आजकल के शहरी बच्चो के बचपन को देखकर मेरे मन मे अकसर ये खयाल आत है कि क्या इन्हे वो बचपन नसीब हो रहा है जिसके ये हकदार है। क्या इनके बचपन को इनके माता पिता या अभिभावको ने उनके भविष्य को सुरक्षित करने को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इनके वर्तमान का गला घोट दिया है। मै इस बात से इनकार नही करता कि आज कल के संघर्षपूण माहौल देख कर इनके जीवन की सीढी के पहले पायदान को मजबूत करने की जरुरत है पर बच्चो के बचपन को भी नजरअंदाज न करे।
ज्यादातर घरो मे एक या दो ही बच्चे होते है । वे तरह-तरह की सुविधाओ के बीच पल रहे है। घर पर खाना उनकी इच्छानुसार ही बनाया जाता है। उनसे किसी तरह का घरेलू कार्य नही कराया जाता है। उन्हे विघालय से लाने और ले जाने के लिय आरामदेह गाङिया या बसे होती है। पढने के लिये सुन्दर किताबे एव लिखने के लिये रंग-बिरंगी कापिया होती है। स्कूली वेशभूषायें एवं जूते-मोजे भी कई प्रकार के होते है। स्कूल मे भी उन्हे घर जैसी सुख-सुविधायें उपलब्ध होती है। बडे-बडे हवादार कमरे, तरह-तरह के खेलो के लिये मैदान, अच्छी बैठक व्यवस्था, अच्छी पुस्तकालय, विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्पर्धायें इत्यादि। फिर भी बच्चो के माता पिता या अभिभावको की यही शिकायत रहती है कि बस्ते के बोझ से बच्चो का बचपन दब रहा है। परीक्षाओं का भी बच्चो पर काफी दबाव होता है। इन शिकायतों के चलते परीक्षाओं को सरल और बस्ते के बोझ को कम करने की कवायद चलती रहती है। परीक्षाओं को सरल करने के लिये कभी ग्रेड देकर काम चला लिया जाता है, तो कभी मौखिक या मासिक परीक्षाओं के परिणाम को देखकर दुसरी कक्षा मे भेज दिया जाता है।
बच्चो को बचपन से ही कुछ बनने के लिये प्रेरित किया जाता है। उनके सर्वागीण विकास के लिये मंह्गे खेलो से सम्बंन्धित विभिन्न संस्थाओं मे प्रवेश दिला दिया जाता है। मार्ग दर्शन के लिये अच्छे कोच नियुक्त किये जाते है। अब बच्चे बडे दिनो या गरमी की छुट्टियॉ खेलने-कूदने मे जाया नही करते बल्कि उन्हे विभिन्न प्रकार की हाबी क्लासो मे प्रवेश दिला दिया जाता है। गुल्ली डंड़े, कंच्चो,पतंग बाजी, छुपन्न-छुपाइ जैसे खेलो का स्थान हिंसक कम्पयूटर गेम्स एवं विडियो गेम्स ने ले लिया है। मेलो या हाट के बारे मे शायद हीं किसी को पता हो। बच्चे तो सिर्फ जूँ , वाट्ररपार्क जैसी जगहें जाना पसंद करते है। क्योंकि वो सिर्फ उन्ही के बारे मे जानते है। बच्चो पर इन तथाकथित सुख-सुविधाओ के साथ तनाव अनजाने ही लादा जाता है। रिश्ते नाते नही, दोस्त नहीं, मन भर का खेल नही, ज्यादा घूमना फिरना नही, और तो और भरपूर नीद को भी तरस जाते है ये बच्चे। दिन भर स्कूल मे, घर आकर होमवर्क, ट्यूशन और ट्यूशन वर्क मे ही दिन-रात गुजर जाते है। इन सब मे बचपन, बचपन की चंचलता, मस्ती दफन हो जाती है। इस कारण बच्चे कई बार अतृप्त, दुखी, उदास, चिड़चिडे, सबसे खफा से दिखाई देते है।
दसवी मे प्रवेश करते ही उस का सारे जग से रिश्ता तुड्वा दिया जाता है। न दोस्तो से मिलना, न घूमना-फिरना, न खेलना। घर को सोने का पिजरा बना दिया जाता है। 12वी का वर्ष तो अतिदक्षता को प्राप्त करने का वर्ष होता है। 12वी की पढाई के साथ-साथ विभिन्न करियर संबधी होने वाली परीक्षाओं का दबाव अलग से होता है। बच्चो के माता पिता या अभिभावक उन्हे वो बनाना चाह्ते है जो वे खुद न बन सके। सब कुछ हासिल करना ही जीवन का उदेश्शय बना दिया जाता है। जिसके कारण जीवन मे असफलता, अपयश के कटु अनुभवो को स्वीकारना उनके लिय अत्यन्त कठिन हो जाता है।
हमारा बचपन था जब हम कई तरह के अभावो मे जीते थे। हम घर के काम को अपनी जिम्मेदारी समझते थे, एक जोडी यूनिफार्म एव एक जोडी जूते-जुराब साल भर घिसते । किसी त्योहार पर अगर रात को 9 बजे तक घूमने कि आज्ञा मिलने पर स्वत्रंतत्रा का अनुभव करते, कुल्फी या आईसक्रिम मिलने पर आनंदित होते। रोटी के जगह पराठे मिलने पर माँ को धन्यवाद देते। जन्मदिन पर माता पिता के आशिर्वाद से तृप्त होना, विभिन्न संस्कारो वाला बचपन कितना सुखी था।
रिश्तो की मह्क से महकता, संस्कारो से जडा, आभावो मे भी जीवन को जीना, हर परिस्थिती का मुकाबला करना, जो मिल गया उसी मे सुखी होना, हार-जीत, सफलता-असफलता को समझना, यश- अपयश को स्वीकारना यही तो सीखा है हमने अपने बचपन से जो शायद आज की पीढी को नसीब नही हो रहा है।
ज्यादातर घरो मे एक या दो ही बच्चे होते है । वे तरह-तरह की सुविधाओ के बीच पल रहे है। घर पर खाना उनकी इच्छानुसार ही बनाया जाता है। उनसे किसी तरह का घरेलू कार्य नही कराया जाता है। उन्हे विघालय से लाने और ले जाने के लिय आरामदेह गाङिया या बसे होती है। पढने के लिये सुन्दर किताबे एव लिखने के लिये रंग-बिरंगी कापिया होती है। स्कूली वेशभूषायें एवं जूते-मोजे भी कई प्रकार के होते है। स्कूल मे भी उन्हे घर जैसी सुख-सुविधायें उपलब्ध होती है। बडे-बडे हवादार कमरे, तरह-तरह के खेलो के लिये मैदान, अच्छी बैठक व्यवस्था, अच्छी पुस्तकालय, विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्पर्धायें इत्यादि। फिर भी बच्चो के माता पिता या अभिभावको की यही शिकायत रहती है कि बस्ते के बोझ से बच्चो का बचपन दब रहा है। परीक्षाओं का भी बच्चो पर काफी दबाव होता है। इन शिकायतों के चलते परीक्षाओं को सरल और बस्ते के बोझ को कम करने की कवायद चलती रहती है। परीक्षाओं को सरल करने के लिये कभी ग्रेड देकर काम चला लिया जाता है, तो कभी मौखिक या मासिक परीक्षाओं के परिणाम को देखकर दुसरी कक्षा मे भेज दिया जाता है।
बच्चो को बचपन से ही कुछ बनने के लिये प्रेरित किया जाता है। उनके सर्वागीण विकास के लिये मंह्गे खेलो से सम्बंन्धित विभिन्न संस्थाओं मे प्रवेश दिला दिया जाता है। मार्ग दर्शन के लिये अच्छे कोच नियुक्त किये जाते है। अब बच्चे बडे दिनो या गरमी की छुट्टियॉ खेलने-कूदने मे जाया नही करते बल्कि उन्हे विभिन्न प्रकार की हाबी क्लासो मे प्रवेश दिला दिया जाता है। गुल्ली डंड़े, कंच्चो,पतंग बाजी, छुपन्न-छुपाइ जैसे खेलो का स्थान हिंसक कम्पयूटर गेम्स एवं विडियो गेम्स ने ले लिया है। मेलो या हाट के बारे मे शायद हीं किसी को पता हो। बच्चे तो सिर्फ जूँ , वाट्ररपार्क जैसी जगहें जाना पसंद करते है। क्योंकि वो सिर्फ उन्ही के बारे मे जानते है। बच्चो पर इन तथाकथित सुख-सुविधाओ के साथ तनाव अनजाने ही लादा जाता है। रिश्ते नाते नही, दोस्त नहीं, मन भर का खेल नही, ज्यादा घूमना फिरना नही, और तो और भरपूर नीद को भी तरस जाते है ये बच्चे। दिन भर स्कूल मे, घर आकर होमवर्क, ट्यूशन और ट्यूशन वर्क मे ही दिन-रात गुजर जाते है। इन सब मे बचपन, बचपन की चंचलता, मस्ती दफन हो जाती है। इस कारण बच्चे कई बार अतृप्त, दुखी, उदास, चिड़चिडे, सबसे खफा से दिखाई देते है।
दसवी मे प्रवेश करते ही उस का सारे जग से रिश्ता तुड्वा दिया जाता है। न दोस्तो से मिलना, न घूमना-फिरना, न खेलना। घर को सोने का पिजरा बना दिया जाता है। 12वी का वर्ष तो अतिदक्षता को प्राप्त करने का वर्ष होता है। 12वी की पढाई के साथ-साथ विभिन्न करियर संबधी होने वाली परीक्षाओं का दबाव अलग से होता है। बच्चो के माता पिता या अभिभावक उन्हे वो बनाना चाह्ते है जो वे खुद न बन सके। सब कुछ हासिल करना ही जीवन का उदेश्शय बना दिया जाता है। जिसके कारण जीवन मे असफलता, अपयश के कटु अनुभवो को स्वीकारना उनके लिय अत्यन्त कठिन हो जाता है।
हमारा बचपन था जब हम कई तरह के अभावो मे जीते थे। हम घर के काम को अपनी जिम्मेदारी समझते थे, एक जोडी यूनिफार्म एव एक जोडी जूते-जुराब साल भर घिसते । किसी त्योहार पर अगर रात को 9 बजे तक घूमने कि आज्ञा मिलने पर स्वत्रंतत्रा का अनुभव करते, कुल्फी या आईसक्रिम मिलने पर आनंदित होते। रोटी के जगह पराठे मिलने पर माँ को धन्यवाद देते। जन्मदिन पर माता पिता के आशिर्वाद से तृप्त होना, विभिन्न संस्कारो वाला बचपन कितना सुखी था।
रिश्तो की मह्क से महकता, संस्कारो से जडा, आभावो मे भी जीवन को जीना, हर परिस्थिती का मुकाबला करना, जो मिल गया उसी मे सुखी होना, हार-जीत, सफलता-असफलता को समझना, यश- अपयश को स्वीकारना यही तो सीखा है हमने अपने बचपन से जो शायद आज की पीढी को नसीब नही हो रहा है।
2 टिप्पणियां:
बहुत सही लिखा है आपने.
ठीक लिखा है आपने...
मासूम बचपन बचाना जरुरी है...
-पीयूष
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