बुधवार, दिसंबर 07, 2011

फिल्म क्यों देखता हूँ

मै फिल्में क्यों देखता हूँ? मुझे अच्छा लगता है। अब आप पूछेगे क्यों अच्छा लगता है? अमा जैसे कि हम सभी लोग आक्सीजन, जल और हवा पर जीते हैं पर मन की खुराक कुछ और ही होती है। फिल्में मुझे भाती हैं। जब कभी मन खराब होता है तो यह मुझे गुदगुदाकर हंसा देती है, जब अकेला होता हूँ तो मेरा साथ देती हैं, जब मित्रो के साथ होता हूँ तो मजा दूगना कर देती है । जब से अपना आशियाना बदला है तब से शायद ही कोई फिल्म छोडी हो । आजकल तो हर नई फिल्म रिलीज होते ही एक या दो दिन में देख लेता हूँ । धन्यवाद देना चाहूँगा अपने मित्रों अजय, विकास और नितिन को जो मुझे कोई फिल्म छोड़ने नही देते है ।

मै अक्सर यही सोचाता हूँ कि मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं पर सचाई यही लगती है कि स्थितिजन्य कारणों से कोई फिल्म पसंद आती है और कोई नहीं, कई बार उद्देश्यपूर्ण सिनेमा पसंद आ जाता है तो कई बार बेसिरपैर का धमाल भा जाता है। शायद इसीलिये द डर्टी पिक्चर’ और 'राकस्टार' पसंद आई पर 'देशी-ब्वायज' नहीं, 'दमादम' अच्छी लगी पर 'रा-वन' नहीं।

फिल्में देखना बचपन से ही पसंद है। बचपन में मोहल्ले के कुछ बड़े लडके उस समय वि सी आर पर फिल्म दिखाया करते थे, वो भी चन्दा एकत्रित करके। हर घर से पाँच या दस रुपये लिए जाते थे। बड़े-बूढ़ों और स्त्रियों को एक धार्मिक फिल्म दीखा दी जाती थी और बाद में अपनी पसंद कि फिल्में देखी जाती थी । पूरी रात फिल्म देखते रहते। अगर निद भी आ रही होती तो मुँह दो लेते। उस समय वि सी आर के सबसे नज़दीक बैठने की होड़ होती थी । वि सी आर का किराया 80 रूपये और कैसेट का 20 रूपये प्रती रात्रि शुल्क होता था । माह में एक बार इस तरह कि व्यवस्था कर ही दी जाती थी । कुछ समय बाद वि सी आर कि जगह सी डि प्लेयर ने ले ली। तब दोस्तों के यहा सी डि प्लेयर किराये पर लाकर फिल्में देखा करते थे। अपने खास मित्र नितिन के यहा तो काफी फिल्में देखी और इन्जाय करी।

फिल्में मुझे हर रूप में पसंद आती हैं, चाहे फेटासी, प्राइम प्रधान, हास्य हो या यथार्थ के नज़दीक। आजकल की फिल्मों में खास यह बात अच्छी लगती है कि तकनीक बढ़िया हुई है ।

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