शनिवार, दिसंबर 30, 2006

आशावादिता

आशावादिता वह शक्ति है जो मनुष्य को किसी भी कठिनाई को यर्थाथपूर्वक रवैये से हल करने मे मदद करती है। इस शक्ति से हम कठिनाई को हल करने का ऐसा रास्ता चुनते है जो विकासपूर्वक होने के साथ-साथ हमे सक्रियता एवमं पूर्ण दक्षता की और लेकर जाता है। आशावादिता न सिर्फ किसी मनुष्य के जीवन मे खुशहाली और सफलता लेकर आती है, बल्कि वह संबंधित शक्स को एक ऐसे चुंबक मे तब्दील कर देती है, जो सफलता को स्वयं अपनी और खीच लेता है। निराशा को दूर भगाने के लिये आशावादिता एक ऐसी तकनीक प्रदान करता है, जो नैराश्य को खत्म कर आत्मविश्वास लाती है। इसके बलबूते व्यक्तिगत उदेश्यो और उपलब्धियो को अधिक से अधिक हासिल किया जा सकता है।

आशावादिता एक बेहतर मूल्यवान नजरिया है जिसे हमे समय के साथ साथ और विकसित करते रहना चाहिए। हम जहाँ भी जाते है हमारा नजरिया हमारे साथ साथ जाता है और हम उसी के चश्मे से दुनिया को देखते है। हमारा नजरिया ही तो है डुबते सूरज को दो तरह से परिभाषित करता है, निराशावादी मनुष्य कहता है कि सूरज डूब रहा है, रात होने वाली है जबकि आशावादी मनुष्य कहता है कि सूरज डूब रहा है और कल फिर से उगेगा अर्थात कल हम एक बार फिर से संर्घष करने के तैयार होगे ।
जींवन की कठिनाईयो और मुश्किलो के सामने घुटने टेक देना तो सबसे आसान काम है, लेकिन उनका डट कर मुकाबला करने के लिये आशावादिता से पूर्ण बहुत बडे कलेजे की जरूरत होती है। आशा से भरपूर नजरिये से आप स्वयं को दुनियावालो मे सक्षम व्यक्ति के तौर देखते है। आपके साथ आशावादिता की चिंगारी जलेगी जो न सिर्फ आपको जीवन के अंधेरेयुक्त रास्तो मे मार्गदर्शन करेगी बल्कि आपको रिस्क लेने को प्रेरित करेगी। आप हवा के रूख को तो नही मोड सकते लेकिन अपने परवाज को इस तरह से व्यवस्थित जरूर कर सकते है कि आसानी से अपनी मंजील पा सके।

मंगलवार, दिसंबर 19, 2006

संर्घष आवश्यक है।

जिन्दगी एक रहगुजर की तरह है और हम मुसाफिर, जिसके रास्ते मे अनेक रंग देखने को मिलते है। कभी खुशी का उजाला तो कभी गम का अंधेरा। जब हमारा गमो से पाला पडता है तो हमे चारो तरफ निराशा के बादल दिखाई देने लगते है और हम घबरा जाते है। पर निराशा के बादल गहरे है तो क्या हुआ। जिस तरह रात चाहे कितनी भी काली क्यो न हो सवेरा तो होता ही है। उसी तरह से निराशा के बादल भी छट जायेगे। किसी मुश्किल को देखकर भागने से या हाथ पर हाथ रखकर बैठने से मुश्किल हल नही हो जाती। किसी भी मुश्किल से डरे नही बल्कि ये सोचे की मुश्किल से मुकाबला कैसे करे। कैसे हम दुःख के पलो मे भी खुशियो के कुछ पल हासिल कर सकते है।
कुछ लोग सिर्फ सपने देखते है, दूसरो के सहारे जीते है, पंगु बनकर संघर्ष करना नही चाहते है। अपने पैरो पर कभी नही चलते, न ही पैरो पर चलना सीखना चाहते है। दरअसल अपने पैरो पर चलना बहुत कठिन होता है, बहुत सहना पडता है। जिन्दगी खुशिया उन्ही के आगे फैलाती है जो आखरी सांस तक लडना जानते है। जो लोग जिन्दगी के किसी पडाव को ही अपनी मंजील समझ लेते है उन्हे वह नही मिल पाता जिसके वो असली हकदार होते है। अचानक कुछ नही घटता, जो होता है धीरे धीरे होता रहता है, जिस दिन पूरी तरह होता है उस दिन हम उसका होना जान पाते है।

अतः जिन्दगी मे संर्घष आवश्यक है। हमे जिन्दगी के इस संर्घष मे विजेता बनना है। प्रयास करते रहने है। प्रयास हमे सफलता के लिये त्याग करने तथा अपनी गलतियो को सुधारने की प्रेरणा देता है। उतार चढाव तो आते रहते है, और शुरूआत.....वह तो हम सभी को करनी होती है आर करते भी है। हम सब सुबह जागते है तो वह नए सिरे से उस दिन की शुरूआत होती है।

दिल्ली का जीवन

भागदौड वाली इस जीवनशैली मे हर शक्स एक अनजानी सी दौड में अनजाने लक्ष्य के पीछे दौड रहा है। मैं भी अपनो से दूर ऐसे ही किसी अनजाने लक्ष्य के पीछे दौड रहा हूँ। क्या पाना है?, कैसे पाना है?,कुछ पता नही। क्या आपने किसी कुत्ते को अनजाने वाहन के पीछे भागते देखा है? सवाल यह नही कि वो क्यो भाग रहा है? अगर वह उस वाहन को पकड भी लेगा तो करेगा क्या? कभी अपने बारे मे सोचता हूँ तो "मुझे लगे रहो मुन्ना भाई" फिल्म मे विद्या बालान द्वारा कही लाईने याद आ जाती है :
शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है?
जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है?
पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है
भूल गये भीगते हुए टहलना क्या है?
सीरियल्स् के किरदारो का सारा हाल है मालूम
पर माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है?
अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यूं नहीं?
108 हैं चैनल् फ़िर दिल बहलते क्यूं नहीं?
इन्टरनैट से दुनिया के तो टच में हैं,
लेकिन पडोस में कौन रहता है जानते तक नहीं.
मोबाइल, लैन्डलाइन सब की भरमार है,
लेकिन जिग्ररी दोस्त तक पहुँचे ऐसे तार कहाँ हैं?
कब डूबते हुए सुरज को देखा था, याद है?
कब जाना था शाम का गुज़रना क्या है?
तो दोस्तों शहर की इस दौड़ में दौड़् के करना क्या है
जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है?
5 और 6 लाईने मुझ पर चरितार्थ नही होती है, क्योकि मैं अपने माता पिता से बहुत प्यार करता हूँ और दूरदर्शन देखना तो न के बराबर। मेरे को तो महानगरीय जींवन एक प्रोगाम की तरह लगता है, जिसमे न जाने कितनी प्रतिबंधिताये ( conditions )जैसे कि if, if else, while, do while और न जाने कितनी,देखने को मिलती है स्नातक तक तो सारी याद थी, पर अब नही हैं। छोटे शहरो मे आदमी को मिले एक अवकाश वह न जाने कितने सुखद अनुभव को समेटता हैं। जबकि दिल्ली जैसे शहरो मे उस अवकाश का पता ही नही चलता। कब सुबह, कब दोपहर और कब शाम हो जाती है पता ही नही लगता हैं। यहा तो दिल करता है कि काश दिन मे 36 या 48 घंटे होते तो कितना अच्छा होता। छोटे शहरो मे लोग जिन्दगी जीते है, जबकि महानगरो मे जिन्दगी काटी जाती है ।

जब मैं रूडकी मे जाँब करता था तो रविवार या किसी अन्य अवकाश का पूर्ण उपयोग करता था। उठाई अपनी धन्नो और चल दिये दोस्तो से मिलने। रास्ते मे पडने वाले मुख्य बाजार (Civil Lines)या कन्या विघालयो, महाविघालयो से गुजरने पर चकसुख का परमान्नंद लेने से कभी नही चुकता था। अगर साथ मे मित्र मंडली हो तो पूछो मत। दिल मे एक आस रहती थी कि कभी न कभी तो ईश्वर की कृपा से अपने अंधियारे आंगन मे भी उजाला होगा। शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक का परिक्रमण करने मे मुश्किल से एक घंटा लगता था। दिल्ली मे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुचने मे कितने पापड बेलने पडते है, इस को एक दिल्लीवासी ही समझ सकता है। ऐसे मे अवकाश का क्या खाक उपयोग करेगे। अत: सोने (sleep) के अलावा मुझे तो अवकाश का पूर्ण उपयोग करने का कोई दूसरा उपाय नही सुझता।

खैर जैसे भी है जीवन तो जीना ही पडता है। पर कोशिश यही करता हूँ कि इस कागजी फूल जैसी बनावटी जींवन का हिस्सा ना बनू।

शुक्रवार, दिसंबर 08, 2006

खुद से प्रेम

खुद से प्रेम करना सीखे। खुद को स्वीकारे। कोई भी मनुष्य पूर्ण नही होता। हर एक इंसान मे कई अच्छे बुरे गुण समाहित होते है। हमे अपने अच्छे गुणो का निरंतर विकास और द्रुगुणो का मिटाने का प्रयास करना चाहिये। जब तक हम खुद को अपने सम्मुख जैसे है, वैसे नही स्वीकारेगे तब तक हम अपने आप मे वो बदलाव नही ला पायेगे जो हम लाना चाहते है। बदलाव तभी संभव भी हो पायेगा जब हमारी अपनी नजरो मे हमारी तस्वीर एकदम साफ होगी। फिर चाहे दूसरे कुछ भी सोचे। हम क्या है, यह हमारे स्वयं द्रारा तय होना चाहिए। इस संबध मे हम ही है जो दूसरो से ज्यादा जानते है न कि दूसरो से प्रमाण पत्र की चाह मे अपनी स्वयं की कोई दृष्टि ही विकसित कर पाये।
यदि किसी ने भी आपके लिए कुछ किया है, उनके आप एहसानमंद रहे और उनके लिए सदैव आगे बढकर कुछ करने के लिए तैयार रहे। लेकिन उन एहसानो के बदले मे आपके जींवन की दिशा उनके द्रारा तय नही होनी चाहिए। आप अपने जींवन मे किसी को दखल देने का कितना अधिकार है, यह आप स्वयं तय करोगे।अपनी एक सोच व्यक्तित्व बनाये, अपनी सोच को परिपक्व रूप दे क्योकि ये जिन्दगी तुम्हारी है।

शनिवार, दिसंबर 02, 2006

सफलता की राह

जीवन के इस पथ पर
क्या खोना क्या पाना है
जीवन एक संघर्ष है
इसी सोच मे कदम बढाना है।

यदि हम कदम नही बढायेगे
तो उसी जगह मै रह जायेगे
हम आगे नही बढ पायेगे
जीवन मे सिर्फ आगे बढो।

आगे अगर रूक गये
मुश्किलो को देख कर
बढ नही पायेगे हम
लेगी कठनाईया हमे घेर।

जाना है हमे बहुत आगे
पानी है हमे सफलता
जो मिलेगी करके संर्घष
क्योकि जीवन एक संर्घष है।

प्रथम प्रयास

क्या तुमने कभी जिन्दगी को परछाइयो के पीछे भागते देखा है। मैने देखा है और मैं कई बार इन परछाइयो मे खो भी गया हूँ। लेकिन जब भी उजाला हुआ मैने अपने आप को सदा तन्हा और अकेला पाया। यह सिलसिला अगर यही खत्म हो तो कोई बात नही थी पर यह हर रात शुरू होता है और दिन के उजाले के साथ खत्म हो जाता है। कभी दिन का उजाला खतरनाक तथा भयावह सपनो से निजात दिलाता है तो कभी हसीन सपनो के लिये काल का ग्रास बन जाता है। मेरी समझ मे नही आता मे किसका शुकिया अदा करू, उस रात का जो मुझे सच्चाई से दूर हसीन सपने दिखाती है या उस सुबह के उस उजाले का जो मुझे सच्चाई से वाकिफ कराती है।

आप भी सोच रहे होगे ये चिरकुट की तरह बाते क्यो कर रहा है। दोस्तो ऐसा तो होगा ही नये नये लेखक जो बने है। लिखने की ये प्रेरणा के स्रोत भी आप लोग ही है। आप लोग लिखते ही इतना अच्छा हो कि मै बयान नही कर सकता। इसलिये मैने सोचा क्यो ना मै भी प्रयास करू। मै इसमे कहा तक सफल और असफल हुआ हूँ ये तो आप लोग ही मुझे बतायेगे। आशा करता हूँ कि आप सब लोगो के आर्शिवाद से मै अपनी मंजिल जरूर पा सकूगाँ।

आपका अपना

गिरीश