सोमवार, अगस्त 20, 2007

गुल्ली-डंडा (पिछले भाग से आगे )

पिछले भाग से आगे

बीस साल गुजर गए। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियॉँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और क्स्बे की सैर करने निकला। ऑंखें किसी प्यासे पथिक की भॉँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम के सिवा वहॉँ और कुछ परिचित न था। जहॉँ खँडहर था, वहॉँ पक्के मकान खड़े थे। जहॉँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहॉँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियॉँ बॉँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं; मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।
सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने का बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहॉँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया? गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हॉँ-हॉँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो? शायद वही हो।
‘हॉँ, है तो।‘
‘जरा उसे बुला सकते हो?’
लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पॉँच हाथ काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया-हॉँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?
‘बहुत मजे में। तुम अपनी कहा।‘
‘डिप्टी साहब का साईस हूँ।‘
‘मतई, मोहन, दुर्गा सब कहॉँ हैं? कुछ खबर है?
‘मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?’
‘मैं तो जिले का इंजीनिया हूँ।‘
‘सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?
‘अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?’
गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑंखों से देखा-अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।
‘आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दॉँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।‘
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहॉँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍंगे। मैं गया को लेकर डाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था।
मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।
गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था; नहीं मेरी क्या गिनती?
मैंने कुछ उदास होकर कहा-लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?
गया ने पछताते हुए कहा-वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।
‘वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में।‘
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहॉँ आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहने-बाऍं कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेली में ही पहूँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो; लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धॉँधलियॉँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खुले जाता था। हालॉँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोबारा टॉँड़ लगाता। गया यह सारी बे-कायदगियॉँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गए। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डंडे से आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं! कभी दाहिने जाती है, कभी बाऍं, कभी आगे, कभी पीछे।
आध घंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धॉँधली की-गुल्ली डंडे में नहीं लगी। बिल्कुल पास से गई; लेकिन लगी नहीं।
गया ने किसी प्रकार का असंतोष प्रकट नहीं किया।
‘न लगी होगी।‘
‘डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’
‘नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे?’
बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।
सहसा गुल्ली फिर डंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बन्दूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूँ? मेरा हरज की क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अँधेरा का बहाना करके जल्दी से छुड़ा लूँगा। फिर कौन दॉँव देने आता है।
गया ने विजय के उल्लास में कहा-लग गई, लग गई। टन से बोली।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा-तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।
‘टन से बोली है सरकार!’
‘और जो किसी ईंट से टकरा गई हो?
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।
‘हॉँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।‘
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धॉँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दॉँव देना तय कर लिया।
गया ने कहा-अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।
‘नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दॉँव ले लो।‘
‘गुल्ली सूझेगी नहीं।‘
‘कुछ परवाह नहीं।‘
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टॉँड लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दॉँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिश्च दिया।
‘एक दॉँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।‘
‘नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।‘
‘तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?’
‘खेलने का समय कहॉँ मिलता है भैया!’
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला-कल यहॉँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।
मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले! अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टॉँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसेन प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।
पदने वालों में एक युवक ने कुछ धॉँधली की। उसने अपने विचार में गुल्ली लपक ली थी। गया का कहना था-गुल्ली जमीन मे लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मार-पीट हो जाती।
मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धॉँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।

गुल्ली-डंडा (मुंशी प्रेमचन्द्र )

हिन्दी के वरिष्ट तथा प्रतिष्टित कथाकारको मे एक नाम है मुंशी प्रेमचन्द्र का। मैनै मुंशी प्रेमचन्द्र की लगभग सभी रचनाओ को पढा है। उनकी रचनाओ को पढकर हि मै जान पाया कि क्यो उन्हे कहानी स्र्माट कहा जाता है।लगभग 11-12 साल कि उम्र मे मुझे उन की कहानी गुल्ली-डंडा पढने का मौका मिला। मुझे ये कहानी काफी अच्छी लगी क्योकि मै भी तब काफी गुल्ली-डंडा खेलता था। मुझे इस बात का आभास था कि इस खेल मे कितना मजा आता है। इस कहानी ने मुझे जहा एक तरफ गुल्ली डंडे कि हिन्दुतानिय्त का एह्सास तो दूसरी तरफ व वरगभेद का आभास कराया। मेरे लिये कहानी का हीरो गया था। कथानक जो 20 साल बाद इंजीनियर बनकर लौटता है और गया से गुल्ली-डंडा खेलने को कहता है तो वह ना चाह्ते हुए भी ना नही कर पाता । वह कथानक के खेल के दौरान लाख बेमानी करने पर भी शांत रहता है। कथानक को बाद मे इस बात का एहसास हो जाता है कि गया उस पर मेहरबानी कर रहा था। पर प्रेमचन्द्र जी कहानी का दूसरा पहलू यह दिखाना चाह्ते थे की गया के दिल मे कथानक के लिये मेहरबानी हि ना थी बगावत भी थी वरना क्यो वह दूसरे दिन मैच का इन्तज़ाम करके ये जाहिर करता कि उसे इस खेल मे कितनी महारत हासिल है। खैर ये सब का अलग अलग नजरिया है। कुछ की सहानुभूति गया के साथ तो कुछ की कथानक के साथ पर जो भी है आशा करता हूँ आप सब को यह कहानी जरुर पंसद आयेगी।

हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया।
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहॉँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से ऑंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टॉँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रूचि है। मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उँगलियॉँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मॉँ-बाप थे या नहीं, कहॉँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-कल्ब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयॉँ बना लेते थे।
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दॉँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दॉँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
‘तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहँ?’
‘हॉँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।‘
‘न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?’
‘हॉँ! मेरा दॉँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।‘
‘मैं तुम्हारा गुलाब हूँ?’
‘हॉँ, मेरे गुलाम हो।‘
‘मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!’
‘घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दॉँव दिया है, दॉँव लेंगे।‘
‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
‘वह तो पेट में चला गया।‘
‘निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
‘अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे मॉँगने न गया था।‘
‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दॉँव न दूँगा।‘
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दॉँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पॉँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दॉँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चॉँटा जमा दिया। मैंने उसे दॉँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त ऑंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

उन्हीं दिनों पिताजी का वहॉँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दु:ख न हुआ। पिताजी दु:खी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मॉँजी भी दु:खी थीं यहॉँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं सारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।

मंगलवार, अगस्त 14, 2007

फिल्म समीक्षा - ‘चक दे इंडिया’

बहुत दिनो से कोई फिल्म नही देखी थी सोचा चलो आज ये काम भी कर लिया जाये। जीतू भईया ने तो ‘कैश’ देखने का मन बनाने के लिये पहले ही चेतावनी दे चुके थे और मेरा भी मारधाड और काल्पनिक विषय को झेलने का हौशला ना था। रह गई थी ‘चक दे इंडिया’ । बहुत सुना था इस फिल्म के बारे मे सोचा चलो आज आजमा लेते है वैसे भी किसी नये विषय मे बनी फिल्म थी। सच मानो फिल्म देखकर समय और पैसे कि पूरी वशूली हो गई ।

हॉकी हमारा राष्ट्रीय और देसी खेल है, लेकिन आज यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय खेल हॉकी में हमारे देश की टीम का प्रदर्शन बेहद लचर है। इसकी वजह से यह खेल अपनी लोकप्रियता खो बैठा है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। इस खेल और देशभक्ति को आपस में सही अनुपात मिलाकर यशराज फिल्म्स ने इतने उम्दा तरीके से फिल्म बनाई है कि ‍सिनेमाघर में बैठकर दर्शक के अंदर देशभक्ति की भावनाएँ हिलोरे लेने लगती हैं। ना कोई फालतू की मार-धाड, ना फालतू के रोमांस कि खिचडि, ना कोई फालतू दृश्य या संवाद । पटकथा एकदम कसी हुई। दर्शक पहली फ्रेम से ही फिल्म में खो जाता है। छोटे-छोटे दृश्यों में कई बातें सामने आती हैं, जो निर्देशक और लेखक की सोच बयान करती हैं। कई बातें बिना संवादों के केवल दृश्यों के माध्यम से कहीं गई हैं। मसलन शाहरुख को खटारा स्कूटर पर बैठाकर निर्देशक ने भारत के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बता दी है।

कबीर खान (शाहरुख खान) कभी भारतीय हॉकी टीम का कप्तान हुआ करता था। उसकी कभी दुनिया के श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड में गिनती हुआ करती थी। खेल के दौरान एक मामूली चूक के कारण उसे गद्दार मान लिया गया। आज उसकी कोई पहचान नहीं है। उसे कठिन चुनौतियाँ स्वीकारना अच्छा लगता है। उसके अंदर ‘जो नहीं हो सकता है, वहीं करना है’ जैसी भावनाएँ मौजूद है। अपने इस कलंक को धोने के लिए वह एक कठिन चुनौती स्वीकार करता है। वह महिला हॉकी टीम का कोच बनकर इस ‍टीम को विश्वविजेता बनाता है। भारतीय महिला हॉकी टीम को प्रशिक्षण देना बेहद कठिन है। इस टीम में कोई जोश नहीं है। अच्छा खेलने की चाहत नहीं है। भारत के लिए खेलने में जो गर्व महसूस होता है वह कभी इस टीम के खिलाडियों ने महसूस नहीं किया है। वे सिर्फ इसलिए खेल रही हैं ता‍कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें कुछ सरकारी लाभ मिलें।

महिला टीम होने के कारण इन्हें पुरुषों की छींटाकशी ‍का‍ शिकार भी होना पड़ता है। कबीर खान उन्हें सीखाता है कि 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'। कोई भी मैच जीतने का स्वाद कैसा होता है। ट्राफी जीतकर उसे उठाने में कितना आनंद आता है। भारत के लिए खेलना कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। ‘चक दे इंडिया’ उस कबीर खान की कहानी है जिसे निचले पायदान वाली टीम को सँवारना है।
शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है। उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है।फिल्म 2-3 गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है।

‘चक दे इंडिया’ के जरिये निर्देशक शिमित अमीन और लेखक जयदीप साहनी ने कई बातें कही हैं। जैसे

· हॉकी की हमारे देश में जो स्थिति है उसके लिये सिर्फ खिलाडियों को ही जिम्मेदार मानना सही नही है, उसके लिये हॉकी संघ में बैठे भ्रष्ट लोग भी उतने ही जिम्मेदार है।
· हॉकी खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति कैसी होती है। मसलन शाहरुख का खटारा स्कूटर पर बैठकर कोचिग देने जान भारत के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बताती है।
· एक सच्चे देशभक्त मुस्लिम को हर समय संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। खेल के दौरान एक मामूली चूक के कारण कबीर खान को गद्दार मान लिया गया।
· महिला खिलाड़ियों को पुरुषों से कमतर आंका जाता है ऐसा समझा जाता है चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी
· मिजोरम जैसे उत्तर-पूर्वी लोगों को हमारे देश का सदस्य नहीं माना जाता है।
· मै हिन्दू हूँ, यह मुस्लिम है, वह सिख है, सभी बोलते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि सबसे पहले वे भारतीय हैं।

मै तो इस फिल्म को 100 मे से 99 अंक दूँगा तथा आप लोगो से ‘चक दे इंडिया’ को देखकर आने कि अपील करुँगा अगर आप एक अच्छी फिल्म देखने के उदेश्य से सिनेमाहाल जाते है।

सोमवार, अगस्त 06, 2007

मित्रता दिवस - मैत्री पर्व

सभी चिट्ठाकार मित्रो को मित्रता दिवस कि हार्दिक शुभकामनाये। माफ करना चिट्ठाकार मित्रो नई नियुक्ति कि शुरुआती व्यक्ता तथा अपने को माहौल के अनुसार ढलने मे कुछ ज्यादा समय लगा । ये पोस्ट तो मेरे को कल पोस्ट करनी चाहिये थी पर समयाभाव के कारण न कर सका। तो हम बात कर रहे है मित्रता दिवस कि। आमतौर पर लोग इस तरह के दिवसो कि आलोचना करते है क्योकि उन्हे लगता है कि हमे इस तरह के दिवसो कि आवश्य्कता नही है। पर उन्हे क्या पता आजकल के भौतिकवादी, उपभोक्तावादी, मशीनी युग में वे यंत्रवत जीवन शैली में जिंदा है, पर जीने की अदा भूल चुके है। एक ठंडी आह और कसक के साथ हम सब चले जा रहे हैं, अपने कंधों पर अपने-अपने सलीब उठाए। जिस तरह से तमाम नजदिकी संबंध या खून के रिश्ते खत्म हो रहे है या ढोये जा रहे है सिर्फ दोस्ती वह रिश्ता है जिसका जज्बा आज भी वैसे ही बरकरार है। द्वंद्व और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के मिलते हैं तो वह सिर्फ इस दोस्ती के दायरे में ही।

जिंदगी में खुशियों के रंग भरने वाला हसीन रिश्ता है - दोस्ती। इस प्यार भरे रिश्ते को सम्मान दिलाने के लिए अमेरिका में कुछ लोगों ने एक दिन दोस्ती के नाम करना तय किया। उनकी कोशिशें रंग लाईं और सन् 1935 में अमेरिका में अगस्त के पहले रविवार को आधिकारिक रूप से फ्रेंडशिप डे (मित्रता दिवस) घोषित किया गया। पिछले 72 सालों में फ्रेंडशिप डे ने अमेरिका की सरहदों को लाँघकर पूरे विश्व में अपना स्थान बना लिया है। जिस तरह से दोस्ती का जज्बा हर दिल, हर देश में होता है, वह किसी जाति, कुल, धर्म, संप्रदाय या प्रांत कि मोहताज नही होती है। जब दोस्ती के रिश्ते के कोई नियम, कायदे-कानून नहीं होते तो इसके सम्मान में समर्पित मित्रता दिवस (फ्रेंडशिप डे) किसी देश या समाज मे कैसे बंध सकता है। इसलिये मित्रता दिवस भी दुनिया के हर मुल्क में मनाया जाने लगा है।

जिस तरह जोडियाँ स्वर्ग में बनने की बात लोग करते हैं, शायद सच्ची दोस्ती भी स्वर्ग में ही बनती होगी। इंसान जब जन्म लेता है तब उसे स्वयं नहीं पता होता कि वह किस जाति, कुल, धर्म, संप्रदाय या प्रांत का हिस्सा बनने जा रहा है। अपने जन्म के साथ ही वह माँ की कोख से अपने साथ लाता है सिर्फ 'रिश्ते', 'खून के रिश्ते' जैसे भाई-बहन, चाचा-ताऊ-मौसा-मामा जिन्हें वह चाहे तो भी बदल नहीं सकता, बना नहीं पाता, मिटा नहीं पाता। ये रिश्ते बँधे होते हैं मर्यादाओं, परंपराओं और परिस्थितियों की जंजीरों से। बँधना कोई नहीं चाहता। हर इंसान की सहज प्रवृत्ति होती है मुक्ति की चाह, अभिव्यक्ति की इच्छा और यहीं से प्रारंभ होता है एक अच्छे साथी की खोज का शायद यही कारण है कि लाख अच्छा वातावरण और परिवेश होने के बावजूद थोड़ा-सा भी स्वविवेक जागते ही हर व्यक्ति एक 'मित्र' की आकांक्षा में एक नए और अनजाने सफर पर निकल पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई नदी अपने उद्गम स्थल से निकलते ही पूरे उफान और वेग के साथ बह पड़ती है।

दुनिया मे कई एसे संबध होते है जिन का अस्तित्व समय के साथ खत्म हो जाता है पर दोस्ती वो जज्बा है जो हमेशा तरोताजा रहता है। ईश्वर ने ऐसे खूबसूरत रिश्ते की बागडोर पूरी तरह से हमारे हाथों में सौंप दी है, जिसके साथ हमारे जीवन की सारी खुशियाँ और सारे गम जुड़े होते हैं। ईश्वर ने हमें पूरी स्वतंत्रता दी है कि हम अपने दोस्त खुद बनाएँ और यह रिश्ता जैसे चाहे, वैसे निभाएँ।

दोस्ती, स्नेह, भावना, विचारधारा या अहसास की धरती से अंकुरित नहीं होती, अपितु इसकी नींव जरूरतों की पूर्ति पर टिकी होती है। सच्ची 'मित्रता' वह तो दुनिया के सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है। यही वजह है कि इसमें उम्र, कुल, धर्म, संप्रदाय जैसे क्षेपक कभी नहीं लग पाते। यह आस्था और विश्वास का वह अंकुर होती है जो एक बार हृदय में प्रस्फुटित हुआ तो ताउम्र जीवन को सुरभित और सुवासित करता है। इसकी महक आपके व्यक्तित्व और रूह में रच-बस जाती है, इसीलिए परोक्षतः साथ न होने पर भी आपके मित्र की मित्रता सदैव आपके साथ-साथ चलती है। ऐसा साथ परिवार में मिलना मुश्किल है। कारण भी स्पष्ट है कि पारिवारिक रिश्ते 'निरपेक्ष' नहीं रह पाते। उनके पीछे एक अलग पृष्ठभूमि होती है जो बाधक न भी हो तो भी मित्रता की कसौटी पर सध नहीं पाती, क्योंकि सबके अपने-अपने विचार और मूल्य कहीं न कहीं आड़े ही आ जाते हैं। इसीलिए हमें जरूरत होती है एक ऐसे व्यक्ति की जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ हमारी अनुभूतियों का साक्षी बने, जो पूरी करुणा के साथ हमारी पीड़ा व दुःख के गहनतम क्षणों को हमारे साथ-साथ भोगे, जिसका स्नेह ऐसा हो कि जब वह बरसे तो मन की धरती से मुस्कुराहटों की कोपलें फूट पड़ें और जो हमारी भूलों पर आवरण न डालते हुए हमें आईना दिखाने के बाद स्वयं बाँहें पसार उनमें समा जाने का आमंत्रण दें। एक ऐसा साथ जो पूजा की तरह पवित्र व सात्विक हो और सर्वथा निर्विकार हो। ऐसा अपनत्व जो मन की गहराइयों को छूकर हमारी धमनी और शिराओं में हमें महसूस हो और हमारी हर धड़कन के साथ स्पंदित हो... यकीनन ये सब भावना के आवेग से उपजे शब्द प्रतीत हो सकतेहैं, मगर हर उस व्यक्ति को जिसकी जिंदगी में कोई सच्चा 'मित्र' रहा हो, उसे यह अपनी ही बात लगेगी।



मित्रता का शिल्प विश्वास से बना होता है और यह विश्वास इतना कमजोर कतई नहीं होता कि छोटे-छोटे झटके उसे बिखेर दें। सही मित्रता जीवन का प्रकाश पुंज होती है, साथ न रहने पर भी उसकी यादें आपकी राहों को रोशन करती हैं। इसलिए मैत्री पर्व के सुखद अवसर पर यही कामना करता हूँ कि दुनिया के तमाम दोस्तों की हथेलियाँ जुड़ी रहें और जहाँ मित्रता का सूर्य प्रकाशवान हो, ईश्वर करे वहाँ हम भी हों।

Source : Web Dunia