बुधवार, दिसंबर 28, 2011

सीमा के रिश्तों पर एक संवेदनशील फ़िल्म


जीतू भाई जी के कहने पर लिटिल टैरोरिस्ट फिल्म देखी. फिल्म की अवधि कुल पन्द्रह मिनट की है. पन्द्रह मिनट में फिल्म खत्म हो जाती है, और हमारे जहन मे छोड़ जाती है ढेर सारे सवाल.

छोटी फ़िल्म बड़ी बात

फ़िल्म की कहानी सीमा पर बसे दो गाँवों के जीवन पर आधारित है जिनके बीच संबंध सिर्फ़ तनाव के हैं. एक ओर राजस्थान का एक गाँव है और दूसरी ओर पाकिस्तान. सीमा पर कंटीली बाड़ लगी है, पाकिस्तान की तरफ वाले गाँव मे बच्चे क्रिकेट खेल रहे है, लेकिन गेंद बाड़ को कहाँ जानती समझती है. उछली और इस पार चली आई. गेंद को यह भी नहीं मालूम कि वहाँ बारुदी सुरंगें बिछी हुई हैं. एक बच्चा है. बमुश्किल दस साल का, नाम “जमाल”. उसने बाड़ के नीचे से थोड़ी सी रेत हटाई और एक देश की सीमा लाँघ कर दूसरे देश में आ गया लेकिन अचानक सायरन बजने लगे और गोलियाँ बरसने लगीं. अभी वो कुछ समझता कि क्या हो रहा है, चारो ओर से अचानक गोलियों की बौछार होने लगती है, बच्चा जान बचाकर भागता है.

सेना के जवानो से बचते हुए उसे रास्ते में एक मास्टर जी मिलते है जो जवानो को गलत सूचना देकर उसे बचा लेते है. वह मास्टरजी के घर पनाह लेता है, जो काफी रहमदिल है, लेकिन मास्टरजी की भतीजी को इस बच्चे के घर आने पर एतराज है क्योंकि वो बच्चा एक मुसलमान है. मास्टरजी के घर में जमाल कुछ हक़ीक़तों से भी वाकिफ़ होता है.

मास्टरजी बच्चे को घर मे शरण देते है और सेना से छुपाने के लिये गन्जा बनाकर चुटिया बना देते है, ताकि वो हिन्दु दिखे ‌और उसका नामकरण “जवाहर” करते है. फिल्म मे इन्सानी रिश्तो पर बेहतर तरीके से रोशनी डाली गयी है.मास्टर साहब की भतीजी का जमाल के प्रति नफरत कई तरह के शैड लिये हुए है.

लेकिन जो दीवार इनसानों ने खड़ी की है वो अक्सर इंसानियत पर भारी पड़ती है.

उस ज़मीन पर जहाँ लोग रात-दिन 'पधारो म्हारो देस' गाते हैं वहीं एक कड़वी सच्चाई मुँह बाए खड़ी है. वो लड़की जिसे जमाल यानी जवाहर आपा कहता है उस मिट्टी के बर्तन को इसलिए तोड़ देती है क्योंकि उसमें एक मुसलमान ने खाना खाया है.

एक ओर इंसानियत है और दूसरी ओर सामाजिक दायरा

बाद मे मास्टर और उसकी भतीजी जमाल को सीमा पार छोड़ आते है, जाने से पहले बच्चा मास्टर और उसकी भतीजी से लिपट जाता है. जमाल अपने घर पहुँच चाता है.जहाँ उसकी माँ उसका बेसब्री से इन्तजार कर रही होती है, लेकिन उसके कटे बाल और चुटिया देखकर उसको मारती है.

लेकिन बच्चा रोने के बजाय सीमा पर कंटीली बाड़ो को देखकर जोरदार तरीके से हँसता है, उसकी हँसी मे भय, आतंक, दर्द, तिरस्कार और विस्मय का अदभुत मिलाप है, निर्देशक ने इस सीन को बहुत अच्छे तरीके से फिल्माया है.

कुल 15 मिनट की इस फ़िल्म को देखकर ऐसा लगता नहीं कि इसमें एक भी दृश्य अतिरिक्त है

एक छोटे से बच्चे के चेहरे पर भय, विस्मय और प्रेम सब कुछ इस तरह उभरता कि कुछ देर के लिए सिहरन पैदा हो जाती है

फ़िल्म दोनों ओर की कुछ सामाजिक कुरीतियों को भी निशाना बनाती है.

बुधवार, दिसंबर 07, 2011

फिल्म क्यों देखता हूँ

मै फिल्में क्यों देखता हूँ? मुझे अच्छा लगता है। अब आप पूछेगे क्यों अच्छा लगता है? अमा जैसे कि हम सभी लोग आक्सीजन, जल और हवा पर जीते हैं पर मन की खुराक कुछ और ही होती है। फिल्में मुझे भाती हैं। जब कभी मन खराब होता है तो यह मुझे गुदगुदाकर हंसा देती है, जब अकेला होता हूँ तो मेरा साथ देती हैं, जब मित्रो के साथ होता हूँ तो मजा दूगना कर देती है । जब से अपना आशियाना बदला है तब से शायद ही कोई फिल्म छोडी हो । आजकल तो हर नई फिल्म रिलीज होते ही एक या दो दिन में देख लेता हूँ । धन्यवाद देना चाहूँगा अपने मित्रों अजय, विकास और नितिन को जो मुझे कोई फिल्म छोड़ने नही देते है ।

मै अक्सर यही सोचाता हूँ कि मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं पर सचाई यही लगती है कि स्थितिजन्य कारणों से कोई फिल्म पसंद आती है और कोई नहीं, कई बार उद्देश्यपूर्ण सिनेमा पसंद आ जाता है तो कई बार बेसिरपैर का धमाल भा जाता है। शायद इसीलिये द डर्टी पिक्चर’ और 'राकस्टार' पसंद आई पर 'देशी-ब्वायज' नहीं, 'दमादम' अच्छी लगी पर 'रा-वन' नहीं।

फिल्में देखना बचपन से ही पसंद है। बचपन में मोहल्ले के कुछ बड़े लडके उस समय वि सी आर पर फिल्म दिखाया करते थे, वो भी चन्दा एकत्रित करके। हर घर से पाँच या दस रुपये लिए जाते थे। बड़े-बूढ़ों और स्त्रियों को एक धार्मिक फिल्म दीखा दी जाती थी और बाद में अपनी पसंद कि फिल्में देखी जाती थी । पूरी रात फिल्म देखते रहते। अगर निद भी आ रही होती तो मुँह दो लेते। उस समय वि सी आर के सबसे नज़दीक बैठने की होड़ होती थी । वि सी आर का किराया 80 रूपये और कैसेट का 20 रूपये प्रती रात्रि शुल्क होता था । माह में एक बार इस तरह कि व्यवस्था कर ही दी जाती थी । कुछ समय बाद वि सी आर कि जगह सी डि प्लेयर ने ले ली। तब दोस्तों के यहा सी डि प्लेयर किराये पर लाकर फिल्में देखा करते थे। अपने खास मित्र नितिन के यहा तो काफी फिल्में देखी और इन्जाय करी।

फिल्में मुझे हर रूप में पसंद आती हैं, चाहे फेटासी, प्राइम प्रधान, हास्य हो या यथार्थ के नज़दीक। आजकल की फिल्मों में खास यह बात अच्छी लगती है कि तकनीक बढ़िया हुई है ।

रविवार, दिसंबर 04, 2011

द डर्टी पिक्चर : फिल्म समीक्षा

इस शुक्रवार फिल्म देखी ‘द डर्टी पिक्चर’ अर्थात गंदी फिल्म । अमा गलत मत समझियेगा मुझे गंदी फिल्म वैसी वाली नही जैसे काल्रेज के दिनों में देखते थे। बहुत प्रचार-प्रसार हुआ था फिल्म कि रिलीज से पह्ले । कोई कुछ ये कह रहा था तो कोई वो कह रहा था । मै भी थोड़ा उत्सुक था कि देखें तो सही क्या है इस फिल्म में। वैसे भी हमारे भाई समान मित्र विकास जी* ने इस फिल्म को हमें दिखाने कि पूरी व्य्व्स्था कर रखी थी। वो बात अलग है कि एक दिन पहले मेरे अन्य मित्र अजय जी ने उनके The Twilight Saga: Breaking Dawn को नकार चुके थे। (*जी का प्रयोग महानता दर्शाने के लिये व्यक्त किया गया है)
आप लोगो को तो में अपने चिट्ठे (बालाग) में पहले ही बता चूका हूँ कि विद्या बालन अपनी चहैती कटेग्री में आती थी वो बात अलग है कि समय के साथ साथ स्वाद भी बदलता रहता है। तो थोड़ा आप को फिल्म के बारे में बता दू ।

गांव से भागकर मद्रास आई रेशमा(विद्या बालन) की ख्वाहिश है कि वह भी फिल्मों में काम करे। यह किसी भी सामान्य किशोरी की ख्वाहिश हो सकती है। फर्क यह है कि निरंतर छंटनी से रेशमा की समझ में आ जाता है कि उसमें कुछ खास बात होनी चाहिए। जल्दी ही उसे पता चल जाता है कि पुरुषों की इस दुनिया में कामयाब होने के लिए उसके पास एक अस्त्र है.. उसकी अपनी देह। अभिनेत्री बनने के सपने को साकार करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। इस एहसास के बाद वह हर शर्म तोड़ देती है। रेशमा से सिल्क बनने में उसे समय नहीं लगता। पुरुषों में अंतर्निहित तन और धन की लोलुपता को वह खूब समझती है। सफलता की सीढि़यां चढ़ती हुई फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन जाती है।

स्टारडम की ऊंचाईयों पर पहुंचने के बाद सिल्क को सच्चे प्यार की तलाश है। उसे कई लोग मिलते भी हैं मगर सब धोखा दे जाते है। सबसे पहले उनके को स्टार सूर्यकांत(नसीरुद्दीन शाह) उनकी जिंदगी में आते हैं मगर उन्हें सिल्क नहीं बल्कि उसके जिस्म से प्यार है। इसके बाद स्क्रिप्ट राइटर रमाकांत(तुषार कपूर)भी उन्हें उन्हें धोखा देकर उनका दिल तोड़ देते हैं ।

प्यार में मिले धोखे से सिल्क एकदम टूट जाती है और उसका करियर भी ढलान पर आने लगता है। अंत में निर्देशक (इब्राहीम) इमरान हाशमी के रूप में उन्हें सच्चा प्यार जरुर मिलता है मगर तब तक वो पूरी तरह से टूट चुकी होती है और आत्मह्त्या का फेसला चुन चुकी होती है ।

फिल्म की कहानी को इसका संगीत और दिलचस्प बनाता है। उह ला ला... और इश्क सूफियाना... जैसे गाने पहले ही जबरदस्त लोकप्रिय हो चुके हैं। उह ला ला... तो मेरा पेवरेट गाना बना हुआ है । इश्क सूफियाना अनावश्यक और ठूंसा हुआ लगता है पर चलाया जा सकता है।

क्यों देखें:सिल्क बनी विद्या की जबरदस्त अभिनय प्रतिभा और इस वीकेंड में अगर एक विशुद्ध मनोरंजक फिल्म देखने की इच्छा रखते हैं तो 'डर्टी पिक्चर' जरूर देखिएगा

क्यों न देखें: परिवार के साथ देखने लायक नही, दोहरे अर्थ वाले संवाद

मेरे दोनों मित्रों ने तो 'डर्टी पिक्चर' को पाँच में से 2 अंक दिये है पर मेरे हिसाब से 3 अंक तो बनते है।

सोमवार, नवंबर 28, 2011

ऐसे अनपढ़ चाहिये उत्तराखंड को

एक आंदोलन, जिसने विश्वव्यापी पटल पर धूम मचाई। पर्वतीय लोगों की मंशा और इच्छाशक्ति का आयाम बना। विश्व के लोगों ने अनुसरण किया, लेकिन अपने ही लोगों ने भुला दिया। एक क्रांतिकारी घटना, जिसकी याद में देश भर में चरचा, गोष्ठियां और सम्मेलन आयोजित होने चाहिए थे, अफसोस! किसी को सुध तक नहीं रही। हम बात कर रहे हैं विश्वविख्यात 'चिपको आंदोलन ’ की। 'पहले हमें काटो, फिर जंगल ’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। आंदोलन की सफलता अपनी परिणति पर पहुंची और सैकड़ों-हजारों पेड़ कटने से बच गए। लेकिन आज सवाल यह खड़ा होता है, क्या अब सब कुछ सुधर गया है? क्या हमें अब पेड़ों की जरूरत नहीं? या एक बार आंदोलित होने के बाद हम चैन की बंशी बजा रहे हैं।

विश्व प्रसिद्ध चिपको आन्दोलन के बारे में सभी जानते हैं लेकिन इस आन्दोलन की जननी गौरा देवी को कम ही लोग जानते हैं। लेकिन आज जब विकास के नाम पर पर्वतीय राज्य की रूपरेखा को एक आयाम देकर उत्तराखंड राज्य का गठन कर दिया गया, तब यहीं के लोग इसे भूल गए। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं को अगर छोड़ दिया जाए तो न ही आम आदमी को इसकी जानकारी है और न ही सरकार के नुमाइंदों को।

चिपको की महिलाओं को और गौरा देवी को पढ़े-लिखे लोग ‘अनपढ़’ कहते हैं। यह कोई नहीं बताता कि पढ़े-लिखे होने का क्या अभिप्राय है ? क्या स्कूल न जा पाने के कारण वे ‘अनपढ़’ कहलाएँ ? क्या अपने परिवेश को समझ चुकीं और उसकी सुरक्षा हेतु प्रतिरोध की अनिवार्यता सिद्व कर चुकीं महिलाएँ किसी मायने में अनपढ़ हैं ? क्या वे स्कूल-कालेजों की पढ़ी होतीं तो ऐसे निर्णय लेतीं ? देवी की बात करते हुए कोई उन सच्चाइयों को नहीं देखता जो स्वतः दिखाई देती हैं और जिनसे उनका कद और ऊँचा हो जाता है।

आइए आपको मै इसकी पृष्ठभूमि के बारे में अवगत कराता हूँ , जहां से शुरू हुई थी एक मुहिम, जिसने देखते ही देखते न सिर्फ विश्वव्यापी रूप धारण कर लिया बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में एक तूफान खड़ा कर दिया। हमेशा नमन की हकदार रहेगी वह महिला गौरा देवी जिसने इस मुहिम को न सिर्फ शुरू किया, बल्कि इसे इसके मुकाम तक पहुंचाया। 1925 में जोशीमठ से करीब 24 किलोमीटर नीती घाटी के लाता गांव के एक जनजातीय परिवार में जन्मी गौरा देवी का अपना जीवन खुद एक संघर्ष की गाथा है।

12 साल की उम्र में विवाह, 19 साल की उम्र में एक पुत्र को जन्म और 22 साल की उम्र में पति का स्वर्गवास। । सिर्फ 10 साल का वैवाहिक जीवन रहा उनका! एक पहाड़ी विधवा के सारे संकट उन्हें झेलने पड़े पर इन्हीं संकटों ने उनके भीतर निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। दुखों का पहाड़ झेलते हुए अशिक्षित होने के बावजूद इस महिला ने कभी हार नहीं मानी और अपने जीवन को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज उसे पूरा विश्व सम्मान की नजर से देखता है।
गौरा देवी ने ससुराल में रह्कर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिये अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र को स्वालम्बी बनाया, उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई, इससे गौरा देवी आश्वस्त हुई और खाली समय में वह गांव के लोगों के सुख-दुःख में सहभागी होने लगीं। इसी बीच अलकनन्दा में १९७० में प्रलंयकारी बाढ़ आई, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरुकता बनी और इस कार्य के लिये प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसा भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आई और यहां पर सैनिकों के लिये सुगम मार्ग बनाने के लिये पेड़ों का कटान शुरु हुआ। जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी। इसी चेतना का प्रतिफल था, हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना, १९७२ में गौरा देवी जी को रैंणी गांव की महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुना गया। इसी दौरान वह चण्डी प्रसा भट्ट, गोबिन्द सिंह रावत, वासवानन्द नौटियाल और हयात सिंह जैसे समाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आईं। जनवरी १९७४ में रैंणी गांव के २४५१ पेड़ों का छपान हुआ। २३ मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया। प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुई क्षति का मुआवजा देने की तिथि २६ मार्च तय की गई, जिसे लेने के लिये सभी को चमोली आना था। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने के लिये ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि २६ मार्च को चूंकि गांव के सभी मर्द चमोली में रहेंगे और समाजिक कायकर्ताओं को वार्ता के बहाने गोपेश्वर बुला लिया जायेगा और आप मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी चले जाओ और पेड़ों को काट डालो।

इसी योजना पर अमल करते हुये श्रमिक रैंणी की ओर चल पड़े और रैंणी से पहले ही उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुये रैंणी के देवदार के जंगलों को काटने के लिये चल पड़े। इस हलचल को एक लड़की द्वारा देख लिया गया और उसने तुरंत इससे गौरा देवी को अवगत कराया। पारिवारिक संकट झेलने वाली गौरा देवी पर आज एक सामूहिक उत्तरदायित्व आ पड़ा। गांव में उपस्थित २१ महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ी। इनमें बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, पासा देवी, रुक्का देवी, रुपसा देवी, तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी शामिल थीं। इनका नेतृत्व कर रही थी, गौरा देवी, इन्होंने खाना बना रहे मजदूरो से कहा”भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल, और लकड़ी मिलती है, जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे, आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो, जब हमारे मर्द आ जायेंगे तो फैसला होगा।” ठेकेदार और जंगलात के आदमी उन्हें डराने-धमकाने लगे, उन्हें बाधा डालने में गिरफ्तार करने की भी धमकी दी, लेकिन यह महिलायें नहीं डरी। ठेकेदार ने बन्दूक निकालकर इन्हें धमकाना चाहा तो गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा “मारो गोली और काट लो हमारा मायका” इस पर मजदूर सहम गये। गौरा देवी के अदम्य साहस से इन महिलाओं में भी शक्ति का संचार हुआ और महिलायें पेड़ों के चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो। ऋषिगंगा के तट पर नाले पर बना सीमेण्ट का एक पुल भी महिलाओं ने तोड़ डाला, जंगल के सभी मार्गों पर महिलायें तैतात हो गई। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने का प्रयास किया, यहां तक कि उनके ऊपर थूक तक दिया गया। लेकिन गौरा देवी ने नियंत्रण नहीं खोया और पूरी इच्छा शक्ति के साथ अपना विरोध जारी रखा। इससे मजदूर और ठेकेदार वापस चले गये, इन महिलाओं का मायका बच गया। इस आन्दोलन ने सरकार के साथ-साथ वन प्रेमियों और वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। सरकार को इस हेतु डा० वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन किया। जांच के बाद पाया गया कि रैंणी के जंगल के साथ ही अलकनन्दा में बांई ओर मिलने वाली समस्त नदियों ऋषि गंगा, पाताल गंगा, गरुड़ गंगा, विरही और नन्दाकिनी के जल ग्रहण क्षेत्रों और कुवारी पर्वत के जंगलों की सुरक्षा पर्यावरणीय दृष्टि से बहुत आवश्यक है। इस प्रकार से पर्यावरण के प्रति अतुलित प्रेम का प्रदर्शन करने और उसकी रक्षा के लिये अपनी जान को भी ताक पर रखकर गौरा देवी ने जो अनुकरणीय कार्य किया, उसने उन्हें रैंणी गांव की गौरा देवी से चिपको वूमेन फ्राम इण्डिया बना दिया।

श्रीमती गौरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी संलग्न रहीं, उन्होंने ऐसे कई कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामीण कार्यक्रमों की सलाहकार समिति की भी वह सदस्य थी। सीमित ग्रामीण दायरे में जीवन यापन करने के बावजूद भी वह दूर की समझ रखती थीं। उनके विचार जनहितकारी हैं, जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। श्रीमती गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुये कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं” उन्हें दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल की तीस महिला मंगल दल की अध्यक्षाओं के साथ भारत सरकार ने वृक्षों की रक्षा के लिये 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी द्वारा प्रदान किया गया था।

गौरा देवी ने ही अपने अदम्य साहस और दूरदर्शिता से चिपको आन्दोलन का सूत्रपात किया था। हालांकि उन्हें परे कर अनेक लोगों ने इस आन्दोलन को हाईजैक कर अनेकों पुरस्कार बटोरे। लेकिन हमारी नजर में चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी ही हैं। इस महान व्यक्तित्व का निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ, यद्यपि आज गौरा देवी इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उत्तराखण्ड ही हर महिला में वह अपने विचारों से विद्यमान हैं। हिमपुत्री की वनों की रक्षा की ललकार ने यह साबित कर दिया कि संगठित होकर महिलायें किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकती है। जिसका ज्वलंत उदाहरण है चिपको आन्दोलन को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होना है। चिपको आन्दोलन की जननी गौरा देवी आज विश्वभर के पर्यावरण वैज्ञानिकों के बीच ‘चिपको वुमेन फ्राम इण्डिया’ के नाम से विख्यात है।

गौरा देवी और साथियों के संघर्ष का ही परिणाम था जो 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना और केंद्र सरकार को पर्यावरण मंत्रालय का गठन करना पड़ा। आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रहा है। भविष्य में इसके खतरे पूरी पृथ्वी को लील लेना चाहते हैं, ऐसे में हमें जरूरत है फिर से एक चिपको आंदोलन की। हम अल्प समय के लिए मिलने वाली सुविधाओं के लिए प्रकृति से खिलवाड़ नहीं कर सकते। आज नहीं तो कल हमें इसके भयंकर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। अगर हम आज नहीं चेते तो कल इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

सभार : विभिन्न चिटटा जगत, मीडिया नारद, अपना उत्तराखंड

रविवार, जुलाई 10, 2011

लोग रूठ जाते हैं मुझसे

इन्टरनेट के मायाजाल मे उल-जलुल हरकते करते करते एक मज़ेदार शायरी मिली, सोचा आप लोगो मे भी बाटा जाये

लोग रूठ जाते हैं मुझसे
और मुझे मनाना नहीं आता,
मैं चाहता हूँ क्या
मुझे जताना नहीं आता,
आँसुओं को पीना पुरानी आदत है
मुझे आंसू बहाना नहीं आता,
लोग कहते हैं मेरा दिल है पत्थर का
इसलिए इसको पिघलाना नहीं आता,
अब क्या कहूँ मैं
क्या आता है, क्या नहीं आता,
बस मुझे मौसम की तरह
बदलना नहीं आता

कहिए कैसी लगी, एक एक शब्द मेरे तो दिल मे लग गया, क्या दर्द है, शायर महोदय का तो पता नही चल पाया आप को पता लगे तो मुझे भी बतलाईएगा

सोमवार, फ़रवरी 14, 2011

राजुला मालुशाही: एक अमर प्रेम कथा

उत्‍तराखंड के विभिन्‍न हिस्‍सों में प्रेम कहानियां लोकगथाओं के रूप में जन जन तक पहुंची हैं, हालांकि यह अधिकतर राजघरानों से जुड़ी हैं लेकिन वह आम आदमी तक प्‍यार का संदेश छोड्ने में कामयाब रही हैं

आज वी-डे है, प्यार का अनमोल दिन, मेरे लिए आवश्यक है की इस विषय में भी कुछ लिखूं, चलिए अपने परदेश यानी उत्तराखंड में प्रचलित एक प्रेमगाथा के बारे में बताता हूँ

यह कहानी कोई हज़ार साल पुरानी है, कुमांऊं के पहले राजवंश कत्‍यूर के किसी वंशज को लेकर यह कहानी है, उस समय कत्‍यूरों की राजधानी बैराठ वर्तमान चौखुटिया थी। जनश्रुतियों के अनुसार बैराठ में तब राजा दुलाशाह शासन करते थे, उनकी कोई संतान नहीं थी, इसके लिए उन्‍होंने कई मनौतियां मनाई। अन्‍त में उन्‍हें किसी ने बताया कि वह बागनाथ (बागेश्वर) में शिव की अराधना करे तो उन्‍हें संतान की प्राप्‍ति हो सकती है। वह बागनाथ के मंदिर गये वहां उनकी मुलाकात भोट के व्‍यापारी सुनपत शौका और उसकी पत्‍नी गांगुली से हुई, वह भी संतान की चाह में वहां आये थे। दोनों ने आपस में समझौता किया कि यदि संतानें लड्का और लड्की हुई तो उनकी आपस में शादी कर देंगें। ऐसा ही हुआ भगवान बागनाथ की कृपा से बैराठ के राजा का पुत्र हुआ, उसका नाम मालूशाही रखा गया। सुनपत शौका के घर में लडकी हुई, उसका नाम राजुला रखा गया। समय बीतता गया, जहां बैराठ में मालू बचपन से जवानी में कदम रखने लगा वहीं भोट में राजुला का सौन्‍दर्य लोगों में चर्चा का विषय बन गया। वह जिधर भी निकलती उसका लावण्‍य सबको अपनी ओर खींचता था।

पुत्र जन्म के बाद राजा दोलूशाही ने ज्योतिषी को बुलाया और बच्चे के भाग्य पर विचार करने को कहा। ज्योतिषी ने बताया कि “हे राजा! तेरा पुत्र बहुरंगी है, लेकिन इसकी अल्प मृत्यु का योग है, इसका निवारण करने के लिये जन्म के पांचवे दिन इसका ब्याह किसी नौरंगी कन्या से करना होगा।” राजा ने अपने पुरोहित को शौका देश भेजा और उसकी कन्या राजुला से ब्याह करने की बात की, सुनपति तैयार हो गये और खुशी-खुशी अपनी नवजात पुत्री राजुला का प्रतीकात्मक विवाह मालूशाही के साथ कर दिया। लेकिन विधि का विधान कुछ और था, इसी बीच राजा दोलूशाही की मृत्यु हो गई। इस अवसर का फायदा दरबारियों ने उठाया और यह प्रचार कर दिया कि जो बालिका मंगनी के बाद अपने ससुर को खा गई, अगर वह इस राज्य में आयेगी तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिये मालूशाही से यह बात गुप्त रखी जाये।

धीरे-धीरे दोनों जवान होने लगे….राजुला जब युवा हो गई तो सुनपति शौका को लगा कि मैंने इस लड़की को रंगीली वैराट में ब्याहने का वचन राजा दोलूशाही को दिया था, लेकिन वहां से कोई खबर नहीं है, यही सोचकर वह चिंतित रहने लगा।
एक दिन राजुला ने अपनी मां से पूछा कि

” मां दिशाओं में कौन दिशा प्यारी?
पेड़ों में कौन पेड़ बड़ा, गंगाओं में कौन गंगा?
देवों में कौन देव? राजाओं में कौन राजा और देशों में कौन देश?”

उसकी मां ने उत्तर दिया ” दिशाओं में प्यारी पूर्व दिशा, जो नवखंड़ी पृथ्वी को प्रकाशित करती है, पेड़ों में पीपल सबसे बड़ा, क्योंकि उसमें देवता वास करते हैं। गंगाओं में सबसे बड़ी भागीरथी, जो सबके पाप धोती है। देवताओं में सबसे बड़े महादेव, जो आशुतोष हैं। राजाओं में राजा है राजा रंगीला मालूशाही और देशों में देश है रंगीली वैराट”

तब राजुला धीमे से मुस्कुराई और उसने अपनी मां से कहा कि ” हे मां! मेरा ब्याह रंगीले वैराट में ही करना। इसी बीच हूण देश का राजा विक्खीपाल सुनपति शौक के यहां आया और उसने अपने लिये राजुला का हाथ मांगा और सुनपति को धमकाया कि अगर तुमने अपनी कन्या का विवाह मुझसे नहीं किया तो हम तुम्हारे देश को उजाड़ देंगे। इस बीच में मालूशाही ने सपने में राजुला को देखा और उसके रुप को देखकर मोहित हो गया और उसने सपने में ही राजुला को वचन दिया कि मैं एक दिन तुम्हें ब्याह कर ले जाऊंगा। यही सपना राजुला को भी हुआ, एक ओर मालूशाही का वचन और दूसरी ओर हूण राजा विखीपाल की धमकी, इस सब से व्यथित होकर राजुला ने निश्च्य किया कि वह स्व्यं वैराट देश जायेगी और मालूशाही से मिलेगी। उसने अपनी मां से वैराट का रास्ता पूछा, लेकिन उसकी मां ने कहा कि बेटी तुझे तो हूण देश जाना है, वैराट के रास्ते से तुझे क्या मतलब। तो रात में चुपचाप एक हीरे की अंगूठी लेकर राजुला रंगीली वैराट की ओर चल पड़ी।

वह पहाड़ों को पारकर मुनस्यारी और फिर बागेश्वर पहुंची, वहां से उसे कफू पक्षी ने वैराट का रास्ता दिखाया। लेकिन इस बीच जब मालूशाही ने शौका देश जाकर राजुला को ब्याह कर लाने की बात की तो उसकी मां ने पहले बहुत समझाया, उसने खाना-पीना और अपनी रानियों से बात करना भी बंद कर दिया। लेकिन जब वह नहीं माना तो उसे बारह वर्षी निद्रा जड़ी सुंघा दी गई, जिससे वह गहरी निद्रा में सो गया। इसी दौरान राजुला मालूशाही के पास पहुंची और उसने मालूशाही को उठाने की काफी कोशिश की, लेकिन वह तो जड़ी के वश में था, सो नहीं उठ पाया, निराश होकर राजुला ने उसके हाथ में साथ लाई हीरे की अंगूठी पहना दी और एक पत्र उसके सिरहाने में रख दिया और रोते-रोते अपने देश लौट गई। सब सामान्य हो जाने पर मालूशाही की निद्रा खोल दी गई, जैसे ही मालू होश में आया उसने अपने हाथ में राजुला की पहनाई अंगूठी देखी तो उसे सब याद आया और उसे वह पत्र भी दिखाई दिया जिसमें लिखा था कि ” हे मालू मैं तो तेरे पास आई थी, लेकिन तू तो निद्रा के वश में था, अगर तूने अपनी मां का दूध पिया है तो मुझे लेने हूण देश आना, क्योंकि मेरे पिता अब मुझे वहीं ब्याह रहे हैं।” यह सब देखकर राजा मालू अपना सिर पीटने लगे, अचानक उन्हें ध्यान आया कि अब मुझे गुरु गोरखनाथ की शरण में जाना चाहिये, तो मालू गोरखनाथ जी के पास चले आये।

गुरु गोरखनाथ जी धूनी रमाये बैठे थे, राजा मालू ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि मुझे मेरी राजुला से मिला दो, मगर गुरु जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसके बाद मालू ने अपना मुकुट और राजसी कपड़े नदी में बहा दिये और धूनी की राख को शरीर में मलकर एक सफेद धोती पहन कर गुरु जी के सामने गया और कहा कि हे गुरु गोरखनाथ जी, मुझे राजुला चाहिये, आप यह बता दो कि मुझे वह कैसे मिलेगी, अगर आप नहीं बताओगे तो मैं यही पर विषपान करके अपनी जान दे दूंगा। तब बाबा ने आंखे खोली और मालू को समझाया कि जाकर अपना राजपाट सम्भाल और रानियों के साथ रह। उन्होंने यह भी कहा कि देख मालूशाही हम तेरी डोली सजायेंगे और उसमें एक लडकी को बिठा देंगे और उसका नाम रखेंगे, राजुला। लेकिन मालू नहीं माना, उसने कहा कि गुरु यह तो आप कर दोगे लेकिन मेरी राजुला के जैसे नख-शिख कहां से लायेंगे? तो गुरु जी ने उसे दीक्षा दी और बोक्साड़ी विद्या सिखाई, साथ ही तंत्र-मंत्र भी दिये ताकि हूण और शौका देश का विष उसे न लग सके।

तब मालू के कान छेदे गये और सिर मूड़ा गया, गुरु ने कहा, जा मालू पहले अपनी मां से भिक्षा लेकर आ और महल में भिक्षा में खाना खाकर आ। तब मालू सीधे अपने महल पहुंचा और भिक्षा और खाना मांगा, रानी ने उसे देखकर कहा कि हे जोगी तू तो मेरा मालू जैसा दिखता है, मालू ने उत्तर दिया कि मैं तेरा मालू नहीं एक जोगी हूं, मुझे खान दे। रानी ने उसे खाना दिया तो मालू ने पांच ग्रास बनाये, पहला ग्रास गाय के नाम रखा, दूसरा बिल्ली को दिया, तीसरा अग्नि के नाम छोड़ा, चौथा ग्रास कुत्ते को दिया और पांचवा ग्रास खुद खाया। तो रानी धर्मा समझ गई कि ये मेरा पुत्र मालू ही है, क्योंकि वह भी पंचग्रासी था। इस पर रानी ने मालू से कहा कि बेटा तू क्यों जोगी बन गया, राज पाट छोड़कर? तो मालू ने कहा-मां तू इतनी आतुर क्यों हो रही है, मैं जल्दी ही राजुला को लेकर आ जाऊंगा, मुझे हूणियों के देश जाना है, अपनी राजुला को लाने। रानी धर्मा ने उसे बहुत समझाया, लेकिन मालू फिर भी नहीं माना, तो रानी ने उसके साथ अपने कुछ सैनिक भी भेज दिये।

मालूशाही जोगी के वेश में घूमता हुआ हूण देश पहुंचा, उस देश में विष की बावडियां थी, उनका पानी पीकर सभी अचेत हो गये, तभी विष की अधिष्ठात्री विषला ने मालू को अचेत देखा तो, उसे उस पर दया आ गई और उसका विष निकाल दिया। मालू घूमते-घूमते राजुला के महल पहुंचा, वहां बड़ी चहल-पहल थी, क्योंकि विक्खी पाल राजुला को ब्याह कर लाया था। मालू ने अलख लगाई और बोला ’दे माई भिक्षा!’ तो इठलाती और गहनों से लदी राजुला सोने के थाल में भिक्षा लेकर आई और बोली ’ले जोगी भिक्षा’ पर जोगी उसे देखता रह गया, उसे अपने सपनों में आई राजुला को साक्षात देखा तो सुध-बुध ही भूल गया। जोगी ने कहा- अरे रानी तू तो बड़ी भाग्यवती है, यहां कहां से आ गई? राजुला ने कहा कि जोगी बता मेरी हाथ की रेखायें क्या कहती हैं, तो जोगी ने कहा कि ’मैं बिना नाम-ग्राम के हाथ नहीं देखता’ तो राजुला ने कहा कि ’मैं सुनपति शौका की लड़की राजुला हूं, अब बता जोगी, मेरा भाग क्या है’ तो जोगी ने प्यार से उसका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा ’चेली तेरा भाग कैसा फूटा, तेरे भाग में तो रंगीली वैराट का मालूशाही था’। तो राजुला ने रोते हुये कहा कि ’हे जोगी, मेरे मां-बाप ने तो मुझे विक्खी पाल से ब्याह दिया, गोठ की बकरी की तरह हूण देश भेज दिया’। तो मालूशाही अपना जोगी वेश उतार कर कहता है कि ’ मैंने तेरे लिये ही जोगी वेश लिया है, मैं तुझे यहां से छुड़ा कर ले जाऊंगा’।

तब राजुला ने विक्खी पाल को बुलाया और कहा कि ये जोगी बड़ा काम का है और बहुत विद्यायें जानता है, यह हमारे काम आयेगा। तो विक्खीपाल मान जाता है, लेकिन जोगी के मुख पर राजा सा प्रताप देखकर उसे शक तो हो ही जाता है। उसने मालू को अपने महल में तो रख लिया, लेकिन उसकी टोह वह लेता रहा। राजुला मालु से छुप-छुप कर मिलती रही तो विक्खीपाल को पता चल गया कि यह तो वैराट का राजा मालूशाही है, तो उसने उसे मारने क षडयंत्र किया और खीर बनवाई, जिसमें उसने जहर डाल दिया और मालू को खाने पर आमंत्रित किया और उसे खीर खाने को कहा। खीर खाते ही मालू मर गया। उसकी यह हालत देखकर राजुला भी अचेत हो गई। उसी रात मालू की मां को सपना हुआ जिसमें मालू ने बताया कि मैं हूण देश में मर गया हूं। तो उसकी माता ने उसे लिवाने के लिये मालू के मामा मृत्यु सिंह (जो कि गढ़वाल की किसी गढ़ी के राजा थे) को सिदुवा-विदुवा रमौल और बाबा गोरखनाथ के साथ हून देश भेजा।

सिदुवा-विदुवा रमोल के साथ मालू के मामा मृत्यु सिंह हूण देश पहुंचे, बोक्साड़ी विद्या का प्रयोग कर उन्होंने मालू को जीवित कर दिया और मालू ने महल में जाकर राजुला को भी जगाया और फिर इसके सैनिको ने हूणियों को काट डाला और राजा विक्खी पाल भी मारा गया। तब मालू ने वैराट संदेशा भिजवाया कि नगर को सजाओ मैं राजुला को रानी बनाकर ला रहा हूं। मालूशाही बारात लेकर वैराट पहुंचा जहां पर उसने धूमधाम से शादी की। तब राजुला ने कहा कि ’मैंने पहले ही कहा था कि मैं नौरंगी राजुला हूं और जो दस रंग का होगा मैं उसी से शादी करुंगी। आज मालू तुमने मेरी लाज रखी, तुम मेरे जन्म-जन्म के साथी हो। अब दोनों साथ-साथ, खुशी-खुशी रहने लगे और प्रजा की सेवा करने लगे। यह कहानी भी उनके अजर-अमर प्रेम की दास्तान बन इतिहास में जड़ गई कि किस प्रकार एक राजा सामान्य सी शौके की कन्या के लिये राज-पाट छोड़्कर जोगी का भेष बनाकर वन-वन भटका।

यह कहानी शताब्दियों पुरानी है, पर पीड़ी दर पीड़ी यह कहानी आगे बड़ रही है, और सच ही कहा सच्चा प्यार कभी मरता नही है, हमेशा के लिए अमर हो जाता है।

सभार : मेरा पहाड़ (Mera Pahad)

शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

कुमाऊं के देवी-देवता

उत्तर में उत्तुंग हिमाच्छादित नन्दादेवी, नन्दाकोट, त्रिशूल की सुरम्य पर्वत मालाएं हैं। पूर्व में पशुपति नाथ का सुन्दर नेपाल है। पश्चिम में तीर्थों का लीडर भव्य गढ़वाल है। दक्षिण में टनकपुर, हल्द्वानी, रामनगर की (पीलीभीत) जरखेज तराई की धरती है। यही उत्तराखंड की एक कमिश्नरी है कुमाऊं। इसकी वादियों में बहती है कलकल-छलछल करती तीव्र गति में बहुत-सी नदियां। यहां 50 हजार से पांच लाख साल पुराने शैलाश्रयों के आदिम मानव सभ्यता के अवशेष इतिहासकार बताते हैं। पं. बद्रीदत्त पांडे जी ने ई.पू. 2500 से 700वी ई. तक कत्यूरों का राज बताया है। आदि शंकराचार्च ने सातवीं शताब्दी में सूर्यवंशी राज्य का अभिषेक किया था। इससे पहले यहां बौद्ध धर्म था। वेे बाद में कत्यूरी कहलाए। राहुल सांकृत्यायन 850 से 1060 तक कत्यूरी राज मानते हैं। चंदों ने 1200 से 1700 तक राज किया। 1729-43 तक रूहेलों के निरंतर आक्रमणों से कुमाऊं त्रस्त था। 1790 से 1815 तक गोरखा कुराज रहा। उसके बाद अंग्रेजी राज में मिला लिया गया था। 1857 के विद्रोह के कई सेनानी यहां पहुंचे थे। जंगे आजादी की खूब हलचल थी। कुमाऊं नाम की कई कथाएं हैं। कूर्माकार होना ही कुमाऊं माना जाता हैं। स्कंध पुराण में इसका वर्णन है। कवि चन्दवरदाई के पृथ्वीराज रासो में लिखा है—


‘सवलष्प उत्तर सयल, कुमऊं गढ़ दुरंग।
राजतराज कुमोदमणि हय गय द्रिब्ब अभंग।’

कुमाऊंनी संस्कृत, अप्रभंश, दरद-खास-पैशाची, सौर सेनी से बनी, तथा इसमें नेपाली, गढ़वाली, बंगला शब्दों की भरमार है। 1105 से कुमाऊंनी का रूप-लय ढलने लगा था। कुमाऊंनी बोलने वालों की संख्या 15 लाख बताई गयी है। कुमाऊं की अपनी संस्कृति, अपनी बोली, अपनी एक विशिष्ट जीवनचर्या है, पहचान है। वैदिक धर्म ही कालांतर में हिंदू धर्म बना। प्रारम्भ से ही हिंदू धर्म में बहु-ईश्वरवाद है। कुमाऊं में हिंदू देवता तो हैं ही साथ में स्थानीय देवी-देवता भी हैं जिनमें अधिकतर जागर प्रधान हैं। यह उनके वीरों, पूर्वजों के स्मरण की एक प्रणाली है। इन पर गहन आस्था है, साथ में एक सामाजिक न्याय प्रणाली और संकट मोचक देव-देवी बन गए हैं। कस्बों में बहुधर्मी समाज है, जबकि गांवों में ब्राह्मण-राजपूत प्रधान हैं। तीसरे स्थान पर दलित हैं।

ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर देवी के थान (मंदिर) हैं। नदी-नालों के किनारे शिवालय हैं। सत्य नारायण कथा के शंख-घंटियां सभी घरों में बजती हैं। पार्वती, भगवती, (देवी) सरस्वती, लक्ष्मी पूजन आम हैं। ब्रह्मा-विष्णु, महेश देव सबके हैं। कुमाऊं के स्थानीय देवताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। वे अधिकतर जागर प्रधान हैं। एक होता है जगरिया। वह एक लयबद्ध कथा से बाजों द्वारा डंगरियां (वह व्यक्ति जिसके शरीर में देव प्रविष्ठï होता है) नचाता है। वह पूजा लेता है। न्याय देता है। खुश होता है। संरक्षण करता है। ये हैं कुमाऊं के देवी-देवता।

भूमिया : हर गांव में भूमिया का मंदिर है। रबी-खरीफ की फसल कटने के बाद भूमिया देवता पूजे जाते हैं। सामूहिक शेयर से पूवे पकाए जाते हैं।
देवी : दुर्गा, भगवती कई नामों के मंदिर हैं। उनमें भंडारे होते हैं। कत्यूरी वंश की ऐतिहासिक वीरांगना जियारानी रानीबाग चित्रशिला पर हर मकर संक्रांति (उत्तरायणी) पर जागरों द्वारा पूजी जाती है।

गोलू : राजा झालराई की सात रानियां होने पर भी वह नि:संतान थे। संतान प्राप्ति की आस में राजा द्वारा काशी के सिद्ध बाबा से भैरव यज्ञ करवाया और सपने में उन्हें गौर भैरव ने दर्शन दिए और कहा राजन अब आप आठवां विवाह करो में उसी रानी के गर्भ से आपके पुत्र रूप में जन्म लूंगा। इस प्रकार राजा ने आठवां विवाह कालिंका से रचाया। मगर इससे सातों रानियों में कालिंका को लेकर ईष्या उत्पन्न हो गई। कालिंका का गर्भवती होना सातों रानियों के लिए असहनीय हो गया। तब तीनों रानियों ने ईष्या के चलते षडयंत्र रचते हुए कालिंका को बताया कि ग्रहों के प्रकोप से बचने के लिए माता से पैदा होने वाले शिशु की सूरत सात दिनों तक नहीं देखनी पड़ेगी। यह सुनकर वंश की परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए कालिंका तैयार हो गई। कालिंका को कोठरी में कर दिया गया। प्रसव पीड़ा होते ही उसकी आंखों में काली पट्टी बांध दी गई। सातों रानियों ने नवजात शिशु को हटाकर उसकी जगह सिलबट्टंा रख दिया गया। फिर उसे बताया कि उसने सिलबट्टे को जन्म दिया है। सातों रानियां नवजात शिशु को मारने की व्यवस्था करने लगी। सर्वप्रथम उन्होंने बालक को गौशाला में फेंककर यह सोचा की बालक जानवरों के पैर तले कुचलकर मर जाएगा। मगर देखा कि गाय घुटने टेक कर शिशु के मुंह में अपना थन डाले हुए दूध पिला रही है। अनेक कोशिशों के बाद भी बालक नहीं मरा तो रानियों ने उसे संदूक में डालकर काली नदी में फेंक दिया। मगर ईश्वरी चमत्कार से संदूक तैरता हुआ गौरी घाट तक पहुंच गया। जहां वह भाना नामक मछुवारे के जाल में फंस गया। संदूक में मिले बालक को लेकर नि:संतान मछुवारा अत्यन्त प्रसन्न होकर उसे घर ले गया। गौरी घाट में मिलने के कारण उसने बालक का नाम गोरिया रख दिया। बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो उसने मछुवारे से घोड़ा लेने की जिद की। गरीब मछुवारे के लिए घोड़ा खरीद पाना मुश्किल था, उसने बालक की जिद पर उसे लकड़ी का घोड़ा बनाकर दे दिया। बालक घोड़ा पाकर अति प्रसन्न हुआ। बालक जब घोड़े पर बैठा तो वह घोड़ा सरपट दौड़ने लगा। यह दृश्य देख गांव वाले चकित रह गए। एक दिन काठ के घोड़े पर चढकर वह धोली धूमाकोट नामक स्थान पर जा पहुंचा, जहां सातों रानियां राजघाट से पानी भर रही थीं। वह रानियों से बोला पहले उसका घोड़ा पानी पियेगा, बाद में आप लोग पानी भरना। यह सुनकर रानियां हंसने लगी और बोली अरे मूर्ख जा बेकार की बातें मतकर कहीं कांठ का घोड़ा भी पानी पीता है। बालक बोला जब स्त्री के गर्भ से सिलबट्टा पैदा हो सकता है तो कांठ का घोड़ा पानी क्यों नहीं पी सकता। यह सुनकर सातों रानियां घबरा गई। सातों रानियों ने यह बात राजा से कहीं। राजा द्वारा बालक को बुलाकर सच्चाई जानना चाही तो बालक ने सातों रानियों द्वारा उनकी माता कालिंका के साथ रचे गये षडयंत्र की कहानी सुनायी। तब राजा झालराई ने उस बालक से अपना पुत्र होने का प्रमाण मागा। इस पर बालक गोरिया ने कहा कि यदि मैं माता कालिंका का पुत्र हूं तो इसी पल मेरे माता के वक्ष से दूध की धारा निकलकर मेरे मुंह में चली जाएगी और ऐसा ही हुआ। राजा ने बालक को गले लगा लिया और राजपाठ सौंप दिया। इसके बाद वह राजा बनकर जगह-जगह न्याय सभाएं लगाकर प्रजा को न्याय दिलाते रहे। न्याय देवता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने के बाद वह अलोप हो गए।


गोलज्यू का मूल स्थान चम्पावत माना जाता है। स्थानीय जनश्रुति के अनुसार उन्हे घोड़ाखाल में स्थापित करने का श्रेय महरागांव की एक महिला को माना जाता है। यह महिला वर्षो पूर्व अपने परिजनों द्वारा सतायी जाती रही। उसने चम्पावत अपने मायके जाकर गोलज्यू से न्याय हेतु साथ चलने की प्रार्थना की। गोलज्यू उसके साथ यहां पहुंचे। मान्यता है कि सच्चे मन से मनौती मांगने जो भी घोड़ाखाल पहुंचते हैं गोलज्यू उसकी मनौती पूर्ण करते हैं। न्याय के देवता के रूप पूजे जाने वाले गोलज्यू पर आस्था रखने वाले उनके अनुयायी न्याय की आस लेकर मंदिर में अर्जियां टांग जाते हैं। जिसका प्रमाण मंदिर में टंगी हजारों अर्जियां हैं। न्याय की प्राप्ति होने पर वह घंटियां चढ़ाना नहीं भूलते। जिसके चलते घोड़ाखाल का गोलू मंदिर पर्यटकों के बीच घंटियों वाले मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हो चला है।

गणनाथ : डोटी के राजा भवैचन्द का पुत्र था। नाथ पंथ में दीक्षित था। उसने भाना के घर अलख जगाई। भाना गर्भवती हुई। जोशियों ने रंगेहाथ पकड़ा, गणनाथ के साथ गर्भवती भाना की हत्या कर दी। तीसरे दिन जीवित होकर झकरूआ समेत गणनाथ, भाना, बरमीबाला ने जोशी खोला में उत्पात मचा दिया। क्षमा याचना पर जोशियों के घर के ऊपर पूजा पाने लगा।

भोलनाथ : भोलनाथ राजा उदयचन्द के बड़े बेटे थे। निर्वासित थे। छोटे पुत्र ज्ञानचंद का राज्याभिषेक किया। एक बार भोलनाथ साधू वेश में अल्मोड़ा में पोखर किनारे ठहरे। ज्ञानचंद को जानकारी मिली। उसने गद्दी जाने के भय से छल से भोलनाथ और गर्भवती स्त्री की हत्या करवा दी। वे भूत बनकर सताने लगे। उनकी पूजा हुई। तब शांति मिली।

मलैनाथ : डोटी के आभालिंग का पुत्र था। मलैनाथ के फाग गए जाते है। जैसा की बंगा, अस्कोट, देवचूला, पंचमई, डिडीहाट में मलैनाथ के मंदिर हैं।

हरू : परोपकारी देवता हैं। सुख, संपदा, धन धान्य सूचक हैं। हरू काली नाग देवी का ज्येष्ठ पुत्र था। चम्पावत का राजा बना। एक दिन राज त्याग साधू हो गया। छिपलाकोट की रानी को वरण करने गया, कैद हो गया। छोटे भाई सैम और भांजा ग्वेल ने मुक्त कराया। भाटकोट आदि में मंदिर हैं।

सैम : कालीनारा के हरू का छोटा भाई था। हरू की भांति सुख-समृद्धि के देव हैं। हरू सैम के फाग गए जाते हैं। ग्वेल धूनी के जागरों में पूजा जाता है।

कलबिष्ट : केशव कोट्यूडी का बेटा था। पाटिया गांव कोट्यूडा कोट में रहता था। राजपूत था। बिनसर में गायें चराता था। छलपूर्वक लखडय़ोड़ी ने मार डाला। लोगों की मदद करता है। बिनसर, पाली पछाऊं में पूजा जाता है।

चौमू, बधाण, नौलदानू : ये पशुओं के देवता हैं। चौमू रियुणी, द्वारसों में पूजा जाता है। बधाण गाय भैसों के जनने के 5वें, 7वें या 11वें दिन पूजा जाता है। उसके बाद दूध देवताओं में चढ़ाने काबिल होता है। नौलदानू का किसी दुधैल पेड़ की जड़ में वास माना जाता है।
भागलिंग, हुंस्कर, बालचिन, कालचिन, छुरमल, बजैण : डोटी में पूजनीय हैं। नेपाल से आया देवता है। बालचिन हुंस्कर का बेटा है। डूंगरा, डांगटी, तामाकोट, जोहार में पूजा जाता है। कालचिन कालिंग का पुत्र था। छुरमल कालचिन का बेटा था। बजैण भनार में हैं।

नारसिंह : ये पैराणिक कथा नृसिंह हैं। स्थानीय देव के रूप में भी पूजा जाता है। आदि व्याधि, संकट दूर करने वाला जोगी देवता है। जागर में आता है। पत्र पुष्प से प्रसन्न हो जाता है।
कलुवा : हलराय का पुत्र था। इसकी उत्पत्ति सिलबट्टे से बताई जाती है। गड्देवी के जागर में कलुवा भी आता है। थान में खिचड़ी पकती है। मुर्गे की बलि चढ़ती है।
सिदुवा-विदुवा : ये वीर और तांत्रिक थे। गड़देवी के धरम-भाई माने जाते हैं। देवी आपदाओं से रक्षा करते हैं।
गढ़देवी : गाड़-गधेरों में वास करने वाले महाशक्ति गड़देवी काली मां दुर्गा का स्थानीय रूप है। गड़देवी के कानों बात डाली जाती है। उसके साथ परियां आचरियां रहती हैं।

नन्दा देवी :
नंदा देवी समूचे कुमाऊं मंडल,गढ़वाल मंडल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं । अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।


बारह काली हाटकाली : कालिका के रूप में देवीधुरा में पूजी जाती हैं। हाट काली गंगोलीहाट में। कोट की कोटगाड़ी-थल के निकट मंदिर हैं। यहा प्राय: बलि चढ़ती है।
एड़ी : कोई राजपूत मर कर भूत बना। उसके साथ बकरी, परियां, हाथी, कुत्ते चलते हैं। शिखरों में रहते हैं। पांव पीछे को होते हैं।
मसाण, खबीस और रूनिया : ये श्मशान के भूत हैं। अतृप्त आत्माएं हैं। कमजोर व्यक्तियों पर चिपटते हैं। बलि द्वारा संतुष्ट होते हैं। पीर फकीर के रूप में भी आने लगे हैं।
आजकल जागरी का काम बड़ा महंगा हो गया है। अधिकतर देवी-देवता शोक गाथाओं पर आधारित हैं। जिनके साथ अन्याय, अत्याचार हुआ, वे स्थानीय देव बन गए। कालान्तर में न्याय, सुख, समृद्धि, शांति, खुशी के देवी-देवता बन गए। चप्पे-चप्पे पर देवों का वास है। इसलिए सारे उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है।



अन्य : नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा में भव्य पुराने चर्च हैं जो अंग्रेजों ने निर्मित किए थे। ईसाई इसमें प्रार्थना करते हैं। रामनगर, हल्द्वानी, टनकपुर, रानीखेत, नैनीताल, अल्मोड़ा में मस्जिदें हैं। यद्यपि ईसाई और मुसलमान बहुत कम हैं। सारे देवी-देवताओं का जमावड़ा उत्तराखंड में है।

‘हमुंकै बड़ी प्यारी लागी, कुर्माचलै भूमि।
दुनी है बड़ी न्यारी लागी कुर्माचलै भूमि॥’

सभार : गोविन्दसिंह असिवाल

शनिवार, फ़रवरी 05, 2011

बाँस की धुनाई - तनाव से मुक्ति

नमस्कार मित्रो,
आज आफिस मे बाँस से चीक-चीक हो गई, सोचा आज दो दो हाथ हो हि जाये पर कुछ सोच कर रुक गये। हमारे मित्र ने कहा आफिस के बाहर चलते है एक एक सुटा मारते है और दो चार चमाकोभादर टाइप की गाली देते है। तनाव से मुक्ति तो नही पर हा कुछ राहत जरुर मिलेगी। हम सोचे भईया यहा रहे तो पारा ओर बढ सकता है, जो कि सेहत और मेरे लिये सुखदाइ तो होगा नही भलाई इसी मे है कि निकल ले यहा से और वेसे भी ट्राइ करने मे क्या जाता है। चल दिये अपने गंतव्य कि दिशा मे । सुटा मार लिया चमाकोभादर tटाइप की गाली भी दे दी पर तनाव से मुक्ति नही मिली। आ गये नरक रुपी कार्यस्थल कि ओर । इन्ट्नेट मे सुझाव कि तलाश मे मसगुल हो गये । कुछ ये कह रहे थे कुछ वो करने को कह रहे। कुछ ने ओनलाइन गेम खेलने कि सलाह दि तो कुछ ने योग द्वारा तनाव से मुक्ति की । सोचा योग तो हमसे हो ने से रहा ओनलाइन गेम ही खेल लिये जाये । दो चार गेम पे हाथ मारा। आप भी खेल सकते है।

यहा किलक करे

यहा किलक करे


तनाव कुछ कम हुआ पर पुर्णतया समाप्त नही हुआ। फिर कुछ नया तलाशने लगे।

फिर ये ट्राइ किया ,

कुछ राहत मिली पर ये तनाव जाने का नाम ही नही ले रहा था। फिर कुछ नया तलाशने लगे। अंत मे सफलता मिल हि गई, मिलती भी क्यो ना, इतनी मक्कत जो कर रहे थे।

आप भी ट्राइ कर सकते है। यहा किलक करे और बाँस कि चीक-चीक सुन कर होने वाले तनाव से मुक्ति पाये।

थोडा इंतजार करना पड सकता है, सफलता पाने के लिये क्योकि भइया अभी 2G मे ही जी रहे है।

नोट : अगर आप पुर्णतया संन्तुष्ट हुये हो तो अपनी आन्न्दमई टिप्प्णी से जरुर नवाजे

रविवार, जनवरी 30, 2011

बट वी लव गाँधी...!!


सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट 'फेसबुक' पर भारतीय युवाओं ने 'आई हेट गाँधी' ग्रुप बनाए। पंजाब प्रांत के चार युवाओं ने आई हेट गाँधी नामक समूह बनाया है। पंजाब के राहुल देवगन इस समूह के क्रिएटर हैं और इसमें एक युवती भी है। दुखद आश्चर्य की बात कि वेबसाइट पर लगभग 700 भारतीय युवा फ्रेंडलिस्ट में हैं। यहाँ गाँधीजी के बारे में अपमानजनक टिप्पणियाँ डाली गई है।

इन युवाओं का कहना है कि गाँधीजी अँग्रेजों के सहायक थे, इस कारण हमने इस समूह का निर्माण किया है। इस समूह ने गाँधीजी के कई अशोभनीय फोटो भी इस वेबसाइट पर अपलोड कर दिए हैं। लखनऊ के एक आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने इस समूह के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी। पंजाब का राहुल देवगन मुख्य आरोपी है। इसके अलावा अमेरिका स्थित फेसबुक के कार्यालय को भी इसमें नामजद किया गया है।

ये भारतीय युवा अपने अधकचरे ज्ञान की यह पोटली अपने सीमित वर्ग तक ही खोलते तो शायद क्षम्य भी होता। क्योंकि इतिहास गवाह है कि हर महान व्यक्तित्व को कतिपय कुंठित लोगों ने नीचा दिखाने की चेष्टा की है। यह बात और है कि इससे उस शख्सियत का कद तो बौना होने से रहा ऐसी बेवकूफाना हरकते हँसी का विषय अवश्य बनी है। सार्वजनिक रूप से अपने मानसिक दिवालिया होने का सबूत इस तरह देने से पहले बेहतर होता कि वे अपने अतीत को गंभीरतापूर्वक खंगाल लेते। और अगर अतीत तक पहुँचना उनके लिए मुश्किल है तो डॉमिनिक लेपियर की 'फ्रीडम इन द मिडनाइट' ही एक बार पढ़ ली होती।

लेकिन यह अपेक्षा हम किससे कर रहे हैं? उनसे जिनके लिए हर पुराने को कोसना ही आधुनिकता की निशानी है? उनसे जिनके लिए राष्ट्र के महान संत को गाली देना फैशन स्टेटस है। गाँधी को कितना जानते हैं वे? और उन्हें कोसने का अधिकार इन युवाओं ने हासिल किस आधार पर किया? देश के लिए अपने घर को खाली और खत्म करना क्या होता हैं, क्या यह सोचना भी उनके लिए संभव है जबकि बापू ने अप्रत्यक्षत: समूचे परिवार को देश पर न्योछावर कर दिया? अपने ही बच्चों को अपने नेता होने का फायदा ना पहुँचाने के गाँधी के संकल्प को क्या यह अज्ञान पीढ़ी समझ सकेगी जो येनकेन प्रकारेण खुद अपने लिए नेताओं की 'अप्रोच' तलाशती है? काश, एक अँगुली उन पर उठाने से पहले अपनी तरफ मुड़ी तीन अँगुलियाँ भी देख ली होती।

गाँधी उन तक इसलिए भी नहीं पहुँच सके क्योंकि उन्होंने गाँधी को कथनी और करनी की दृ‍ष्टि से एक जुबान रहते स्वयं नहीं देखा। गाँधीवाद उन तक उन भ्रष्ट नेताओं के माध्यम से पहुँचा जो मात्र सफेद टोपी धारण कर कर्मों से गाँधी से कोसों दूर थे। वे युवा गाँधी जिनके लिए एमजी रोड़ है, नोट पर छपी तस्वीर है, घटिया एसएमएस है, सस्ता चुटकुला है, खादी में मिलता डिस्काउंट है या फिर एक शर्मनाक प्रचलित मुहावरा कि 'मजबूरी का नाम...? भला कैसे जानेंगे कि उस राष्ट्रसंत ने अपनी हर छोटी से छोटी भूल की खुद को कठोरतम सजा दी है। क्या उन युवाओं के लिए यह सोच पाना भी संभव है कि जेल में तकिए के स्थान पर लकड़ी के पटिए को रखना कितना भीषण कष्टकारी है लेकिन गाँधी ने ऐसा बार-बार किया तब जब-जब देश के हित में कोई एक छोटी सी अनिवार्य भूमिका भी वे नहीं निभा सके। अपनी ही संतान के लिए जीवन भर उन्होंने अपराधी बनना स्वीकार किया बजाय देश के प्रति भूल से भी कोई अपराध करने के।

फ्रीडम इन द मिडनाइट में लेखक उन्हें बार-बार बुढ़ऊ कहता है पर यह शब्द भी संदर्भों में इसलिए बुरा नहीं लगता है क्योंकि वह उस दुर्बल से दिखने वाले प्राणी की ताकत को पहचान कर उसे अति आत्मीयतावश यह संबोधन देता है। वह उसे एक चमत्कारी इंसान मानता है कि अगर कोलकाता में अपने अनशन से उसने हजारों के जनसैलाब को नहीं रोका होता तो आज इतिहास का सबसे खूनी संघर्ष वही होता।

लेखक बार-बार मानता है कि यह चमत्कार सिर्फ और सिर्फ वहीं इंसान कर सकता था जिसकी जनता पर ऐसी अदभुत पकड़ थी। तन पर एक कपड़ा और हाथ में एक लाठी,बस यही तो चीजें तो थी उसकी ताकत। लेखक ने घोर आश्चर्य व्यक्त किया है कि आखिर ऐसा क्या था उस बूढ़े मनुष्य की वाणी में कि उग्रतम जनसमुदाय भी उसे सुनकर ऐसे शांत और कोमल हो जाता था मानों कोई तुफानी समंदर अचानक शांत हो गया हो।

पर 'फेसबुकी कल्चर' के अधकचरे-अल्पज्ञानी भला उस दौर की कल्पना भी कैसे करें जबकि उनके लिए गाँधी सिर्फ एक शब्द है जिस पर भरपूर विकार निकाले जा सकें। आई हेट गाँधी कहने वालों आपके मुकाबले में कई गुना युवा कह रहे हैं आई लव गाँधी क्योंकि वे गाँधी को जान रहे हैं, पहचान रहे हैं। आप क्या सोचते हैं?

सभार : वेब दुनिया- स्मृति जोशी