सोमवार, अक्तूबर 05, 2009

पहाड़ से गिरकर मरती हैं सैकड़ों महिलाएं

हिमालय की ऊंची-ऊंची और लंबी चोटियों से घिरे उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों में आज भी पशुओं को चारे के लिए घास काटते समय प्रति वर्ष करीब 200 महिलाएं पहाड़ों से गिरकर अपनी जान गंवा बैठती हैं लेकिन अनेक मामलों में इनकी न तो रिपोर्ट दर्ज होती है और न ही इन्हें कोई मुआवजा दिया जाता है। प्रशासन में ज्यादातर मामलों में ये सामान्य मौत के तौर पर ही दर्ज होती हैं।

राज्य में अधिकांश गांव सुदूर पहाड़ों की चोटियों पर बसे हुए हैं और इन गांवों में रहने वाले लोग काफी संख्या में भेड़ों, बकरियों गायों, बैलों और भैंसों को पालते हैं। पशुओं के चारे के लिए घास काटने का काम पहाड़ी क्षेत्रों में महिलाएं ही करती हैं। उत्तराखंड के कुछ जिलों के गांवों का दौरा करने के बाद यह रोचक तथ्य सामने आया कि अभी भी गांवों में घास काटने का काम या तो लड़कियां करती हैं या घर में ब्याह कर आने वाली बहुएं। घर की बुर्जुग महिलाओं द्वारा इन बालिकाओं और युवतियों को घास काटने का काम दिया जाता है। बालिकाओं को जहां यह काम स्कूल से आने के बाद सौंपा जाता है वहीं बहुएं इस काम को सूर्यास्त के पहले ही निपटाना पसंद करती हैं लेकिन अक्सर सूर्य की रोशनी कम होने के चलते और कभी-कभी अति विश्वास के चलते इनके पैर ऊंची चोटियों से लड़खड़ा जाते हैं जिससे ये गिर जाती हैं और इनकी मौत हो जाती है।

पहाड़ों के गांवों में महिलाओं को शाम के समय पीठ पर लाद कर घास को लाते हुए देखा जा सकता है। राज्य में दूध के लिए जहां बकरियों गायों और भैंसों को पाला जाता है वहीं अभी भी पारंपरिक खेती के लिए बैलों की जरुरत होती है क्योंकि खेत सीढ़ीनुमा होने के चलते वहां ट्रैक्टर सफल नहीं हो पाते। जाड़ों के मौसम में ऊन की जरूरत के लिए भेड़ों को पाला जाता है। इन सभी पशुओं के चारे के लिए सितम्बर से लेकर फरवरी महीने तक पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चट्टानों से सूखी घास काटी जाती है और यही चार महीने उत्तराखंड की ग्रामीण महिलाओं के चट्टान से गिरकर मौत के महीने होते हैं।

राज्य प्रशासन के पास हालांकि इन मौतों का कोई आकलन नहीं होता। समाज कल्याण विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हकीकत में कम से कम पूरे राज्य में साल में करीब 200 महिलाओं को घास काटने के चक्कर में अपनी जान गंवानी पड़ती है और कई पूरे जीवन के लिए अपाहिज हो जाती हैं।

राज्य सरकार के पास इन महिलाओं के परिजनों को मुआवजा देने की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं है। यहां तक कि उनको घायल होने की अवस्था में अस्पताल ले जाने के लिए भी ग्रामीणों को अपनी जान जोखिम में डालनी होती है क्योंकि पहाड़ियों के कारण गिरने वाली जगह पर आसानी से पहुंचना भी लगभग असंभव होता है। खास तौर पर रात के अंधेरे में बहुत दिक्कत होती है। अधिकांश दुर्घटनाएं सूर्यास्त के बाद रास्ते का पता नहीं चलने और पैर फिसलने के चलते होती हैं।


दूसरी ओर समाज कल्याण विभाग के पास चूंकि जिले से कोई सरकारी आंकड़ा नहीं प्राप्त होता है इसलिए ऐसे मामलों में मुआवजा नहीं दिया जाता है।

Source : जागरण

कोई टिप्पणी नहीं: