सोमवार, अगस्त 20, 2007

गुल्ली-डंडा (मुंशी प्रेमचन्द्र )

हिन्दी के वरिष्ट तथा प्रतिष्टित कथाकारको मे एक नाम है मुंशी प्रेमचन्द्र का। मैनै मुंशी प्रेमचन्द्र की लगभग सभी रचनाओ को पढा है। उनकी रचनाओ को पढकर हि मै जान पाया कि क्यो उन्हे कहानी स्र्माट कहा जाता है।लगभग 11-12 साल कि उम्र मे मुझे उन की कहानी गुल्ली-डंडा पढने का मौका मिला। मुझे ये कहानी काफी अच्छी लगी क्योकि मै भी तब काफी गुल्ली-डंडा खेलता था। मुझे इस बात का आभास था कि इस खेल मे कितना मजा आता है। इस कहानी ने मुझे जहा एक तरफ गुल्ली डंडे कि हिन्दुतानिय्त का एह्सास तो दूसरी तरफ व वरगभेद का आभास कराया। मेरे लिये कहानी का हीरो गया था। कथानक जो 20 साल बाद इंजीनियर बनकर लौटता है और गया से गुल्ली-डंडा खेलने को कहता है तो वह ना चाह्ते हुए भी ना नही कर पाता । वह कथानक के खेल के दौरान लाख बेमानी करने पर भी शांत रहता है। कथानक को बाद मे इस बात का एहसास हो जाता है कि गया उस पर मेहरबानी कर रहा था। पर प्रेमचन्द्र जी कहानी का दूसरा पहलू यह दिखाना चाह्ते थे की गया के दिल मे कथानक के लिये मेहरबानी हि ना थी बगावत भी थी वरना क्यो वह दूसरे दिन मैच का इन्तज़ाम करके ये जाहिर करता कि उसे इस खेल मे कितनी महारत हासिल है। खैर ये सब का अलग अलग नजरिया है। कुछ की सहानुभूति गया के साथ तो कुछ की कथानक के साथ पर जो भी है आशा करता हूँ आप सब को यह कहानी जरुर पंसद आयेगी।

हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया।
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहॉँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से ऑंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टॉँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रूचि है। मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उँगलियॉँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मॉँ-बाप थे या नहीं, कहॉँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-कल्ब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयॉँ बना लेते थे।
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दॉँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दॉँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
‘तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहँ?’
‘हॉँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।‘
‘न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?’
‘हॉँ! मेरा दॉँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।‘
‘मैं तुम्हारा गुलाब हूँ?’
‘हॉँ, मेरे गुलाम हो।‘
‘मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!’
‘घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दॉँव दिया है, दॉँव लेंगे।‘
‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
‘वह तो पेट में चला गया।‘
‘निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
‘अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे मॉँगने न गया था।‘
‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दॉँव न दूँगा।‘
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दॉँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पॉँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दॉँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चॉँटा जमा दिया। मैंने उसे दॉँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त ऑंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

उन्हीं दिनों पिताजी का वहॉँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दु:ख न हुआ। पिताजी दु:खी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मॉँजी भी दु:खी थीं यहॉँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं सारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।

2 टिप्‍पणियां:

Aman sharma "vairagi" ने कहा…

wah wah,
shrimaan ji aapka yah lekh padh ke anand aa gaya,
fir se gaao ki yaade, wo hamjoli,wo sangi-sathi maanash patl par cha gaya....
Wakai kabile tarif lekh hai.

Aman sharma "vairagi" ने कहा…

wah wah,
shrimaan ji aapka yah lekh padh ke anand aa gaya,
fir se gaao ki yaade, wo hamjoli,wo sangi-sathi maanash patl par cha gaya....
Wakai kabile tarif lekh hai.