आस पास कि परिस्थितियो, अनुभवो, माहौल को देखकर मन मे उत्पन भावो को शब्दो मे ढालने की असफल कोशिश।
रविवार, फ़रवरी 14, 2010
"माइ नेम इज खान एंड आय एम नॉट अ टेरेरिस्ट"
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 को हुए आतंकी हमले के बाद दुनियाभर में एक समुदाय के प्रति बदली सोच को लेकर अब तक आधा दर्जन के करीब फिल्में बन चुकी हैं। 9/11 हमले के बाद दुनिया के कई देशों में मुस्लिम समुदाय के प्रति यकायक बदली सोच पर करण ने एक ऐसी प्रेम कहानी का सहारा लिया है जो आम बॉलिवुड फिल्मों से कोसों दूर है। करण की इस फिल्म में एक ऐसे युवक का अपना खोया हुआ प्यार फिर से हासिल करने का सफर दिखाया गया है जो आम इंसानों से हटकर है। फिल्म में रिजवान द्वारा बार - बार बोला गया डायलॉग "माइ नेम इज खान एंड आय एम नॉट अ टेरेरिस्ट" हॉल में बैठे दर्शक के दिल को छूता है। दरअसल , करण अपनी इस फिल्म के माध्यम से दुनिया को शायद यही मेसेज देना चाहते हैं कि ' हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है। ' करण जौहर अपनी प्रेम मुहब्बत, रोने धोने वाले फार्मूले से मुक्ति की छटपटाहट से बाहर आने की कोशिश कर रहे है। उन्हें हमारे हौसले की जरूरत है। माय नेम इज खान के जरिए वे यह बताना चाह रहे हैं कि दुनिया मे सिर्फ दो ही किस्म के इंसान होते हैं, अच्छे और बुरे।
यह फिल्म हमारे भीतर छुपे शैतान को पत्थर मारने में हमारी मदद करती है जहां बाल ठाकरे या बजरंग दलियों ने यह मान लिया है कि खान सरनेम का अर्थ ही धोखेबाज और आतंकवादी होना है। यह एसपर्जर सिंड्रोम से पीडित रिजवान खान की कहानी है, जिसे नई जगह, पीले रंग और तेज शोर से डर लगता है लेकिन वह बहुत ही समझदार और ज्ञानी भी है। धुन का पक्का है। मानवीय नजरिया उसे उसकी मां, उसके टीचर वाडिया और इस्लाम से उसे विरासत में मिला है। वह अमेरिका में एक लड़की मंदिरा के सैलून मे अपने ब्यूटी प्रोडक्ट बेचने जाता है और उसी से प्यार कर बैठता है। मंदिरा तलाकशुदा है और उसके पहले से एक बच्चा है। शादी के बाद उसका सरनेम मंदिरा खान और उसके बेटे का नाम समीर खान हो जाता है। 9/11 से पहले सब कुछ ठीक था लेकिन उसके बाद पूरी दुनिया ने करवट ली खान सरनेम की वजह से एक हादसा होता है। दोनों पति पत्नी अलग हो जाते हैं। मंदिरा उसे चुनौती देती है कि किस किस के सामने वह बेगुनाही का सबूत देगा कि तुम्हारा नाम खान है और तुम टेरेरिस्ट नहीं हो। यहां से खान अमेरिका के प्रेसीडेंट से मिलने की यात्रा शुरू करता है। जहां जहां राष्ट्रपति को जाना होता है, वहां वह पहुंचता है, लेकिन मिल नहीं पाता। फिल्म इसी यात्रा को आगे बढाती है और अंजाम तक पहुंचती है। इस यात्रा में रिजवान खान एक नायक बनकर उभरता है। जॉर्जिया में छोटे से गांव के लोगों को बचाने में रिजवान खान अकेला जुटा तो उसके पीछे सैकड़ों लोग राहत सामग्री लेकर आए हैं। जहां वह काउंटर पर कमरे की सिर्फ जानकारी लेने गया था वहां भी होटल मालिक ने बोर्ड टांग लिया है कि यहां खान ठहरा था। कहानी में बीच में कहीं ठहराव और एकरसता आती है लेकिन सारे नंबर शाहरूख खान को इसलिए जाते हैं कि वह अभिनय के एक नए अवतार में सामने है।
9/11 हादसे को एक ऐसे नजरिए के साथ देखना चाहते हैं जो अब तक अनदेखा रहा तो फिल्म आपके लिए है। माइ नेम इज खान की तारीफ इसलिए भी जरुरी है क्योकि हमारी राजनीति और आदमी की लिप्साओं ने भेदभाव का जो अमानवीय चेहरा हमारे सामने बना लिया है उसे चुनौती दी जा सके।
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