उत्तर में उत्तुंग हिमाच्छादित नन्दादेवी, नन्दाकोट, त्रिशूल की सुरम्य पर्वत मालाएं हैं। पूर्व में पशुपति नाथ का सुन्दर नेपाल है। पश्चिम में तीर्थों का लीडर भव्य गढ़वाल है। दक्षिण में टनकपुर, हल्द्वानी, रामनगर की (पीलीभीत) जरखेज तराई की धरती है। यही उत्तराखंड की एक कमिश्नरी है कुमाऊं। इसकी वादियों में बहती है कलकल-छलछल करती तीव्र गति में बहुत-सी नदियां। यहां 50 हजार से पांच लाख साल पुराने शैलाश्रयों के आदिम मानव सभ्यता के अवशेष इतिहासकार बताते हैं। पं. बद्रीदत्त पांडे जी ने ई.पू. 2500 से 700वी ई. तक कत्यूरों का राज बताया है। आदि शंकराचार्च ने सातवीं शताब्दी में सूर्यवंशी राज्य का अभिषेक किया था। इससे पहले यहां बौद्ध धर्म था। वेे बाद में कत्यूरी कहलाए। राहुल सांकृत्यायन 850 से 1060 तक कत्यूरी राज मानते हैं। चंदों ने 1200 से 1700 तक राज किया। 1729-43 तक रूहेलों के निरंतर आक्रमणों से कुमाऊं त्रस्त था। 1790 से 1815 तक गोरखा कुराज रहा। उसके बाद अंग्रेजी राज में मिला लिया गया था। 1857 के विद्रोह के कई सेनानी यहां पहुंचे थे। जंगे आजादी की खूब हलचल थी। कुमाऊं नाम की कई कथाएं हैं। कूर्माकार होना ही कुमाऊं माना जाता हैं। स्कंध पुराण में इसका वर्णन है। कवि चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो में लिखा है—

‘सवलष्प उत्तर सयल, कुमऊं गढ़ दुरंग।
राजतराज कुमोदमणि हय गय द्रिब्ब अभंग।’
कुमाऊंनी संस्कृत, अप्रभंश, दरद-खास-पैशाची, सौर सेनी से बनी, तथा इसमें नेपाली, गढ़वाली, बंगला शब्दों की भरमार है। 1105 से कुमाऊंनी का रूप-लय ढलने लगा था। कुमाऊंनी बोलने वालों की संख्या 15 लाख बताई गयी है। कुमाऊं की अपनी संस्कृति, अपनी बोली, अपनी एक विशिष्ट जीवनचर्या है, पहचान है। वैदिक धर्म ही कालांतर में हिंदू धर्म बना। प्रारम्भ से ही हिंदू धर्म में बहु-ईश्वरवाद है। कुमाऊं में हिंदू देवता तो हैं ही साथ में स्थानीय देवी-देवता भी हैं जिनमें अधिकतर जागर प्रधान हैं। यह उनके वीरों, पूर्वजों के स्मरण की एक प्रणाली है। इन पर गहन आस्था है, साथ में एक सामाजिक न्याय प्रणाली और संकट मोचक देव-देवी बन गए हैं। कस्बों में बहुधर्मी समाज है, जबकि गांवों में ब्राह्मण-राजपूत प्रधान हैं। तीसरे स्थान पर दलित हैं।
ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर देवी के थान (मंदिर) हैं। नदी-नालों के किनारे शिवालय हैं। सत्य नारायण कथा के शंख-घंटियां सभी घरों में बजती हैं। पार्वती, भगवती, (देवी) सरस्वती, लक्ष्मी पूजन आम हैं। ब्रह्मा-विष्णु, महेश देव सबके हैं। कुमाऊं के स्थानीय देवताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। वे अधिकतर जागर प्रधान हैं। एक होता है जगरिया। वह एक लयबद्ध कथा से बाजों द्वारा डंगरियां (वह व्यक्ति जिसके शरीर में देव प्रविष्ठï होता है) नचाता है। वह पूजा लेता है। न्याय देता है। खुश होता है। संरक्षण करता है। ये हैं कुमाऊं के देवी-देवता।
भूमिया : हर गांव में भूमिया का मंदिर है। रबी-खरीफ की फसल कटने के बाद भूमिया देवता पूजे जाते हैं। सामूहिक शेयर से पूवे पकाए जाते हैं।
देवी : दुर्गा, भगवती कई नामों के मंदिर हैं। उनमें भंडारे होते हैं। कत्यूरी वंश की ऐतिहासिक वीरांगना जियारानी रानीबाग चित्रशिला पर हर मकर संक्रांति (उत्तरायणी) पर जागरों द्वारा पूजी जाती है।
गोलू : राजा झालराई की सात रानियां होने पर भी वह नि:संतान थे। संतान प्राप्ति की आस में राजा द्वारा काशी के सिद्ध बाबा से भैरव यज्ञ करवाया और सपने में उन्हें गौर भैरव ने दर्शन दिए और कहा राजन अब आप आठवां विवाह करो में उसी रानी के गर्भ से आपके पुत्र रूप में जन्म लूंगा। इस प्रकार राजा ने आठवां विवाह कालिंका से रचाया। मगर इससे सातों रानियों में कालिंका को लेकर ईष्या उत्पन्न हो गई। कालिंका का गर्भवती होना सातों रानियों के लिए असहनीय हो गया। तब तीनों रानियों ने ईष्या के चलते षडयंत्र रचते हुए कालिंका को बताया कि ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए माता से पैदा होने वाले शिशु की सूरत सात दिनों तक नहीं देखनी पड़ेगी। यह सुनकर वंश की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए कालिंका तैयार हो गई। कालिंका को कोठरी में कर दिया गया। प्रसव पीड़ा होते ही उसकी आंखों में काली पट्टी बांध दी गई। सातों रानियों ने नवजात शिशु को हटाकर उसकी जगह सिलबट्टंा रख दिया गया। फिर उसे बताया कि उसने सिलबट्टे को जन्म दिया है। सातों रानियां नवजात शिशु को मारने की व्यवस्था करने लगी। सर्वप्रथम उन्होंने बालक को गौशाला में फेंककर यह सोचा की बालक जानवरों के पैर तले कुचलकर मर जाएगा। मगर देखा कि गाय घुटने टेक कर शिशु के मुंह में अपना थन डाले हुए दूध पिला रही है। अनेक कोशिशों के बाद भी बालक नहीं मरा तो रानियों ने उसे संदूक में डालकर काली नदी में फेंक दिया। मगर ईश्वरी चमत्कार से संदूक तैरता हुआ गौरी घाट तक पहुंच गया। जहां वह भाना नामक मछुवारे के जाल में फंस गया। संदूक में मिले बालक को लेकर नि:संतान मछुवारा अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे घर ले गया। गौरी घाट में मिलने के कारण उसने बालक का नाम गोरिया रख दिया। बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो उसने मछुवारे से घोड़ा लेने की जिद की। गरीब मछुवारे के लिए घोड़ा खरीद पाना मुश्किल था, उसने बालक की जिद पर उसे लकड़ी का घोड़ा बनाकर दे दिया। बालक घोड़ा पाकर अति प्रसन्न हुआ। बालक जब घोड़े पर बैठा तो वह घोड़ा सरपट दौड़ने लगा। यह दृश्य देख गांव वाले चकित रह गए। एक दिन काठ के घोड़े पर चढकर वह धोली धूमाकोट नामक स्थान पर जा पहुंचा, जहां सातों रानियां राजघाट से पानी भर रही थीं। वह रानियों से बोला पहले उसका घोड़ा पानी पियेगा, बाद में आप लोग पानी भरना। यह सुनकर रानियां हंसने लगी और बोली अरे मूर्ख जा बेकार की बातें मतकर कहीं कांठ का घोड़ा भी पानी पीता है। बालक बोला जब स्त्री के गर्भ से सिलबट्टा पैदा हो सकता है तो कांठ का घोड़ा पानी क्यों नहीं पी सकता। यह सुनकर सातों रानियां घबरा गई। सातों रानियों ने यह बात राजा से कहीं। राजा द्वारा बालक को बुलाकर सच्चाई जानना चाही तो बालक ने सातों रानियों द्वारा उनकी माता कालिंका के साथ रचे गये षडयंत्र की कहानी सुनायी। तब राजा झालराई ने उस बालक से अपना पुत्र होने का प्रमाण मागा। इस पर बालक गोरिया ने कहा कि यदि मैं माता कालिंका का पुत्र हूं तो इसी पल मेरे माता के वक्ष से दूध की धारा निकलकर मेरे मुंह में चली जाएगी और ऐसा ही हुआ। राजा ने बालक को गले लगा लिया और राजपाठ सौंप दिया। इसके बाद वह राजा बनकर जगह-जगह न्याय सभाएं लगाकर प्रजा को न्याय दिलाते रहे। न्याय देवता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद वह अलोप हो गए।
गोलज्यू का मूल स्थान चम्पावत माना जाता है। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार उन्हे घोड़ाखाल में स्थापित करने का श्रेय महरागांव की एक महिला को माना जाता है। यह महिला वर्षो पूर्व अपने परिजनों द्वारा सतायी जाती रही। उसने चम्पावत अपने मायके जाकर गोलज्यू से न्याय हेतु साथ चलने की प्रार्थना की। गोलज्यू उसके साथ यहां पहुंचे। मान्यता है कि सच्चे मन से मनौती मांगने जो भी घोड़ाखाल पहुंचते हैं गोलज्यू उसकी मनौती पूर्ण करते हैं। न्याय के देवता के रूप पूजे जाने वाले गोलज्यू पर आस्था रखने वाले उनके अनुयायी न्याय की आस लेकर मंदिर में अर्जियां टांग जाते हैं। जिसका प्रमाण मंदिर में टंगी हजारों अर्जियां हैं। न्याय की प्राप्ति होने पर वह घंटियां चढ़ाना नहीं भूलते। जिसके चलते घोड़ाखाल का गोलू मंदिर पर्यटकों के बीच घंटियों वाले मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हो चला है।
गणनाथ : डोटी के राजा भवैचन्द का पुत्र था। नाथ पंथ में दीक्षित था। उसने भाना के घर अलख जगाई। भाना गर्भवती हुई। जोशियों ने रंगेहाथ पकड़ा, गणनाथ के साथ गर्भवती भाना की हत्या कर दी। तीसरे दिन जीवित होकर झकरूआ समेत गणनाथ, भाना, बरमीबाला ने जोशी खोला में उत्पात मचा दिया। क्षमा याचना पर जोशियों के घर के ऊपर पूजा पाने लगा।
भोलनाथ : भोलनाथ राजा उदयचन्द के बड़े बेटे थे। निर्वासित थे। छोटे पुत्र ज्ञानचंद का राज्याभिषेक किया। एक बार भोलनाथ साधू वेश में अल्मोड़ा में पोखर किनारे ठहरे। ज्ञानचंद को जानकारी मिली। उसने गद्दी जाने के भय से छल से भोलनाथ और गर्भवती स्त्री की हत्या करवा दी। वे भूत बनकर सताने लगे। उनकी पूजा हुई। तब शांति मिली।
मलैनाथ : डोटी के आभालिंग का पुत्र था। मलैनाथ के फाग गए जाते है। जैसा की बंगा, अस्कोट, देवचूला, पंचमई, डिडीहाट में मलैनाथ के मंदिर हैं।
हरू : परोपकारी देवता हैं। सुख, संपदा, धन धान्य सूचक हैं। हरू काली नाग देवी का ज्येष्ठ पुत्र था। चम्पावत का राजा बना। एक दिन राज त्याग साधू हो गया। छिपलाकोट की रानी को वरण करने गया, कैद हो गया। छोटे भाई सैम और भांजा ग्वेल ने मुक्त कराया। भाटकोट आदि में मंदिर हैं।
सैम : कालीनारा के हरू का छोटा भाई था। हरू की भांति सुख-समृद्धि के देव हैं। हरू सैम के फाग गए जाते हैं। ग्वेल धूनी के जागरों में पूजा जाता है।
कलबिष्ट : केशव कोट्यूडी का बेटा था। पाटिया गांव कोट्यूडा कोट में रहता था। राजपूत था। बिनसर में गायें चराता था। छलपूर्वक लखडय़ोड़ी ने मार डाला। लोगों की मदद करता है। बिनसर, पाली पछाऊं में पूजा जाता है।
चौमू, बधाण, नौलदानू : ये पशुओं के देवता हैं। चौमू रियुणी, द्वारसों में पूजा जाता है। बधाण गाय भैसों के जनने के 5वें, 7वें या 11वें दिन पूजा जाता है। उसके बाद दूध देवताओं में चढ़ाने काबिल होता है। नौलदानू का किसी दुधैल पेड़ की जड़ में वास माना जाता है।
भागलिंग, हुंस्कर, बालचिन, कालचिन, छुरमल, बजैण : डोटी में पूजनीय हैं। नेपाल से आया देवता है। बालचिन हुंस्कर का बेटा है। डूंगरा, डांगटी, तामाकोट, जोहार में पूजा जाता है। कालचिन कालिंग का पुत्र था। छुरमल कालचिन का बेटा था। बजैण भनार में हैं।
नारसिंह : ये पैराणिक कथा नृसिंह हैं। स्थानीय देव के रूप में भी पूजा जाता है। आदि व्याधि, संकट दूर करने वाला जोगी देवता है। जागर में आता है। पत्र पुष्प से प्रसन्न हो जाता है।
कलुवा : हलराय का पुत्र था। इसकी उत्पत्ति सिलबट्टे से बताई जाती है। गड्देवी के जागर में कलुवा भी आता है। थान में खिचड़ी पकती है। मुर्गे की बलि चढ़ती है।
सिदुवा-विदुवा : ये वीर और तांत्रिक थे। गड़देवी के धरम-भाई माने जाते हैं। देवी आपदाओं से रक्षा करते हैं।
गढ़देवी : गाड़-गधेरों में वास करने वाले महाशक्ति गड़देवी काली मां दुर्गा का स्थानीय रूप है। गड़देवी के कानों बात डाली जाती है। उसके साथ परियां आचरियां रहती हैं।
नन्दा देवी :
नंदा देवी समूचे कुमाऊं मंडल,गढ़वाल मंडल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं । अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।
बारह काली हाटकाली : कालिका के रूप में देवीधुरा में पूजी जाती हैं। हाट काली गंगोलीहाट में। कोट की कोटगाड़ी-थल के निकट मंदिर हैं। यहा प्राय: बलि चढ़ती है।
एड़ी : कोई राजपूत मर कर भूत बना। उसके साथ बकरी, परियां, हाथी, कुत्ते चलते हैं। शिखरों में रहते हैं। पांव पीछे को होते हैं।
मसाण, खबीस और रूनिया : ये श्मशान के भूत हैं। अतृप्त आत्माएं हैं। कमजोर व्यक्तियों पर चिपटते हैं। बलि द्वारा संतुष्ट होते हैं। पीर फकीर के रूप में भी आने लगे हैं।
आजकल जागरी का काम बड़ा महंगा हो गया है। अधिकतर देवी-देवता शोक गाथाओं पर आधारित हैं। जिनके साथ अन्याय, अत्याचार हुआ, वे स्थानीय देव बन गए। कालान्तर में न्याय, सुख, समृद्धि, शांति, खुशी के देवी-देवता बन गए। चप्पे-चप्पे पर देवों का वास है। इसलिए सारे उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है।


अन्य : नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा में भव्य पुराने चर्च हैं जो अंग्रेजों ने निर्मित किए थे। ईसाई इसमें प्रार्थना करते हैं। रामनगर, हल्द्वानी, टनकपुर, रानीखेत, नैनीताल, अल्मोड़ा में मस्जिदें हैं। यद्यपि ईसाई और मुसलमान बहुत कम हैं। सारे देवी-देवताओं का जमावड़ा उत्तराखंड में है।
‘हमुंकै बड़ी प्यारी लागी, कुर्माचलै भूमि।
दुनी है बड़ी न्यारी लागी कुर्माचलै भूमि॥’
सभार :
गोविन्दसिंह असिवाल