सोमवार, मई 07, 2007

वाकया जोशी जी का.............

किसी ने सच हि कहा है कि शिक्षा के दिन हमेशा हि याद आते है। चाहे वह स्कूली हो या कालेज के । कालेज के दिनो की कुछ शरारतें याद आती हैं - तो चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर जाती है। मै ऐसे हि एक वाकया का वर्णन करना चाहूँगा। यह बात तब की है जब मै बी. एस. सी. अन्तिम वर्ष मे था। फाइनल परीक्षा के मुश्किल से दो माह बचे थे। ये दो माह हमारे ग्रुप (तितर बटालियन) के लिये किसी युद्ध से कम नही होते थे। सारी ताकत झोक दी जाती थी इस युद्ध को जीतने के लिये क्योंकि साल के 8-9 माह तो मस्ती करने से फुरसत ही नही मिलती थी। कहने को टयूशन जाते थे पर लडकियो को घूरने या उनको छेडने से फुरसत मिले तब तो पढते। अगर उस से दिल न भरा तो निकल गये सिविल लाइनस( मुख्य बाजार) मे रही सही कसर उतारने । परीक्षा के दो माह मे हम दो या तीन लडके मिल कर एक ग्रुप बना कर कम्बाइन्ड स्ट्डी किया करते थे। मेरा एक दोस्त था सौरभ जोशी जी (जी का प्रयोग महानता दर्शाने के लिये व्यक्त किया गया है)। बेचारे बडे हि सीधे थे। इतने सीधे कि जब उन्होने कालेज मे प्रवेश लिया था तो उन से दो दिन पहले प्रवेश लिये हुए छात्र ने उन की रैगिग ले ली। लड़कियों के शब्द मात्र से उन की हवा खराब हो जाती थी। एक दिन मै और मेरा दोस्त रमैल राणा मेरे कमरे मे कम्बाइन्ड स्ट्डी कर अपने हथियार तेज कर रहे थे, जोशी जी आ धमके। उनका अगले दिन उनका मैट का पैपर था। बेचारे बडे परेशान थे क्योंकि उन्हे किसी का साथ नही मिल रहा था। हमारे ज्यादातर दोस्तो के परीक्षा स्थल शहर के आस पास लगे थे और जोशी जी का परीक्षा स्थल था देहरादून, रुड्की से लगभग़ 55 किलो मीटर दूर, वो भी प्रात:काल मे 9 बजे । सोच रहे थे कैसे जाया जायेगा क्योंकि इससे पहले शायद हि इतनी दूर परीक्षा देने गये हो। देहरादून मे अपना परीक्षा स्थल ढूँढना और वहाँ तक पहुचना तो उन के लिये मैट की परीक्षा से भी मुश्किल काम था । खैर मै और मेरे दोस्त ने अपनी तरफ से पूर्ण कोशिश का आश्वासन देकर जोशी जी को शाम को आने के लिये कहा और ये भी कहा कि अपनी तरफ से भी कोशिश करे किसी मुर्गे को ढूढने कि। हमने काफी कोशिश कि जोशी जी को किसी के साथ एड्जेस्ट करने कि, चाहे कालेज मे पढने वाले दोस्त हो या टयूशन मे पढने वाले मित्र सभी से मदद कि गुहार कि। पर क्या करे ज्यादातर दोस्तो ने अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अपने पाट्नर पहले हि ढूँढ लिये थे ताकि खर्चे के दबाव का बराबर बँटवारा किया जा सके।

जोशी जी की हालत हमसे देखी नही जा रही थी क्योंकि एक मित्र को दुखी देखकर दूसरा कैसे खुश हो सकता है। हमारे एक मित्र थे अखिल उनके पास दुपहिया वाहन था। अब उन का जोशी जी से दूर- दूर तक का नाता नही था। अगर होता तो शायद हम उस नाते मदद करने कि दुहाई दे देते। हमने अपने मित्र रमैल से कहा यार तेरे को वो बाइक दे देगा जोशी जी को छोड आना क्योकि अगर वो बाइक दे भी देगा तो जोशी जी को तो चलाना आता नही था। तेरा सारा खाने पीने का व्यय जोशी देगा। जोशी जी मान गये। मरता क्या ना करता। मैने कहा परीक्षा सुबह 9 बजे से है अत; तुम्हें प्रात:काल मे 6 बजे निकलना होगा। जोशी को कहा रात को अपना बोरिया बिस्तर( मतलब स्ट्डी मटिरियल) ले आना मेरे यहाँ। महाशय पहुच गये सही समय पर क्योंकि समय पर पहुचना उन की खानदानी आदतो मे सुमार है। हम भी बैठे हि थे खाना खा कर झक छेतने। कुछ इधर उधर कि बाते करते करते जोशी जी और रमैल मे कुछ कहा सुनी हो गयी, कहा सुनी भी क्या नौबत आ गयी थी हाथापाई तक वो तो मै बीच बचाव मै आ गया वरना दोनो एक दूसरे के खुन के प्यासे हो गये थे। खेर रमैल मिया मेरे समझाने पर मान गये पर जोशी जी शायद लडने का मुड बना कर आये थे। शान्त होने का नाम ही न ही ले रहे थे। विनाशकाले विपरिते बुधे। मै उन्हे समझाने लगा तो मुझ से भी लडने लगे और चिरकुट- चिरकुट कहने लगे। मैने कहा जोशी जी बहुत हो गया मै चुप हूँ इस का मतलब यह मत समझो की मै अहिंसा का पुजारी हूँ कही ऐसा ना हो कि मै अपनी मर्यादा भूल जाऊ और आपको मटिया मेट कर दू। पर जोशी जी कि हिम्मत देखो माने नही। अब मैने सोचा क्यो ना हाथ के बजाय दिमाग का प्रयोग किया जाय । मैने कहा जोशी जी कल आप का पैपर है अगर आप अब शान्त ना हुए तो मै आपको सोने नही दूँगा । अगर आप सोयेगे नही तो आपको परीक्षा मे नीद आयेगी जिससे आपकी परीक्षा की ऐसी तैसी हो जायेगी। पर वो फिर भी ना माने। अब वो जैसी ही थोडा झपकी लेते मै जगा देता। जगकर फिर थोडी देर हमारी ऐसी तैसी करते हुए झपकी लेते में फिर जगा देता, मै फिर जगा देता। यह क्रम सुबह के 3 बजे तक चलता रहा। अन्त मे मैने कहा जोशी जी मान लेते है हम तीनो ही चिरकुट है। हम तीनो ही एक कोरे कागज पर अन्य दो गवाहों कि उपस्थिति मै ये लिखेंगे कि मै चिरकुट हूँ । मैने कहा पहले मै लिखता हूँ बाद मे रमैल लिखेगा और अन्त मे आप लिखना। जोशी जी मान गये। पहले मैने लिखा, फिर रमैल ने और अन्त मे जोशी जी ने। मैने अपना और रमैल का लिखा नोट तो फाड दिया जोशी जी का लिखा मेरे पास रह गया। जो नीचे है।





इस पत्र से बहुत लाभ उठाया हमने । इस पत्र को नष्ट करने के एवज में जोशी जी से कई फिल्मों को दीखाने के लिए धन जुटवाया, कई अन्य कम निकलवाये पर नष्ट नही किया । एक यही तो निशानी है जोशी जी कि हमारे पास ।

खैर अब तो जोशी जी MBA कर उतर चुके है व्यापार के अखाडे मै, पर है अभी भी चिरकुट ही। उनका लिखा नोट जब भी पडता हूँ आँखों के सामने उनका मासूम सा चेहरा घूमने लगता है।