई पैंतीस छत्तीस साल का होगा, सात आठ साल पहले उसकी शादी हुई थी कमलेश के साथ, कमलेश देखने में खूबसूरत थी, उसके पिता जी भी बड़े ज़मींदार थे, राजेश के पिता नहीं थे, वह दस बारह साल पहले किसी दुर्घटना में मारे गए। राजेश ने अपने चाचा चाची के साथ जाकर कमलेश को देखा, देखते ही राजेश शादी को तैयार हो गया, होता भी क्यों नहीं ऐसी सुन्दर लड़की और उसका बाप भी मालदार, शादी बड़े धूमधाम के साथ सम्पन्न हो गई।

कमलेश को पाकर राजेश धन्य हो गया, साल भर बाद उसने एक लड़के को जन्म दिया, जिसका कुलदीपक नाम रखा, दो साल बाद एक लड़की हुई मीनाक्षी।

जब मीनाक्षी पेट में थी तभी से कमलेश बीमार रहने लगी, मीनाक्षी के होते-होते वह काफी कमज़ोर हो चुकी थी, धीरे-धीरे उसने चारपाई पकड़ ली, राजेश ने आसपास के कई छोटे मोटे डाक्टरों को दिखाया तमाम दवाइयाँ भी खिलाई पर कमलेश का रोग किसी से ठीक नहीं हुआ।

किसान हो या व्यापारी चाहे नौकरी पेशा ही क्यों न हो, घर में बीम'ा'री किसी को लग जाए तो घर बरबाद हो जाते हैं। राजेश कमलेश को लेकर शहर गया। घर बूढ़ी माँ के हवाले हो गया, माँ को दो बच्चे देखने, खेतों को देखना, जानवर भी पाले थे, उन्हें कौन देखता, सो एक दिन पास के बाज़ार में भिजवाकर सभी जानवर औने पौने दामों में बेच दिए, उधर शहर में कमलेश के डॉक्टर ने परीक्षण के आधार पर बताया कि इसको शुगर की बीमारी है और वह काफी बढ़ चुकी है, एक गुर्दा तो बिल्कुल खराब हो चुका है, दूसरा भी खराब होने ही वाला है। कमलेश का रोग ठीक हो ही नहीं सकता इसके गुर्दे बदलने पड़ेगे, राजेश की तो हालत खराब, रूवांसा हो गया, कमलेश की उमर ही क्या होगी यही कोई अठाइस तीस साल, गुर्दे बदलने को पाँच लाख रुपए की ज़रूरत पड़ेगी वो भी ठीक होने की कोई गारण्टी नहीं, डाक्टर के कम्पाउन्डर ने सलाह दी कि इसे दिल्ली दिखा दो किसी बड़े अस्पताल में। राजेश कमलेश को लेकर दिल्ली पहुँच गया, जो भी पाई पैसा था वह सब खर्च हो चुका था, वहाँ के डॉक्टरों ने भी वही सलाह दी जो उसके शहर के डॉक्टर ने दी थी, राजेश कमलेश को लेकर घर आ गया, घर आने के एक महीने बाद कमलेश की मृत्यु हो गई। सारी जमा पूँजी इलाज में लगा दी अन्त में मरीज़' से भी हाथ धो बैठा राजेश।

राजेश के घर की हालत खराब हो चुकी थी, बूढ़ी माँ विक्षिप्त हो गई थी, जब देखो तब आँखों से आँसू की धारा, राजेश को जब भी देखें तब रो पड़ती थीं, कलेजे के टुकड़े को परेशानी में देखकर हर माँ का दिन ऐसे ही भर आता है। छोटे बच्चों की भी हालत खराब। कपड़े मैले हो रहे हैं, हफ्ते भर से बच्चों को नहलाया नहीं है, बड़ा स्कूल जाने लायक हो गया हे कौन भेजे सब तितर बितर हो गया है, सारा निजाम ही बिगड़ गया है घर का, माँ बिल्कुल टूट गई है, उसे घर सुधरने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। निराशा से घिरी रहती है रात दिन, एक दिन राजेश के चाचा घर पर आए तो उसकी माँ उनके आगे फफक-फफक कर रो दी, चाचा ने बहुत समझाया बुझाया ये सब विधि का विधान है, वैसे ही आपको भाईसाहब का दुख सालता रहता है, ऊपर से जवान बहू की मौत हो गई रोना तो आएगा ही पर किया क्या जाए, हिम्मत रखो धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।

इतने में ही राजेश कहीं से आया, बड़ा बच्चा राजेश को लिपट गया, छोटी दादी की गोद में बैठी है। पूरा घर ही बेतरतीब हुआ पड़ा है, छत की तरफ़ जाले लगे हैं, दीवारें बच्चों ने खुरच रखी है, कपड़े अस्तव्यस्त हैं, बरतन कोई यहाँ पड़ा है कोई वहाँ, रसोई में मक्खियाँ भिनभिना रहीं हैं। झूठे बर्तनों का ढेर लगा पड़ा है। अब राजेश आ गया है, वह छोटी को पकड़ेगा तो माँ किसी तरह रोटी का प्रबन्ध करेगी, बातों ही बातों में चाचा ने कहा भाभी जी आप राजेश की शादी कर दो, दूसरी औरत आ जाएगी तो घर की हालत सँभाल लेगी, ''कह तो ठीक रहे हो पर कोई नरम दिल की मिले तब ना'' दूसरी तो पहली के बच्चों को मारेगी, जलन करेगी, अगर चाल चलन ठीक नहीं तो घर को नरक बना देगी, उससे तो ऐसे ही काट लेंगे। फिर रूवांसी हो गई। चाचा ने कहा, ''फिकर मत करो देखभाल कर करेंगे। कोई विधवा परित्यक्ता मिल जाएगी तो ज़्यादा ठीक रहेगा। वो ज़्यादा नखरे नहीं करेगी, पर पूछताछ करनी पड़ेगी, समय निकाल कर करना होगा। भाभी आपकी हालत मुझसे देखी नहीं जाती, आपने तो अपने बच्चे की तरह पाला है मुझे, देखना मैं राजेश को सही औरत लाके दूँगा।''

चाचा शादी के लिए औरत देखने में लग गए, जगह-जगह के आदमियों से चर्चा की, कुछ रिश्तेदारियों में संदेशा पहुँचवाया कि कहीं राजेश के लायक कोई औरत हो तो बताना, कुछ दिनों के बाद एक गाँव से खबर आई कि यहाँ एक ऐसी औरत रहती है, बड़े ही गरीब घर की है, बाप के पास कुछ नहीं है, अगर भगवान ने चाहा तो रिश्ता हो जाएगा, चाचा राजेश के साथ उसी गाँव में पहुँच गए जिन्होंने सन्देशा भिजवाया था उन्ही के घर रुके, नमस्कार कुशलक्षेम के बाद चाय पी।

थोड़ी देर बाद घर के मुखिया ने कहना शुरू किया, देखो राजेश बाबू आप ठहरे बड़े किसान कोशिश करोगे तो आपको कुँवारी कन्या मिल जाएगी थोड़ा बहुत दहेज भी मिल जाएगा, अभी आपकी उमर ही क्या है अब तो चालीस छोड़ो पैंतालिस साल के भी शादी कर रहे हैं, पर मैंने जो देखा है उसका जबाब नही, देखने में साँवली ज़रूर है, कद भी छोटा है, पर है बड़ी होशियार, अपने बाप को पाल रही है, हमारे ही बिरादरी के हैं, इसके दादा गलत सोहलत में पड़ गए थे, तमाम बुरे काम 'शराब, जुआ' सब सम्पत्ति बेचकर मरते समय कंगाल हो गए थे, आगे को एक लड़का था उसी का बाप हमारे खेतों में काम करता है। न पढ़ा न लिखा न ज़मीन और करता भी क्या बीबी पहले ही मर चुकी है, हमने रहने के लिए छोटा-सा मकान बनाकर दे दिया था, उसी में रहते हैं, मेरे कहने को टालेंगे नहीं कहो तो मैं लड़की और उसके बाप को बुला देता हूँ, और यह भी सुन लो हमने उसकी शादी भी करवा दी थी एक अच्छे परिवार में पति को पसंद नहीं आई, उसने छोड़ दिया, यहीं रहती है, इन्टर तक का कॉलेज है गाँव में इंटर तक पढ़ी है, अगर शहर में किसी सेठ के यहाँ पैदा हुई होती तो डॉक्टर बैरिस्टर होती। राजेश जी घर बनाने वाली है, सिलाई कढ़ाई करती है गाँव के बच्चों को घर पर पढ़ाती है, बड़ी शालीन है, किसी से कभी ज़ोर से बोली नहीं होगी, मैं अपनी लड़की समझता हूँ उसे। अगर आप राज़ी हो गए तो उस बेचारी की ज़िन्दगी सुधर जाएगी और आपका घर भी बन जाएगा।

राजेश ने गौर से बातें सुनी और औरत और उसके बाप को बुलाने को आग्रह किया, थोड़ी देर में दोनों बाप बेटी सामने बैठे थे। वाकई रंग काला ही था फिर गरीब थी परित्यक्ता थी, फिक्र में जीने वालों का रंग वैसे ही काला पड़ जाता है पच्चीस छब्बीस की होगी, चेहरे से ज़्यादा की लग रही थी, बाप कुछ बोला नहीं गरदन झुकाकर एक तरफ़ को बैठ गया। राजेश ने नाम पूछा तो औरत ने 'रूपा' बता दिया, शादी के लिए पूछने पर कह दिया जैसा ताऊजी कहेंगे।

फिर राजेश के चाचा ने कहना शुरू किया देखो बिटिया ये दो बच्चों का बाप है? घर में बूढ़ी माँ है, घरवाली के इलाज में बहुत बरबाद हो गया है, इसके पास जमा पूँजी कुछ नहीं है, बस एक ट्रैक्टर और खेत में टयूबवैल है। एक हवेली और सात आठ एकड़ ज़मीन है। सारे जानवर बहू की बिमारी के दौरान देखभाल न हो पाने की खातिर बेच दिए हैं, तुम समझ लो बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, भाभी को सम्भालना होगा, बच्चों की देखभाल करनी होगी, तुम यह सब कर लोगी, रूपा ने हाँ में गरदन हिला दी, फिर उस रिश्तेदार जिसके यहाँ रुके थे ने कहना शुरू किया, ''बेटी ये बड़े किसान हैं परेशानी किसे नहीं आती, सब दिन एक समान नहीं होते जमी जमाई गृहस्थी है, मुझे यकीन है तुम ज़रूर सँभाल लोगी, फिर राजेश की तरफ़ मुखातिब होकर बोले राजेश जी आपने इसे देख लिया है आप हाँ कर रहे हो?'' राजेश ने भी हाँ कह दिया।


दूसरे दिन गाँव के ही पंडित ने गाँव के मन्दिर में एक दूसरे के गले में जयमाला डलवा दी। राजेश और उसके चाचा रूपा को लेकर गाँव आ गए। चाचा जी ने अपने घर से खाना पका कर भेज दिया, खाना खा पीकर थोड़ी देर बातचीत कर सब सो गए। दूसरे दिन सूर्योदय से पहले ही जाग की खड़ी हुई रूपा, पूरे मकान की सफाई की छतों के जाले साफ़ किए, आँगन की लिपाई कर दी फ़र्श पर पोंछा लगाया, सभी कपड़ो की तह कर करीने से जगह पर रखे, रसोई की धुलाई कर दी राजेश थोड़ी देर देखता रहा फिर उठकर वह भी रूपा का हाथ बँटाने लगा, पड़ोस से दूध लाया चाय बनाई माँ को जगाया उन्हें चाय पिलाई फिर रूपा ने दोनों बच्चे जगाए, उनको सुबह ही नहला दिया, उनको नए कपड़े पहना दिए, दूध पिलाकर आँगन में खाट बिछाकर बैठा दिए, वे दानों खेलने लगे माँजी को नहला दिया। उनके बालों में थोड़ा तेल चुपड़कर कंघी कर दी, साफ़ धोती पहनने को दी, उनको भी बाहर खाट पर बिठा दिया, अब देखो कल शाम ही रूपा घर में आई थी सुबह उसके काम को देखकर लग रहा था जैसे बरसों से यहीं रह रही हो, हो भी क्यों न सेवा भाव हो तो हाथ पैर काम की तरफ़ अपने आप चलने लगते हैं, रूपा रसोई में गई सभी डिब्बे खोलकर देखा किस डिब्बे में क्या दालें हैं, आटा चावल के बरतन टटोले राजेश खेतों से कुछ सब्ज़ियाँ ले आया, इतने में रूपा ने पराठे सेंक दिए सभी का नाश्ता हो गया।

नाश्ते से निपटकर रूपा ने घर के सभी कपड़े धोए राजेश ने हेंडपंप चलाकर रूपा का सहयोग किया, दोनों ने मिलकर कपड़े फैला दिए, माँ आँगन में खाट पर बैठकर रूपा को काम करते हुए एक टक देखती रही, चन्द घन्टों में ही घर की काया पलट दी रूपा ने। सुबह के सारे कामों से निपट खुद नहाधोकर रूपा ने माँ जी से पूछा दिन में खाने के लिए क्या पकाना है। माँ जी ने उसे अपने साथ थोड़ी देर खाट पर बैठाया, कुलदीपक संशय भरी निगाह से देख रहा था रूपा को, उसने हाथ पकड़कर खींचा अपने सीने से लगाया, उसने उसके गालों को कई बार चूमा, फिर उसे छोड़कर मीनाक्षी को गोद में उठा लिया, उसे लेकर आँगन में ही टहलने लगी। चंद घन्टों में ही बच्चे भी अपना लिए माँ भी खुश।

पड़ोस में नई दुल्हन आई हो और पड़ोसने देखने को न आएँ ऐसा कैसे हो सकता है? लिहाजा दोपहर के समय एक-एक दो-दो करके घर में आने लगीं। रूपा का रंग रूप देखकर सभी माँ जी से फुसफुसाने लगीं, ''अरे लाना ही था तो किसी अच्छी-सी देखने भालने में ठीक-सी लाते। ये क्या लाए हो? इतनी जल्दी भी क्या थी? अभी छ: महीने ही तो हुए हैं कमलेश को मरे। हमसे कहते हमारे मायके में है एक पति से बनी नहीं मायके में ही रह रही है इतनी सुन्दर की पूछो मत। माँ जी उनको सुनती रहीं बोली कुछ नहीं। थोड़ी देर में रूपा चाय बना लेकर आई सबको चाय के कप पकड़वाए। फिर जिस जिसको माँ जी ने बताया उनके पैर छुए सामने बैठ गई। पड़ोसनों का आना जाना दो तीन घन्टे चला आखिर में छाया आई।

छाया इस गाँव की सबसे पढ़ी लिखी बहू है। एम.ए. तक पढ़ी है। लम्बी-सी चोटी माँग में सिन्दूर बड़ी-बड़ी आँखे गदराया हुआ शरीर गोरा चिट्ठा रंग जैसे अंग्रेज़ हो। गाँव भर में इसके रूप रंग के चर्चे होते हैं। पति भी बहुत प्यार करता है। गाँव के जवान लड़के घर पर मंड़राते रहते हैं। बड़े सलीके से रहती है आसपास की औरतें इससे ईर्ष्या रखती हैं। बहुत कम बोलचाल है कुछ घमन्डी टाइप की है। यह नई बहुओं को देखने के लिए इसलिए जाती है कि कहीं आने वाली मुझसे ज़्यादा सुन्दर तो नहीं? बनाव शृंगार में घन्टों लगाती है इसके खर्चे भी बहुत हैं। छाया के पति ने घर में टीवी, फ्रिज, गैस चूल्हा सब रखा है। इन सबके लिए अपना पुराना ट्रैक्टर तक बेच दिया, जो इनकम होती है कुछ फैशन में, कुछ ज़ायके के हवाले हो जाती है। पर है बहुत खुश। बीबी जो अति सुन्दर है। छाया ने भरपूर नज़र रूपा के चेहरे पर डाली पूरा शरीर आँखो से टटोला फिर माँजी की तरफ़ मुस्कुराकर देखा, अपने घर चली आई। रूपा के रूप रंग से गाँव की रूपवतियाँ खुश नहीं थी। एक ने दूसरे से कहा, ''हमें क्या है? जब राजेश को पसन्द है तो ठीक है।''

रूपा को आए पूरा हफ्ता हो चुका है। माँ जी को लग रहा है जैसे रूपा हफ्ता नहीं बरसों से साथ है। सेवा में लगी रहती है, राजेश से कहकर दूध देने वाली भैंस ख़रीद ली। बच्चों को दूध घर का मिलने लगा, कुलदीपक स्कूल जाने लगा है मीनाक्षी अभी डेढ़ साल की है। रूपा कुलदीपक को बड़े प्यार से पढ़ा रही है। बच्चे मम्मी-मम्मी कहने लग गए हैं। राजेश खेतों की देखरेख में लग गया है। माँ जी सुबह शाम घूमने लगीं हैं, माँ जी के सिर में तेल ठोककर पैरों के तलवों की मालिश होने लगी है। पूरा घर घर की तरह हो गया है। गाँव के बाज़ार से कपड़ा लाकर बच्चों को नए कपड़े रूपा ने खुद सीकर पहना दिए, माँ जी का ब्लाउज पेटीकोट सी दिया।

पड़ोसने चुपचाप देखती रहती, रूपा को किसी और से बात करने की फुरसत कहाँ। इन्टर पास है गाँव के कॉलेज से वो भी कृषि विज्ञान से, उसने खेतों में जाना भी शुरू कर दिया। राजेश को खेत की मिट्टी की जाँच कराने को कहा सही बीज खाद का चयन करने को कहा। एक भैंस से घर के ही दूध की भरपाई हो पाती है, अगर हमारे पास आठ दस भैंसे होती तो हमारी इनकम बढ़ जाती बायो गैस प्लान्ट लग जाता घर की रोशनी के लिए सौर ऊर्जा संयत्र लग जाता गोबर के उपले की जगह जैविक खाद बनने लगती। किसी सरकारी बैंक से कर्ज़ लेकर राजेश ने रूपा की मनोकामना पूरी कर दी। भैंसो की देखरेख के लिए एक नौकर रख दिया।

रूपा राजेश के संग पिछले एक डेढ़ साल से रह रही है। माँजी ने कहा, ''रूपा बेटी तुम्हारा भी एक बच्चा होता तो तुम्हारे लिए ही अच्छा होता।'' रूपा ने साफ़ इनकार कर दिया, ''माँ जी भगवान की कृपा से बगैर पैदा किए दो बच्चे मिल गए और मुझे नहीं चाहिए। भगवान इनको लम्बी उमर दे। फिर माँ जी अपना पराया क्या है? क्या अपने बच्चे वाले सुखी हैं।'' राजेश की माली हालत पहले से काफी बेहतर हो गई। एक दिन माँ जी ने गाँव से रूपा के पिता जी को भी अपने घर पर ही बुला लिया। इनसे अब मजदूरी नहीं हो पाती है काफी कमज़ोर और बीमार हो गए थे। रूपा के अलावा इस संसार में इनका कोई नहीं है।

आज राजेश के घर के आगे नई कार खड़ी है। दूध की ब्रिकी से ख़रीदी है। बैंक में पैसा भी है, खेत पहले से दुगनी उपज वाले हो गए हैं। माँजी जवान लगने लग गईं है और बच्चे भी खुशहाल हैं। और क्या चाहिए राजेश को? उधर छाया के पति को उसके खर्चों ने कर्ज़दार बना दिया है। आज छाया रूपा के आगे नतमस्तक होकर खड़ी है उसे एक हज़ार रुपए की सख़्त ज़रूरत है। रूपा ने माँ जी की तरफ़ इशारा कर दिया उनसे ले लो। रूपा से मिलने के बाद और उसके कार्यकुशलता से प्रभावित होकर छाया को अपने रूप रंग पर खुद ही घृणा होने लगी। अब वह रूपा की दिवानी हो चली है। रूपा उसे कृ'षि' एंव पशुपालन की ट्रेनिंग दे रही है। उससे रूपा ने कहा दीदी आप मुर्गी फारम खोल लो बहुत जल्दी कार आ जाएगी।

राजेश के चाचा उसकी मम्मी के सामने बैठे हैं रूपा की चर्चा पूरे गाँव में है बोल, ''भगवान ने मेरी लाज रख दी मैं अपने को धन्य भाग समझता हूँ। भाभी जी जो रूपा जैसी बेमिसाल औरत हमारे गाँव में हैं।'' माँजी की आँखे एक बार फिर छलछलाने लगीं पर ये आँसू खुशी के थे जो रूपा ने माँ जी को दी थी। आज इस बड़ापुर गाँव में रूपा से रूपवान कोई औरत नहीं हैं पर रूपा दूसरी औरत के रूप में आई है काश! कोई रूपा जैसी दुल्हन पहली औरत के रूप में सहर्ष ले आता।

दुर्गादत्त जोशी

शनिवार, सितंबर 12, 2009

काबुलीवाला_(रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह ‘काक’ को ‘कौआ’ कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है – आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी
दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"

रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ‘’तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"

"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।

मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, “'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।“

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, “आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।“

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, “लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?”

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।
मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, “रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।“