शनिवार, दिसंबर 02, 2006

प्रथम प्रयास

क्या तुमने कभी जिन्दगी को परछाइयो के पीछे भागते देखा है। मैने देखा है और मैं कई बार इन परछाइयो मे खो भी गया हूँ। लेकिन जब भी उजाला हुआ मैने अपने आप को सदा तन्हा और अकेला पाया। यह सिलसिला अगर यही खत्म हो तो कोई बात नही थी पर यह हर रात शुरू होता है और दिन के उजाले के साथ खत्म हो जाता है। कभी दिन का उजाला खतरनाक तथा भयावह सपनो से निजात दिलाता है तो कभी हसीन सपनो के लिये काल का ग्रास बन जाता है। मेरी समझ मे नही आता मे किसका शुकिया अदा करू, उस रात का जो मुझे सच्चाई से दूर हसीन सपने दिखाती है या उस सुबह के उस उजाले का जो मुझे सच्चाई से वाकिफ कराती है।

आप भी सोच रहे होगे ये चिरकुट की तरह बाते क्यो कर रहा है। दोस्तो ऐसा तो होगा ही नये नये लेखक जो बने है। लिखने की ये प्रेरणा के स्रोत भी आप लोग ही है। आप लोग लिखते ही इतना अच्छा हो कि मै बयान नही कर सकता। इसलिये मैने सोचा क्यो ना मै भी प्रयास करू। मै इसमे कहा तक सफल और असफल हुआ हूँ ये तो आप लोग ही मुझे बतायेगे। आशा करता हूँ कि आप सब लोगो के आर्शिवाद से मै अपनी मंजिल जरूर पा सकूगाँ।

आपका अपना

गिरीश

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