मंगलवार, सितंबर 04, 2007

“ बने रहो पगला, काम करेगा अगला ”

क्या आपने कभी गौर किया है कि किसी आफिस मे ज्यादा काम करने वाले को ही बास उसके काम के अलावा भी दूसरे काम क्यो पकडा देता है? क्यो वह शाम को 6:30 ( जो समय है उस दिन को बाय- बाय कहने का ) के बावजूद काम मे व्यस्त है? अगर बास उसे इतना हि भरोसेमंद समझता है तो क्यो उसको वेतन बढोतरी के समय रुलाया जाता है? जबकी उसके सहपाठी जो उस से कम या ना के बराबर काम करते है (क्योकि उन का ज्यादातर काम तो बेचारा वही करता है) मजे से आफिस सुख का आनंद ले रहे होते है, टेशंन फ्री होकर घूम रहे होते है, गप्पे लडा रहे होते है, हमउम्र के विपरित लिग वाले चोच लडा रहे होते है और वो बास के साथ झक छेत रहा होता है । इन सब सवालो का जबाब चाहिये तो आपको पगला कार्यसंस्कृति को विस्तार से समझना होगा। अब आप लोग कहेगे भइया ये होती क्या है? ये तो नरेन्द्र जी का हिन्दुस्तान दैनिक मे 17.08.07 को लिखा ये लेख पढ ले सबकुछ समझ मे आ जायेगा।

प्यार मे पागल होना रिस्की होता है । इसमे कामयाबी की संभावना कम होती है। लेकिन काम मे पागल होना शतप्रतिशत फलदायी होता है। पूरी सफलता की गारंटी । अपने आफिस मे आजमा कर देखिये। बडा साफ और सीधा फंडा है “ बने रहो पगला, काम करेगा अगला ” । कार्यसंस्कृति का यह सिद्धांत बडा सरल है। जो जितना काम करेगा, उससे उतना ही काम करवाया जाएगा। ‘ए’ अगर बहुत अच्छा काम करता है बास ‘ए’ को ही काम करने के लिये कहेगा।

‘ए’ भले ही लंच मिस कर चुका हो और उसके पेट मे चूहे दौड रहे हो, उस के कानो मे तो बास की ये बात ही रहेगी कि ‘खूब बढिया से रेड्डी करवा दो बेटा, एकदम चकाचक’। अब ‘ए’ चाह्कर भी आफिस मे ‘बी’ कि तरह बेपरवाह ‘इडियन आयड्ल’ का फाईनल नही देख पाएगा। ‘पगला’ एक कार्यसंस्कृति है जिसे ‘बी’ ने अपना लिया है और इसी के साथ उस ने आफिस मे टेशन फ्री कैसे रहे का बोध हासिल कर लिया है। विस्तार से जान ना है कि ‘पगला कार्यसंस्कृति’ है क्या, तो पूरा सूत्र समझना होगा। आगे कहानी मे हम ‘ए’ को अगला और ‘बी’ को ‘पगला’ कहेगे। एक दिन जब बास ने ‘अगले’ को एक एसाइन्मेट दिया, तो काम सौपने का तरीका कुछ ऐसा था, मानो इसे ‘अगले’ के अलावा कोई कर ही नही सकता है… ‘अगला’ कोई चार घंटे तक प्यासे मन को डपट कर काबू मे रखने के बाद पानी पीने गया था कि इधर बास को उसकी जोरदार तलब हो गई। आग टाइप एक खबर आई और बास चीख पडे ‘अगला’ कहा गया उसे बुलाओ।

एक साथ दस ‘पगले’ ‘अगले’ के मोबाइल पर रिग करने लगे। दो-तीन ‘पगले’ तो चिल्लाते हुए दौड पडे – अभी-अभी पानी पीता हुआ दिखा था। एक ने तो ह्द कर दी। ‘अगले’ की बाह् पकडकर उसे लगभग धकेलते हुए बास के पास ले आया।

अत्यंत गौरवान्वित होते हुए कहा- बास ये काम ‘अगले’ के अलावा कोई कर ही न ही सकता। ‘अगले’ ने बास की पूरी बात सुने बिना हाँ कर दी- ‘समझ गया बास हो जाएगा, अभी हो जाएगा’। सारे ‘पगले’ ‘अगले’ को ढूँढ कर लौट चुके थे। उस ‘पगले’ की और ईष्यार्लु नजरो से देख रहे थे, जो ‘अगले’ को पकड लाया था। देख लो बास… अभी तक हाफ रहे है। ‘अगला’ काम मे लग गया था। लंच की जरुरत अब महसूस नही हो रही थी। पेट पानी से भर चुका था। ‘पगला’ ‘अगले’ को देख कर गा रहा था – जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम । मेरे ख्याल है आप भी दफ्तर मे काम करने का ये बेजोड नुस्खा समझ गए होगे – “ बने रहो पगला, काम करेगा अगला ”

नरेन्द्र जी का हिन्दुस्तान दैनिक मे लिखा ये लेख मुझे नेहरु पैलेस से कुछ सामान लेते हुए मिला। लेख पढा तो काफी अच्छा लगा और ज्ञानपूर्वक भी तो सोचा क्यो न आप लोगो तक भी कि ये बांटा जाये।

सोमवार, अगस्त 20, 2007

गुल्ली-डंडा (पिछले भाग से आगे )

पिछले भाग से आगे

बीस साल गुजर गए। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियॉँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और क्स्बे की सैर करने निकला। ऑंखें किसी प्यासे पथिक की भॉँति बचपन के उन क्रीड़ा-स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं; पर उस परिचित नाम के सिवा वहॉँ और कुछ परिचित न था। जहॉँ खँडहर था, वहॉँ पक्के मकान खड़े थे। जहॉँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहॉँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियॉँ बॉँहे खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं; मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गईं! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।
सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने का बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा-क्यों बेटे, यहॉँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
एक लड़के ने गुल्ली-डंडा समेटकर सहमे हुए स्वर में कहा-कौन गया? गया चमार?
मैंने यों ही कहा-हॉँ-हॉँ वही। गया नाम का कोई आदमी है तो? शायद वही हो।
‘हॉँ, है तो।‘
‘जरा उसे बुला सकते हो?’
लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पॉँच हाथ काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला-कहो गया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया-हॉँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?
‘बहुत मजे में। तुम अपनी कहा।‘
‘डिप्टी साहब का साईस हूँ।‘
‘मतई, मोहन, दुर्गा सब कहॉँ हैं? कुछ खबर है?
‘मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?’
‘मैं तो जिले का इंजीनिया हूँ।‘
‘सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?
‘अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?’
गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी ऑंखों से देखा-अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।
‘आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दॉँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।‘
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर, मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहॉँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाऍंगे। मैं गया को लेकर डाकबँगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था।
मैंने पूछा-तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।
गया झेंपता हुआ बोला-मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था; नहीं मेरी क्या गिनती?
मैंने कुछ उदास होकर कहा-लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?
गया ने पछताते हुए कहा-वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।
‘वाह! वह मेरे बाल-जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ, न धन में।‘
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आये। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहॉँ आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया। खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहने-बाऍं कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेली में ही पहूँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नयी गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुम्बक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो; लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धॉँधलियॉँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खुले जाता था। हालॉँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोबारा टॉँड़ लगाता। गया यह सारी बे-कायदगियॉँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गए। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डंडे से आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं! कभी दाहिने जाती है, कभी बाऍं, कभी आगे, कभी पीछे।
आध घंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धॉँधली की-गुल्ली डंडे में नहीं लगी। बिल्कुल पास से गई; लेकिन लगी नहीं।
गया ने किसी प्रकार का असंतोष प्रकट नहीं किया।
‘न लगी होगी।‘
‘डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?’
‘नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे?’
बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता! यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।
सहसा गुल्ली फिर डंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बन्दूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धांधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूँ? मेरा हरज की क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अँधेरा का बहाना करके जल्दी से छुड़ा लूँगा। फिर कौन दॉँव देने आता है।
गया ने विजय के उल्लास में कहा-लग गई, लग गई। टन से बोली।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा-तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।
‘टन से बोली है सरकार!’
‘और जो किसी ईंट से टकरा गई हो?
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।
‘हॉँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।‘
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धॉँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दॉँव देना तय कर लिया।
गया ने कहा-अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।
‘नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दॉँव ले लो।‘
‘गुल्ली सूझेगी नहीं।‘
‘कुछ परवाह नहीं।‘
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टॉँड लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दॉँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिश्च दिया।
‘एक दॉँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।‘
‘नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।‘
‘तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?’
‘खेलने का समय कहॉँ मिलता है भैया!’
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला-कल यहॉँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।
मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले! अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टॉँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसेन प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।
पदने वालों में एक युवक ने कुछ धॉँधली की। उसने अपने विचार में गुल्ली लपक ली थी। गया का कहना था-गुल्ली जमीन मे लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मार-पीट हो जाती।
मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनन्द आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धॉँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।

गुल्ली-डंडा (मुंशी प्रेमचन्द्र )

हिन्दी के वरिष्ट तथा प्रतिष्टित कथाकारको मे एक नाम है मुंशी प्रेमचन्द्र का। मैनै मुंशी प्रेमचन्द्र की लगभग सभी रचनाओ को पढा है। उनकी रचनाओ को पढकर हि मै जान पाया कि क्यो उन्हे कहानी स्र्माट कहा जाता है।लगभग 11-12 साल कि उम्र मे मुझे उन की कहानी गुल्ली-डंडा पढने का मौका मिला। मुझे ये कहानी काफी अच्छी लगी क्योकि मै भी तब काफी गुल्ली-डंडा खेलता था। मुझे इस बात का आभास था कि इस खेल मे कितना मजा आता है। इस कहानी ने मुझे जहा एक तरफ गुल्ली डंडे कि हिन्दुतानिय्त का एह्सास तो दूसरी तरफ व वरगभेद का आभास कराया। मेरे लिये कहानी का हीरो गया था। कथानक जो 20 साल बाद इंजीनियर बनकर लौटता है और गया से गुल्ली-डंडा खेलने को कहता है तो वह ना चाह्ते हुए भी ना नही कर पाता । वह कथानक के खेल के दौरान लाख बेमानी करने पर भी शांत रहता है। कथानक को बाद मे इस बात का एहसास हो जाता है कि गया उस पर मेहरबानी कर रहा था। पर प्रेमचन्द्र जी कहानी का दूसरा पहलू यह दिखाना चाह्ते थे की गया के दिल मे कथानक के लिये मेहरबानी हि ना थी बगावत भी थी वरना क्यो वह दूसरे दिन मैच का इन्तज़ाम करके ये जाहिर करता कि उसे इस खेल मे कितनी महारत हासिल है। खैर ये सब का अलग अलग नजरिया है। कुछ की सहानुभूति गया के साथ तो कुछ की कथानक के साथ पर जो भी है आशा करता हूँ आप सब को यह कहानी जरुर पंसद आयेगी।

हमारे अँग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया।
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहॉँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रूपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाऍं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से ऑंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टॉँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रूचि है। मुझे गुल्ली की सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली उँगलियॉँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके मॉँ-बाप थे या नहीं, कहॉँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-कल्ब का चैम्पियन। जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयॉँ बना लेते थे।
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दॉँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अननुय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दॉँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
‘तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहँ?’
‘हॉँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।‘
‘न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?’
‘हॉँ! मेरा दॉँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।‘
‘मैं तुम्हारा गुलाब हूँ?’
‘हॉँ, मेरे गुलाम हो।‘
‘मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!’
‘घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दॉँव दिया है, दॉँव लेंगे।‘
‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।
‘वह तो पेट में चला गया।‘
‘निकालो पेट से। तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
‘अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे मॉँगने न गया था।‘
‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दॉँव न दूँगा।‘
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दॉँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पॉँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दॉँव देकर जाओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली-ही नहीं, एक चॉँटा जमा दिया। मैंने उसे दॉँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा! गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरन्त ऑंसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा! मैं थानेदार का लड़का एक नीच जात के लौंडे के हाथों पिट गया, यह मुझे उस समय भी अपमानजनक मालूम हआ; लेकिन घर में किसी से शिकायत न की।

उन्हीं दिनों पिताजी का वहॉँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दु:ख न हुआ। पिताजी दु:खी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्मॉँजी भी दु:खी थीं यहॉँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराव-सा हो गया था, लेकिन मैं सारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।

मंगलवार, अगस्त 14, 2007

फिल्म समीक्षा - ‘चक दे इंडिया’

बहुत दिनो से कोई फिल्म नही देखी थी सोचा चलो आज ये काम भी कर लिया जाये। जीतू भईया ने तो ‘कैश’ देखने का मन बनाने के लिये पहले ही चेतावनी दे चुके थे और मेरा भी मारधाड और काल्पनिक विषय को झेलने का हौशला ना था। रह गई थी ‘चक दे इंडिया’ । बहुत सुना था इस फिल्म के बारे मे सोचा चलो आज आजमा लेते है वैसे भी किसी नये विषय मे बनी फिल्म थी। सच मानो फिल्म देखकर समय और पैसे कि पूरी वशूली हो गई ।

हॉकी हमारा राष्ट्रीय और देसी खेल है, लेकिन आज यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय खेल हॉकी में हमारे देश की टीम का प्रदर्शन बेहद लचर है। इसकी वजह से यह खेल अपनी लोकप्रियता खो बैठा है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। इस खेल और देशभक्ति को आपस में सही अनुपात मिलाकर यशराज फिल्म्स ने इतने उम्दा तरीके से फिल्म बनाई है कि ‍सिनेमाघर में बैठकर दर्शक के अंदर देशभक्ति की भावनाएँ हिलोरे लेने लगती हैं। ना कोई फालतू की मार-धाड, ना फालतू के रोमांस कि खिचडि, ना कोई फालतू दृश्य या संवाद । पटकथा एकदम कसी हुई। दर्शक पहली फ्रेम से ही फिल्म में खो जाता है। छोटे-छोटे दृश्यों में कई बातें सामने आती हैं, जो निर्देशक और लेखक की सोच बयान करती हैं। कई बातें बिना संवादों के केवल दृश्यों के माध्यम से कहीं गई हैं। मसलन शाहरुख को खटारा स्कूटर पर बैठाकर निर्देशक ने भारत के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बता दी है।

कबीर खान (शाहरुख खान) कभी भारतीय हॉकी टीम का कप्तान हुआ करता था। उसकी कभी दुनिया के श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड में गिनती हुआ करती थी। खेल के दौरान एक मामूली चूक के कारण उसे गद्दार मान लिया गया। आज उसकी कोई पहचान नहीं है। उसे कठिन चुनौतियाँ स्वीकारना अच्छा लगता है। उसके अंदर ‘जो नहीं हो सकता है, वहीं करना है’ जैसी भावनाएँ मौजूद है। अपने इस कलंक को धोने के लिए वह एक कठिन चुनौती स्वीकार करता है। वह महिला हॉकी टीम का कोच बनकर इस ‍टीम को विश्वविजेता बनाता है। भारतीय महिला हॉकी टीम को प्रशिक्षण देना बेहद कठिन है। इस टीम में कोई जोश नहीं है। अच्छा खेलने की चाहत नहीं है। भारत के लिए खेलने में जो गर्व महसूस होता है वह कभी इस टीम के खिलाडियों ने महसूस नहीं किया है। वे सिर्फ इसलिए खेल रही हैं ता‍कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें कुछ सरकारी लाभ मिलें।

महिला टीम होने के कारण इन्हें पुरुषों की छींटाकशी ‍का‍ शिकार भी होना पड़ता है। कबीर खान उन्हें सीखाता है कि 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'। कोई भी मैच जीतने का स्वाद कैसा होता है। ट्राफी जीतकर उसे उठाने में कितना आनंद आता है। भारत के लिए खेलना कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। ‘चक दे इंडिया’ उस कबीर खान की कहानी है जिसे निचले पायदान वाली टीम को सँवारना है।
शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है। उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है।फिल्म 2-3 गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है।

‘चक दे इंडिया’ के जरिये निर्देशक शिमित अमीन और लेखक जयदीप साहनी ने कई बातें कही हैं। जैसे

· हॉकी की हमारे देश में जो स्थिति है उसके लिये सिर्फ खिलाडियों को ही जिम्मेदार मानना सही नही है, उसके लिये हॉकी संघ में बैठे भ्रष्ट लोग भी उतने ही जिम्मेदार है।
· हॉकी खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति कैसी होती है। मसलन शाहरुख का खटारा स्कूटर पर बैठकर कोचिग देने जान भारत के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति बताती है।
· एक सच्चे देशभक्त मुस्लिम को हर समय संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। खेल के दौरान एक मामूली चूक के कारण कबीर खान को गद्दार मान लिया गया।
· महिला खिलाड़ियों को पुरुषों से कमतर आंका जाता है ऐसा समझा जाता है चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी
· मिजोरम जैसे उत्तर-पूर्वी लोगों को हमारे देश का सदस्य नहीं माना जाता है।
· मै हिन्दू हूँ, यह मुस्लिम है, वह सिख है, सभी बोलते हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि सबसे पहले वे भारतीय हैं।

मै तो इस फिल्म को 100 मे से 99 अंक दूँगा तथा आप लोगो से ‘चक दे इंडिया’ को देखकर आने कि अपील करुँगा अगर आप एक अच्छी फिल्म देखने के उदेश्य से सिनेमाहाल जाते है।

सोमवार, अगस्त 06, 2007

मित्रता दिवस - मैत्री पर्व

सभी चिट्ठाकार मित्रो को मित्रता दिवस कि हार्दिक शुभकामनाये। माफ करना चिट्ठाकार मित्रो नई नियुक्ति कि शुरुआती व्यक्ता तथा अपने को माहौल के अनुसार ढलने मे कुछ ज्यादा समय लगा । ये पोस्ट तो मेरे को कल पोस्ट करनी चाहिये थी पर समयाभाव के कारण न कर सका। तो हम बात कर रहे है मित्रता दिवस कि। आमतौर पर लोग इस तरह के दिवसो कि आलोचना करते है क्योकि उन्हे लगता है कि हमे इस तरह के दिवसो कि आवश्य्कता नही है। पर उन्हे क्या पता आजकल के भौतिकवादी, उपभोक्तावादी, मशीनी युग में वे यंत्रवत जीवन शैली में जिंदा है, पर जीने की अदा भूल चुके है। एक ठंडी आह और कसक के साथ हम सब चले जा रहे हैं, अपने कंधों पर अपने-अपने सलीब उठाए। जिस तरह से तमाम नजदिकी संबंध या खून के रिश्ते खत्म हो रहे है या ढोये जा रहे है सिर्फ दोस्ती वह रिश्ता है जिसका जज्बा आज भी वैसे ही बरकरार है। द्वंद्व और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के मिलते हैं तो वह सिर्फ इस दोस्ती के दायरे में ही।

जिंदगी में खुशियों के रंग भरने वाला हसीन रिश्ता है - दोस्ती। इस प्यार भरे रिश्ते को सम्मान दिलाने के लिए अमेरिका में कुछ लोगों ने एक दिन दोस्ती के नाम करना तय किया। उनकी कोशिशें रंग लाईं और सन् 1935 में अमेरिका में अगस्त के पहले रविवार को आधिकारिक रूप से फ्रेंडशिप डे (मित्रता दिवस) घोषित किया गया। पिछले 72 सालों में फ्रेंडशिप डे ने अमेरिका की सरहदों को लाँघकर पूरे विश्व में अपना स्थान बना लिया है। जिस तरह से दोस्ती का जज्बा हर दिल, हर देश में होता है, वह किसी जाति, कुल, धर्म, संप्रदाय या प्रांत कि मोहताज नही होती है। जब दोस्ती के रिश्ते के कोई नियम, कायदे-कानून नहीं होते तो इसके सम्मान में समर्पित मित्रता दिवस (फ्रेंडशिप डे) किसी देश या समाज मे कैसे बंध सकता है। इसलिये मित्रता दिवस भी दुनिया के हर मुल्क में मनाया जाने लगा है।

जिस तरह जोडियाँ स्वर्ग में बनने की बात लोग करते हैं, शायद सच्ची दोस्ती भी स्वर्ग में ही बनती होगी। इंसान जब जन्म लेता है तब उसे स्वयं नहीं पता होता कि वह किस जाति, कुल, धर्म, संप्रदाय या प्रांत का हिस्सा बनने जा रहा है। अपने जन्म के साथ ही वह माँ की कोख से अपने साथ लाता है सिर्फ 'रिश्ते', 'खून के रिश्ते' जैसे भाई-बहन, चाचा-ताऊ-मौसा-मामा जिन्हें वह चाहे तो भी बदल नहीं सकता, बना नहीं पाता, मिटा नहीं पाता। ये रिश्ते बँधे होते हैं मर्यादाओं, परंपराओं और परिस्थितियों की जंजीरों से। बँधना कोई नहीं चाहता। हर इंसान की सहज प्रवृत्ति होती है मुक्ति की चाह, अभिव्यक्ति की इच्छा और यहीं से प्रारंभ होता है एक अच्छे साथी की खोज का शायद यही कारण है कि लाख अच्छा वातावरण और परिवेश होने के बावजूद थोड़ा-सा भी स्वविवेक जागते ही हर व्यक्ति एक 'मित्र' की आकांक्षा में एक नए और अनजाने सफर पर निकल पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई नदी अपने उद्गम स्थल से निकलते ही पूरे उफान और वेग के साथ बह पड़ती है।

दुनिया मे कई एसे संबध होते है जिन का अस्तित्व समय के साथ खत्म हो जाता है पर दोस्ती वो जज्बा है जो हमेशा तरोताजा रहता है। ईश्वर ने ऐसे खूबसूरत रिश्ते की बागडोर पूरी तरह से हमारे हाथों में सौंप दी है, जिसके साथ हमारे जीवन की सारी खुशियाँ और सारे गम जुड़े होते हैं। ईश्वर ने हमें पूरी स्वतंत्रता दी है कि हम अपने दोस्त खुद बनाएँ और यह रिश्ता जैसे चाहे, वैसे निभाएँ।

दोस्ती, स्नेह, भावना, विचारधारा या अहसास की धरती से अंकुरित नहीं होती, अपितु इसकी नींव जरूरतों की पूर्ति पर टिकी होती है। सच्ची 'मित्रता' वह तो दुनिया के सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है। यही वजह है कि इसमें उम्र, कुल, धर्म, संप्रदाय जैसे क्षेपक कभी नहीं लग पाते। यह आस्था और विश्वास का वह अंकुर होती है जो एक बार हृदय में प्रस्फुटित हुआ तो ताउम्र जीवन को सुरभित और सुवासित करता है। इसकी महक आपके व्यक्तित्व और रूह में रच-बस जाती है, इसीलिए परोक्षतः साथ न होने पर भी आपके मित्र की मित्रता सदैव आपके साथ-साथ चलती है। ऐसा साथ परिवार में मिलना मुश्किल है। कारण भी स्पष्ट है कि पारिवारिक रिश्ते 'निरपेक्ष' नहीं रह पाते। उनके पीछे एक अलग पृष्ठभूमि होती है जो बाधक न भी हो तो भी मित्रता की कसौटी पर सध नहीं पाती, क्योंकि सबके अपने-अपने विचार और मूल्य कहीं न कहीं आड़े ही आ जाते हैं। इसीलिए हमें जरूरत होती है एक ऐसे व्यक्ति की जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ हमारी अनुभूतियों का साक्षी बने, जो पूरी करुणा के साथ हमारी पीड़ा व दुःख के गहनतम क्षणों को हमारे साथ-साथ भोगे, जिसका स्नेह ऐसा हो कि जब वह बरसे तो मन की धरती से मुस्कुराहटों की कोपलें फूट पड़ें और जो हमारी भूलों पर आवरण न डालते हुए हमें आईना दिखाने के बाद स्वयं बाँहें पसार उनमें समा जाने का आमंत्रण दें। एक ऐसा साथ जो पूजा की तरह पवित्र व सात्विक हो और सर्वथा निर्विकार हो। ऐसा अपनत्व जो मन की गहराइयों को छूकर हमारी धमनी और शिराओं में हमें महसूस हो और हमारी हर धड़कन के साथ स्पंदित हो... यकीनन ये सब भावना के आवेग से उपजे शब्द प्रतीत हो सकतेहैं, मगर हर उस व्यक्ति को जिसकी जिंदगी में कोई सच्चा 'मित्र' रहा हो, उसे यह अपनी ही बात लगेगी।



मित्रता का शिल्प विश्वास से बना होता है और यह विश्वास इतना कमजोर कतई नहीं होता कि छोटे-छोटे झटके उसे बिखेर दें। सही मित्रता जीवन का प्रकाश पुंज होती है, साथ न रहने पर भी उसकी यादें आपकी राहों को रोशन करती हैं। इसलिए मैत्री पर्व के सुखद अवसर पर यही कामना करता हूँ कि दुनिया के तमाम दोस्तों की हथेलियाँ जुड़ी रहें और जहाँ मित्रता का सूर्य प्रकाशवान हो, ईश्वर करे वहाँ हम भी हों।

Source : Web Dunia

सोमवार, मई 07, 2007

वाकया जोशी जी का.............

किसी ने सच हि कहा है कि शिक्षा के दिन हमेशा हि याद आते है। चाहे वह स्कूली हो या कालेज के । कालेज के दिनो की कुछ शरारतें याद आती हैं - तो चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर जाती है। मै ऐसे हि एक वाकया का वर्णन करना चाहूँगा। यह बात तब की है जब मै बी. एस. सी. अन्तिम वर्ष मे था। फाइनल परीक्षा के मुश्किल से दो माह बचे थे। ये दो माह हमारे ग्रुप (तितर बटालियन) के लिये किसी युद्ध से कम नही होते थे। सारी ताकत झोक दी जाती थी इस युद्ध को जीतने के लिये क्योंकि साल के 8-9 माह तो मस्ती करने से फुरसत ही नही मिलती थी। कहने को टयूशन जाते थे पर लडकियो को घूरने या उनको छेडने से फुरसत मिले तब तो पढते। अगर उस से दिल न भरा तो निकल गये सिविल लाइनस( मुख्य बाजार) मे रही सही कसर उतारने । परीक्षा के दो माह मे हम दो या तीन लडके मिल कर एक ग्रुप बना कर कम्बाइन्ड स्ट्डी किया करते थे। मेरा एक दोस्त था सौरभ जोशी जी (जी का प्रयोग महानता दर्शाने के लिये व्यक्त किया गया है)। बेचारे बडे हि सीधे थे। इतने सीधे कि जब उन्होने कालेज मे प्रवेश लिया था तो उन से दो दिन पहले प्रवेश लिये हुए छात्र ने उन की रैगिग ले ली। लड़कियों के शब्द मात्र से उन की हवा खराब हो जाती थी। एक दिन मै और मेरा दोस्त रमैल राणा मेरे कमरे मे कम्बाइन्ड स्ट्डी कर अपने हथियार तेज कर रहे थे, जोशी जी आ धमके। उनका अगले दिन उनका मैट का पैपर था। बेचारे बडे परेशान थे क्योंकि उन्हे किसी का साथ नही मिल रहा था। हमारे ज्यादातर दोस्तो के परीक्षा स्थल शहर के आस पास लगे थे और जोशी जी का परीक्षा स्थल था देहरादून, रुड्की से लगभग़ 55 किलो मीटर दूर, वो भी प्रात:काल मे 9 बजे । सोच रहे थे कैसे जाया जायेगा क्योंकि इससे पहले शायद हि इतनी दूर परीक्षा देने गये हो। देहरादून मे अपना परीक्षा स्थल ढूँढना और वहाँ तक पहुचना तो उन के लिये मैट की परीक्षा से भी मुश्किल काम था । खैर मै और मेरे दोस्त ने अपनी तरफ से पूर्ण कोशिश का आश्वासन देकर जोशी जी को शाम को आने के लिये कहा और ये भी कहा कि अपनी तरफ से भी कोशिश करे किसी मुर्गे को ढूढने कि। हमने काफी कोशिश कि जोशी जी को किसी के साथ एड्जेस्ट करने कि, चाहे कालेज मे पढने वाले दोस्त हो या टयूशन मे पढने वाले मित्र सभी से मदद कि गुहार कि। पर क्या करे ज्यादातर दोस्तो ने अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अपने पाट्नर पहले हि ढूँढ लिये थे ताकि खर्चे के दबाव का बराबर बँटवारा किया जा सके।

जोशी जी की हालत हमसे देखी नही जा रही थी क्योंकि एक मित्र को दुखी देखकर दूसरा कैसे खुश हो सकता है। हमारे एक मित्र थे अखिल उनके पास दुपहिया वाहन था। अब उन का जोशी जी से दूर- दूर तक का नाता नही था। अगर होता तो शायद हम उस नाते मदद करने कि दुहाई दे देते। हमने अपने मित्र रमैल से कहा यार तेरे को वो बाइक दे देगा जोशी जी को छोड आना क्योकि अगर वो बाइक दे भी देगा तो जोशी जी को तो चलाना आता नही था। तेरा सारा खाने पीने का व्यय जोशी देगा। जोशी जी मान गये। मरता क्या ना करता। मैने कहा परीक्षा सुबह 9 बजे से है अत; तुम्हें प्रात:काल मे 6 बजे निकलना होगा। जोशी को कहा रात को अपना बोरिया बिस्तर( मतलब स्ट्डी मटिरियल) ले आना मेरे यहाँ। महाशय पहुच गये सही समय पर क्योंकि समय पर पहुचना उन की खानदानी आदतो मे सुमार है। हम भी बैठे हि थे खाना खा कर झक छेतने। कुछ इधर उधर कि बाते करते करते जोशी जी और रमैल मे कुछ कहा सुनी हो गयी, कहा सुनी भी क्या नौबत आ गयी थी हाथापाई तक वो तो मै बीच बचाव मै आ गया वरना दोनो एक दूसरे के खुन के प्यासे हो गये थे। खेर रमैल मिया मेरे समझाने पर मान गये पर जोशी जी शायद लडने का मुड बना कर आये थे। शान्त होने का नाम ही न ही ले रहे थे। विनाशकाले विपरिते बुधे। मै उन्हे समझाने लगा तो मुझ से भी लडने लगे और चिरकुट- चिरकुट कहने लगे। मैने कहा जोशी जी बहुत हो गया मै चुप हूँ इस का मतलब यह मत समझो की मै अहिंसा का पुजारी हूँ कही ऐसा ना हो कि मै अपनी मर्यादा भूल जाऊ और आपको मटिया मेट कर दू। पर जोशी जी कि हिम्मत देखो माने नही। अब मैने सोचा क्यो ना हाथ के बजाय दिमाग का प्रयोग किया जाय । मैने कहा जोशी जी कल आप का पैपर है अगर आप अब शान्त ना हुए तो मै आपको सोने नही दूँगा । अगर आप सोयेगे नही तो आपको परीक्षा मे नीद आयेगी जिससे आपकी परीक्षा की ऐसी तैसी हो जायेगी। पर वो फिर भी ना माने। अब वो जैसी ही थोडा झपकी लेते मै जगा देता। जगकर फिर थोडी देर हमारी ऐसी तैसी करते हुए झपकी लेते में फिर जगा देता, मै फिर जगा देता। यह क्रम सुबह के 3 बजे तक चलता रहा। अन्त मे मैने कहा जोशी जी मान लेते है हम तीनो ही चिरकुट है। हम तीनो ही एक कोरे कागज पर अन्य दो गवाहों कि उपस्थिति मै ये लिखेंगे कि मै चिरकुट हूँ । मैने कहा पहले मै लिखता हूँ बाद मे रमैल लिखेगा और अन्त मे आप लिखना। जोशी जी मान गये। पहले मैने लिखा, फिर रमैल ने और अन्त मे जोशी जी ने। मैने अपना और रमैल का लिखा नोट तो फाड दिया जोशी जी का लिखा मेरे पास रह गया। जो नीचे है।





इस पत्र से बहुत लाभ उठाया हमने । इस पत्र को नष्ट करने के एवज में जोशी जी से कई फिल्मों को दीखाने के लिए धन जुटवाया, कई अन्य कम निकलवाये पर नष्ट नही किया । एक यही तो निशानी है जोशी जी कि हमारे पास ।

खैर अब तो जोशी जी MBA कर उतर चुके है व्यापार के अखाडे मै, पर है अभी भी चिरकुट ही। उनका लिखा नोट जब भी पडता हूँ आँखों के सामने उनका मासूम सा चेहरा घूमने लगता है।

शुक्रवार, अप्रैल 20, 2007

मेरी परिचय

नाम : गिरीश सिह,
जन्मतिथी :31 जनवरी 1983

इमेल: girish.singh एटदी रेट रेडिफमेल डाट काम
और girishsinghbisht एटदी रेट जीमेल डाट काम

जींवन के महत्वपूर्ण 21 साल, कहे तो जींदगी का एक अध्याय रूडकी मे बिताने के बाद लगभग 3 वर्षो से दिल्ली मे हूँ। रोजी रोटी जो कमानी है। कुछ सपने है जिन्हे पूरा करना चाहता हूँ। खेलो मे क्रिकेट, शतरंज फुटबाल पसंद करता हूँ। कम्प्यूटर गेम, चेटीग पर भी हाथ साफ है। थोडा बहुत किताबी कीडा भी हूँ पर वो बात अलग है कि आजकल तो समय नही पाता हूँ इस कार्य के लिये। इन्टरनेट पर जो पढ लिया वो ही काफी है। संगीत से काफी लगाव है। जगजीत सिह, किशोर, रफी, मुकेश और बर्मन दा के गाने ज्यादा पसंद करता हूँ।
अमिताभ बच्चन, शाहरूक खान, आशुतोष राणा पसंदीदा अभिनेता है। अभिनेत्रिया तो उम्र के साथ साथ बदलती रही। बचपन मे मधुबाला, रेखा पसंद थी कुछ समय के बाद ऐश, प्रिटी तत्पश्चात रानी ,प्रियंका और अब विघा बालान । कपडो मे जीन्स, टी-शर्ट पसंद करता हूँ। पर ज्यादातर साधारण वेशभुषा मे रहता हूँ। खाने मे चटपटा खाना पसंद करता हूँ। कभी-कभी कुछ नये व्यंजन वनाने की भी नाकाम कोशिश करता रहता हूँ। थोडा बहुत हाड ड्रिक का भी शौक पाल रखा है। पर अकेले मे कभी नही पीता हूँ। सही मे मै झूठ नही बोलता।
प्यार के मामले मे अब तक थोडा अनलक्की रहा हूँ, कारण शायद यही रहा होगा कि दिल के डिसीजन लेते समय मैने दिमाग को ज्यादा अहमियत दी। जींदगी के हाइवे पर काफी उतार चढाव देखे है। कभी खुशी का उजाला तो कभी दु:ख का अधेरा । अपनो को बैगाना एवं बैगानो को अपना बनते देखा है। एक संवेदनशील और कोआपरेटीव आदमी हूँ। जो कभी कभी एक कमजोरी भी लगती है,क्योकि आजकल ज्यादा कोआपरेटीवनेस दिखाते है तो लोग समझते है कि न जाने इसे क्या फायदा रहा है? और संवेदनशीलता तो लोगो को दिखावा लगती है।
दोस्तो मे काफी पसंद किया जाता हूँ। दुनिया को अपनी नजरो से देखना चाहता हूँ पर कम्बखत चश्मा बीच मे आ जाता है। किसी चीज से नफरत है तो वह है सुबह जल्दी उठना,बर्तन माझना और गन्दगी । पर क्या करे जब तक अकेले है तो इन चीजो से रोज दो-दो हाथ करने ही पडते है। मेरा मानना है कि जींदगी काफी छोटी होती है इसमे सिर्फ प्यार के लिये जगह होनी चाहिये,नफरत के लिये नही। वर्तमान एक उपहार है इसलिये तो अग्रेजी मे इसे present से उच्चारित करते है। मेरे हिसाब से काफी झक छेत ली मैने अपने बारे मे कुछ और पुछना हो तो मेल करे।

बुधवार, अप्रैल 04, 2007

48 वर्षो से नहाया ही नहीं

क्या आप यकीन करेंगे कि कोई व्यक्ति 48 साल तक बिना नहाये रह सकता है। लेकिन संबलपुर के धनेश्वर प्रधान की कहानी दूसरों से काफी हटकर है। उनकी उम्र इस समय लगभग 120 वर्ष है पर वे 48 वर्षो से नहाये नही है। है न कमाल कि बात? चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा करने वाले के शरीर में तरह-तरह की बीमारियाँ घर कर सकती हैं, लेकिन वे तो अभी भी भले-चंगे हैं। जीवन का शतकीय पारी खेल चुके प्रधान के बाजुओ मे अब भले हि पहले जितनी ताकत न हो, भले हि उन्हे लाठी का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन वे अपना सारा काम खुद ही करते हैं। 48 वर्षो से अब तक न नहाने का रहस्य धनेश्वर प्रधान ने खोला नहीं है। पर पूछे जाने पर पता चला कि उन्हें गर्मी के दिनों में भी ठंड लगती है और वे आग जलाकर तापने बैठ जाते हैं। ऐसे स्वाधीनता सेनानी पर अब तक सरकार की कोई दृष्टि नहीं पड़ी है और वे गुमनाम सी जिंदगी जी रहे हैं। पूरी खबर यहाँ पढे

मंगलवार, अप्रैल 03, 2007

खोता बचपन

आजकल के शहरी बच्चो के बचपन को देखकर मेरे मन मे अकसर ये खयाल आत है कि क्या इन्हे वो बचपन नसीब हो रहा है जिसके ये हकदार है। क्या इनके बचपन को इनके माता पिता या अभिभावको ने उनके भविष्य को सुरक्षित करने को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इनके वर्तमान का गला घोट दिया है। मै इस बात से इनकार नही करता कि आज कल के संघर्षपूण माहौल देख कर इनके जीवन की सीढी के पहले पायदान को मजबूत करने की जरुरत है पर बच्चो के बचपन को भी नजरअंदाज न करे।

ज्यादातर घरो मे एक या दो ही बच्चे होते है । वे तरह-तरह की सुविधाओ के बीच पल रहे है। घर पर खाना उनकी इच्छानुसार ही बनाया जाता है। उनसे किसी तरह का घरेलू कार्य नही कराया जाता है। उन्हे विघालय से लाने और ले जाने के लिय आरामदेह गाङिया या बसे होती है। पढने के लिये सुन्दर किताबे एव लिखने के लिये रंग-बिरंगी कापिया होती है। स्कूली वेशभूषायें एवं जूते-मोजे भी कई प्रकार के होते है। स्कूल मे भी उन्हे घर जैसी सुख-सुविधायें उपलब्ध होती है। बडे-बडे हवादार कमरे, तरह-तरह के खेलो के लिये मैदान, अच्छी बैठक व्यवस्था, अच्छी पुस्तकालय, विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्पर्धायें इत्यादि। फिर भी बच्चो के माता पिता या अभिभावको की यही शिकायत रहती है कि बस्ते के बोझ से बच्चो का बचपन दब रहा है। परीक्षाओं का भी बच्चो पर काफी दबाव होता है। इन शिकायतों के चलते परीक्षाओं को सरल और बस्ते के बोझ को कम करने की कवायद चलती रहती है। परीक्षाओं को सरल करने के लिये कभी ग्रेड देकर काम चला लिया जाता है, तो कभी मौखिक या मासिक परीक्षाओं के परिणाम को देखकर दुसरी कक्षा मे भेज दिया जाता है।

बच्चो को बचपन से ही कुछ बनने के लिये प्रेरित किया जाता है। उनके सर्वागीण विकास के लिये मंह्गे खेलो से सम्बंन्धित विभिन्न संस्थाओं मे प्रवेश दिला दिया जाता है। मार्ग दर्शन के लिये अच्छे कोच नियुक्त किये जाते है। अब बच्चे बडे दिनो या गरमी की छुट्टियॉ खेलने-कूदने मे जाया नही करते बल्कि उन्हे विभिन्न प्रकार की हाबी क्लासो मे प्रवेश दिला दिया जाता है। गुल्ली डंड़े, कंच्चो,पतंग बाजी, छुपन्न-छुपाइ जैसे खेलो का स्थान हिंसक कम्पयूटर गेम्स एवं विडियो गेम्स ने ले लिया है। मेलो या हाट के बारे मे शायद हीं किसी को पता हो। बच्चे तो सिर्फ जूँ , वाट्ररपार्क जैसी जगहें जाना पसंद करते है। क्योंकि वो सिर्फ उन्ही के बारे मे जानते है। बच्चो पर इन तथाकथित सुख-सुविधाओ के साथ तनाव अनजाने ही लादा जाता है। रिश्ते नाते नही, दोस्त नहीं, मन भर का खेल नही, ज्यादा घूमना फिरना नही, और तो और भरपूर नीद को भी तरस जाते है ये बच्चे। दिन भर स्कूल मे, घर आकर होमवर्क, ट्यूशन और ट्यूशन वर्क मे ही दिन-रात गुजर जाते है। इन सब मे बचपन, बचपन की चंचलता, मस्ती दफन हो जाती है। इस कारण बच्चे कई बार अतृप्त, दुखी, उदास, चिड़चिडे, सबसे खफा से दिखाई देते है।

दसवी मे प्रवेश करते ही उस का सारे जग से रिश्ता तुड्वा दिया जाता है। न दोस्तो से मिलना, न घूमना-फिरना, न खेलना। घर को सोने का पिजरा बना दिया जाता है। 12वी का वर्ष तो अतिदक्षता को प्राप्त करने का वर्ष होता है। 12वी की पढाई के साथ-साथ विभिन्न करियर संबधी होने वाली परीक्षाओं का दबाव अलग से होता है। बच्चो के माता पिता या अभिभावक उन्हे वो बनाना चाह्ते है जो वे खुद न बन सके। सब कुछ हासिल करना ही जीवन का उदेश्शय बना दिया जाता है। जिसके कारण जीवन मे असफलता, अपयश के कटु अनुभवो को स्वीकारना उनके लिय अत्यन्त कठिन हो जाता है।

हमारा बचपन था जब हम कई तरह के अभावो मे जीते थे। हम घर के काम को अपनी जिम्मेदारी समझते थे, एक जोडी यूनिफार्म एव एक जोडी जूते-जुराब साल भर घिसते । किसी त्योहार पर अगर रात को 9 बजे तक घूमने कि आज्ञा मिलने पर स्वत्रंतत्रा का अनुभव करते, कुल्फी या आईसक्रिम मिलने पर आनंदित होते। रोटी के जगह पराठे मिलने पर माँ को धन्यवाद देते। जन्मदिन पर माता पिता के आशिर्वाद से तृप्त होना, विभिन्न संस्कारो वाला बचपन कितना सुखी था।

रिश्तो की मह्क से महकता, संस्कारो से जडा, आभावो मे भी जीवन को जीना, हर परिस्थिती का मुकाबला करना, जो मिल गया उसी मे सुखी होना, हार-जीत, सफलता-असफलता को समझना, यश- अपयश को स्वीकारना यही तो सीखा है हमने अपने बचपन से जो शायद आज की पीढी को नसीब नही हो रहा है।

शुक्रवार, मार्च 30, 2007

एक कहानी

आज हम चिट्ठाकार मित्रो को एक कहानी सुनाते है। यह कहानी अच्छी हि नही बल्कि हमारे सामाजिक जीवन एवम पैशे के लिये भी महत्वपूर्ण है। तो शुरु करे । एक धोबी महाशय होते है, जिनके पास दो गधे होते है। गधा अ ओर गधा स । अ का मनना था कि वह बहुत फुर्तीला और हर कार्य को स से अच्छा कर सकता है। वह हमेशा धोबी का विश्वासपात्र और चहेता बनना चाहता था इस कारण वह ज्यादा बोझ उठाने तथा धोबी के साथ चलने की कोशिश करता। बेचारी स बहुत सीधा और साधारण विचारो का था। वह अपनी क्षमता के हिसाब से बोझ उठाता एवं औसत चाल से चलता। अ के कार्य को देखकर धोबी ने स पर अ के बराबर कार्य करने के लिये दबाव डालना शुरू कर दिया। स ने भी थोडी बहुत कोशिश की परन्तु ज्यादा सफल न हो सका। इस कारण वह हमेशा की मार खाता।
बेचारा स काफी दुखी था उसने अ से विन्रमतापूर्वक प्रार्थना कर कहा प्रिय मित्र यहा पर सिर्फ हम दो ही है इसलिये क्यो एक दूसरे से आगे निकलने के लिये दौड करे। आपको ज्ञात है कि मैं ज्यादा बोझ उठाने मे असर्मथ हूँ। हम बराबर बोझ उठाते है और औसत चाल से चले। परन्तु अ कहा मानने वाला था। अगले दिन अ ने ईष्या के कारण और दिन की अपेक्षा थोडा ज्यादा वजन उठाया और अपनी रफ्तार भी बढा दी। स ने भी थोडी बहुत कोशिश की परन्तु ज्यादा सफल न हो सका। स के कार्य को देखकर धोबी काफी खफा था। बेचारा स नित्य मार खाता रहता। अ यह देखकर काफी खुश होता। एक दिन स अत्यधिक मार से चल बसा। अ अपने आप को सर्वोच समझने लगा पर कुछ समय पश्चात ही उसका यह भ्रंम टूट गया। अब उसे स का भी कार्य करना पडता वो भी दोहरे रफ्तार से। अत्यधिक कार्य करने के कारण बेचारा बिमार पड गया। अब उससे ज्यादा नही उठता था और रफ्तार मे भी कमी आ गयी थी। स के कार्य करने की क्षमता मे गिरावट देखकर धोबी को काफी गुस्सा आता। धोबी ने स से भी मार मार कार्य कराना शुरू कर दिया। स अपने कार्य करने की क्षमता को न बढा सका और एक दिन ने धोबी उसे लात मारकर चला गया नये गधे ढूढने।
यहा पर इस कहानी का अन्त नही है पर इस से हमे व्यवसायिक और सामाजिक शिक्षा मिलती है कि हमे अपने सभी साथियो को समान समझना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति कि अपनी क्षमता होती है। कभी भी अपने स्वामी के आगे जरूरत से ज्यादा दिखावा नही करना चाहिए और न ही साथियो को दबाव मे देखकर प्रसन्न होना चाहिए। इस बात से कोई फर्क नही पडता आप अ हो या स लेकिन आप अपने स्वामी के लिये गधे हो। आखिर मैं यही कहना चाहूगा कि जरूरत से ज्यादा काम करने की कोशिश न करे बल्कि काम को चतुराई से करे। सफलता कोई नियत स्थान नही है बल्कि एक यात्रा है। आशा करता हूँ आप लोग इस कहानी से कुछ सीख जरूर लेगे।

बुधवार, मार्च 21, 2007

आज श्रीलंका के लिये प्रार्थना करे,परसों इंडिया के लिये

बरमूडा के खिलाफ 257 रनों की जीत से टीम इंडिया ने वर्ल्ड कप के सुपर 8 में प्रवेश की अपनी संभावनाएं बेहतर बना ली हैं, लेकिन उसे अभी कई बाधाएं पार करनी हैं। सबसे बड़ी बाधा है आखिरी ग्रुप मैच में श्रीलंका को मात देना। भारत को हर हाल में श्रीलंका को हराना होगा। उसके बाद भी मामला नेट रन रेट पर अटक सकता है। फिलहाल श्रीलंका, भारत और बांग्लादेश, तीनों के दो-दो अंक हैं। श्रीलंका और बांग्लादेश ने एक-एक मैच खेला है जबकि भारत ने दो मैचों के बाद इतने अंक हासिल किए हैं। नेट रन रेट सबसे अच्छा श्रीलंका का है 4.860, जबकि भारत का नेट रन रेट 2.507 और बांग्लादेश का -0.139 है। नेट रन रेट किसी टीम द्वारा बनाए गए रनों को खेले गए ओवरों से भाग देकर निकली संख्या में से उस टीम द्वारा दिए गए रनों में ओवरों का भाग देकर निकली संख्या को घटा कर निकाला जाता है। भारत-बरमूडा मैच के बाद जो तस्वीर उभरी है, उसके हिसाब से आगे 4 संभावनाएं बन सकती हैं।

संभावना : 1 श्रीलंका आज बांग्लादेश को हरा दे और भारत शुक्रवार को श्रीलंका को मात दे दे । उसके बाद बांग्लादेश आखिरी मैच में बरमूडा को हरा दे।

इस लिहाज से भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश तीनों के चार-चार अंक हो जाएंगे और सुपर-8 में पहुंचने वाली टीमों का फैसला नेट रन रेट के आधार पर होगा। बांग्लादेश पर जीत के बाद श्रीलंका का नेट रन रेट और बेहतर होगा और भारत भी श्रीलंका पर जीत से अपना नेट रन रेट और सुधार लेगा। बांग्लादेश का नेट रन रेट श्रीलंका से हार के बाद गिरेगा और उसे बरमूडा के खिलाफ इतना बेहतर करना होगा कि वह भारत से आगे निकल जाए। भारत के फायदे में होगा कि श्रीलंका बांग्लादेश को अच्छे अंतर से हराए।

संभावना : 2 बांग्लादेश अपने मैचों में श्रीलंका और बरमूडा दोनों को हरा दे और भारत भी श्रीलंका को मात दे दे।

बांग्लादेश भारत को हरा सकता है तो श्रीलंका और बरमूडा को क्यों नहीं? ऐसी स्थिति में बांग्लादेश 6 अंको के साथ पहले और भारत 4 अंको के साथ सुपर-8 में पहुंच जाएंगे, जबकि श्रीलंका सिर्फ 2 अंको के साथ बाहर हो जाएगा। इस स्थिति में भारत को नुकसान यह होगा कि वह सुपर-8 में खाली हाथ जाएगा, जबकि बांग्लादेश भारत पर जीत के कारण दो अंक लेकर वहां जाएगा। ऐसे में भारत सुपर 8 में पहले से ही कमज़ोर स्थिति में होगा। संभावना नंबर 1 में भारत श्रीलंका को हराने के कारण 2 अतरिक्त अंक लेकर जाएगा।

संभावना : 3 भारत और बांग्लादेश दोनों श्रीलंका से हार जाएं और बांग्लादेश ने बरमूडा को हरा देऐसी स्थिति में श्रीलंका 6 अंको के साथ पहले और बांग्लादेश 4 अंको के साथ सुपर-8 में पहुंच जाएंगे, जबकि भारत सिर्फ 2 अंको के साथ बाहर हो जाएगा। (भगवान से प्रार्थना करे कि ये बिल्कुल न हो)

संभावना : 4 अगर भारत और बांग्लादेश दोनों श्रीलंका से हार जाएं लेकिन बरमूडा बांग्लादेश को हरा दे
इसको संभावना के बजाय असंभावना कहना ज़्यादा सही होगा । भारत को हराने के बाद से बांग्लादेश के खिलाड़ियों का मनोबल काफी बढा है। बरमूडा बांग्लादेश को हरा दे, यह तभी हो सकता है यदि मैच फिक्स हो या वे मैच खेल ही न पाएं। क्रिकेट अनिश्चितताओ का खेल है इसमे कुछ भी हो सकता है लेकिन अगर ऐसा हो तो भारत श्रीलंका से हारने के बाद भी सुपर 8 में जा सकता है क्योकि तब श्रीलंका के 6 अंक हो जाएंगे और भारत, बरमूडा और बांग्लादेश, तीनों के 2-2 अंक होंगे। लेकिन बांग्लादेशी टीम के फॉर्म को देखते हुए यह ख्याली पुलाव ही लगता है कि वह बरमूडा से हार जाएगी।
देखते है समय के गर्भ मे क्या छुपा है। मेरी शुभकामनाये टीम इंडिया के साथ है आशा है आप सब कि भी होगी।
(स्रोत: विभिन्न समाचार-पत्र)

सोमवार, मार्च 19, 2007

शुरू में ही भारत की शर्मनाक हार

किसी भी खेल के हार और जीत दो जरूरी पहलू होते है जैसे किसी सिक्के का एक तरफ हैड तो दूसरी तरफ टैंल। विश्वकप के एक बहुत ही उलटफेर भरे मैच में बांग्लादेश की टीम ने भारत को 5 विकेट से हरा दिया। बांग्लादेश की टीम ने भारत को खेल के हर क्षेत्र में पछाड़ते यह ऐतिहासिक जीत दर्ज की। चूंकि यह मैमने द्वारा शेर का शिकार करना जैसी घटना है इसलिए यह क्रिकेट प्रेमियों को कुपित करने के लिये काफी है और जो स्वाभाविक भी है। इस घुटनाटेक पराजय के बाद भारतीय टीम की सफलता के लिए लिखे और गाए-बजाए गए सारे तराने बेसुरे हो गये है, सारे हवन-कीर्तन विफल हो गये। क्या कारण है बांग्लादेश के हाथों भारतीय टीम की ये दुर्गति हुई? अपने आप पर जरूरत से ज्यादा भरोसा, प्रतिद्वंद्वी टीम को नौसिखिया और कमजोर समझना या खेल से अधिक विज्ञापन बाजी में ध्यान लगाना है? मेरे विचार से प्रमुख कारण देश के खिलाड़ीयो का खेल के बजाए धन कमाने पर अधिक ध्यान एवं प्रसिद्धि बटोरने के फेर में पड़ जाना है। इन स्थितियों में मैदान पर उनका प्रदर्शन प्रभावित होना तय है।


भारतीय टीम ने खेल के प्रत्येक क्षेत्र में जैसा लचर प्रदर्शन किया और साथ ही जैसे हाव-भाव दिखाए उससे उसके पाकिस्तान की राह पर चल निकलने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसा लगता है कि टीम इंडिया ने अपना सारा दमखम अभ्यास मैचों में ही दिखा दिया। नि:संदेह ऐसे रद्दी खेल के बल पर कोई टीम विश्व विजेता बनने का ख्वाब देखने की भी हकदार नहीं। पहले ही मैच में बुरी तरह पिटने के बाद यदि टीम इंडिया के साथ ही उसके कोच ग्रेग चैपल पर गुस्सा उतारा जा रहा है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।हम पहले भी देख चुके है कि भारतीय टीम अतीत में भी बुरी तरह पिटने के बाद बेहतर खेल दिखा चुकी है इसलिए यह अपेक्षा बनाए रखी जानी चाहिए कि वह आगे अपने हालिया प्रदर्शन को दोबारा नही दोहरायेगी, लेकिन इस एक पराजय ने यह तो बता ही दिया कि हमारी टीम में बुनियादी स्तर पर कोई बड़ी खामी है।


नि:संदेह यह खामी टीम इंडिया के प्रबंधन तंत्र में भी है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसी टीम हो जो इतना प्रसिद्धि, पैसा और प्यार पाने के बावजूद अपने खेल के स्तर को ऊंचा उठाने में नाकाम साबित हुई हो। यह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का प्राथमिक दायित्व बनना चाहिए था कि हमारी टीम इस खेल के हर स्तर पर श्रेष्ठता कायम करे, लेकिन ऐसा लगता है कि उसकी प्राथमिकताओं में केवल धन जुटाना शामिल है। आखिर क्या कारण है कि भारतीय टीम की रैंकिंग ऊपर उठने का नाम नहीं ले रही है? क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि विश्व कप जीतने का दावा करने वाली टीम इंडिया के लिए अब यह दुआ करनी पड़ रही है कि वह बरमूडा से तो अच्छी तरह जीत जाए? यह दुआ करनी पड़ रही है तो इसीलिए कि हमारी टीम ने जीत के लिए तनिक भी जज्बा नहीं दिखाया। दरअसल उसने क्रिकेट प्रेमियों के भरोसे को ही नहीं तोड़ा, बल्कि उन्हें शर्मिदा भी किया है।

राँची में नाराज क्रिकेटप्रेमियों ने धोनी के नए मकान के निर्माण स्थल पर धावा बोलकर उनके खिलाफ नारेबाजी की और एक निर्माणाधीन चारदीवारी को क्षतिग्रस्त कर दिया,कानपुर में सहवाग और विकेटकीपर धोनी के पुतले फूँके गए, जयपुर और वाराणसी में भी टीम इंडिया के खिलाड़ियों के पुतले जलाए गए। कोलकाता में लोगों ने कोच ग्रेग चैपल और कप्तान राहुल द्रविड़ के खिलाफ प्रदर्शन किया। जालंधर के कम्पनी बाग में खिलाड़ियों के पोस्टर जलाए गए।

लेकिन क्रिकेट प्रेमियों को यह ध्यान रखना होगा कि उनका रोष अराजकता में तब्दील न होने पाए। उन्हें अपनी नाराजगी और निराशा जाहिर करने का पूरा अधिकार है, लेकिन संयमित और मर्यादित ढंग से। नि:संदेह क्रिकेट हम भारतीयों के खून में रच-बस सा गया है, लेकिन है तो आखिर वह एक खेल ही। एक मैच में मिली पराजय के बाद सब कुछ गंवा देने का भाव ठीक नहीं।

गुरुवार, मार्च 15, 2007

ट्रैफिक की समस्या

दिल्ली ही नहीं भारत के दूसरे महानगरों में भी ट्रैफिक की समस्या दिनो-दिन बढती जा रही है। ट्रैफिक की समस्या भी उन बड़ी समस्याओं की सूची में आती है जिनकी तरफ हमने आज़ादी के बाद ध्यान नहीं दिया है। आज शहरों में वाहनों की बढ़ती भीड़ प्रशासन के लिए सिरदर्द बनी हुई है। तकनीकी कुशलता और प्रबंधन क्षमता में अव्वल अमेरिका में भी ट्रैफिक जाम एक समस्या है। इसमें कोई दो मत नहीं कि भारत के महानगरों में आबादी का बोझ बढ़ा है। उनमें व्यापारिक गतिविधियां लगातार तेज होती जा रही हैं। उनमें लोगों का जीवन स्तर बढ़ रहा है। दूसरी ओर तकनीकी परिष्कार के साथ नए और बड़े वाहन भी सामने आ रहे हैं। ट्रैफिक की समस्या के समाधान में लोगों का जो सहयोग मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। समस्याओं को टालना, उनका सामना न करना या अस्थाई समाधान खोजना शायद हमारी आदत बन गई है। शहरों का अंधाधुंध और बिना समझे-बूझे विस्तार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अभाव, सड़कों और पुलों का अभाव, यातायात के नियमों का पालन न करना आदि कारण हैं जिन पर समग्र रूप से विचार किया जाना चाहिए था। प्रशासन का रवैया टालने वाला है। ज़ाहिर है समस्या के प्रति गंभीर रुझान का अभाव और व्यक्तिगत ढंग से समाधान खोजने की प्रवृति से समस्या विकराल रूप धारण कर रही है।

कहीं भी आने-जाने में लाखों, करोड़ों लोगों के अनगिनत घंटे बर्बाद होते हैं,गाड़ियों में खरबों रुपए का तेल बेवजह फुंकता है, पता नहीं कितना धुआँ परिवेश को गंदा कर देता है? हाल में प्रकाशित अर्बन मोबिलिटी रिपोर्ट- 2005 में इस बात का खुलासा किया गया है कि ट्रैफिक जाम के कारण लोगों का समय तो नष्ट हो ही रहा है, तेल की भी बर्बादी बढ़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में वर्ष 2003 में ट्रैफिक जाम की वजह से लोगों के 3.7 अरब घंटे और 8.7 अरब लीटर तेल की बर्बादी हुई। यह वर्ष 2002 के मुकाबले क्रमश: 7.9 करोड़ घंटे और 26 करोड़ लीटर ज्यादा है। जाहिर है अमेरिका के लिए यह संकट निरंतर बढ़ा है। वहां 1982 से विभिन्न वाहनों द्वारा तय की गई दूरी में 74 फीसदी का इजाफा हुआ है , जबकि सड़कों के दायरे में 6 फीसदी की वृद्धि हुई है। परिवहन अधिकारियों का मानना है कि अमेरिका की ट्रैफिक समस्या को दूर करने में छह वर्ष का वक्त लग सकता है और इस पर करीब 400 अरब डॉलर के खर्च का अनुमान है।

लंदन में ऐसा नियम है कि प्रमुख बाज़ारों जैसे आक्सफोर्ड स्ट्रीट आदि क्षेत्रों में केवल पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा -ही जा सकता है। मतलब यह कि प्राइवेट गाड़ियाँ दूर किसी पार्किंग में खड़ी करनी पड़ती हैं। एशिया के अनेक देशों ने भी इस समस्या से जूझने के लिए कई तरह के उपाय किए हैं। थाईलैंड और मलेशिया जैसे देशों में अर्बन रेलवे का विस्तार किया जा रहा है। सिंगापुर में सड़क पर बढ़ती भीड़ को देखकर पैसेंजर कारों पर टोल टैक्स बढ़ा दिया गया है। तीन या उससे कम लोगों को लेकर आने वाली पैसेंजर कारों के शहर और खासकर व्यावसायिक क्षेत्र में प्रवेश करने पर शुल्क लगा हुआ है , जिसे एरिया लाइसेंसिंग कहते हैं। मलेशिया में भी ऐसी ही व्यवस्था लागू है। इसी संकट को भांपकर जापान ने लाइट रेल ट्रांजिट सिस्टम शुरू किया जिसके तहत हलकी छोटी ट्रामें चलाई जा रही हैं जो पटरी और सड़क पर समान रूप से चलती हैं।

दिल्ली में इसका उल्टा है। कनाट प्लेस में बसें नहीं आ सकतीं, सिर्फ़ प्राइवेट गाड़ियाँ, कारें या टैक्सियाँ आ सकती है। बसें कनाट प्लेस से कुछ दूर आकर रूक जाती है। यानी बस में चलने वाले को कनाट प्लेस तक आने के लिए पैदल चलना पड़ता है लेकिन कार सीधे दुकान के सामने आ सकती है। पब्लिक ट्राँसपोर्ट पर प्राइवेट ट्राँसपोर्ट को प्राथमिकता देना शायदी हमारी सामंती समझ का हिस्सा है। हमारे देश में सामंत तो नहीं हैं लेकिन सामंती संस्कार बहुत प्रबल हैं। एक और बड़ी समस्या यह है कि हमारे देश में जिन लोगों के पास कारें हैं वे अपनी कारों से घर के दरवाज़े के सामने ही उतरना चाहते हैं। दुकानदार भी यह चाहते हैं कि कार से ही दुकान के सामने उतरें। उन्हें दो कदम भी पैदल न चलना पड़े। इस मानसिकता ने सड़क के किनारे वाली जगह को पार्किंग बना दिया है जो मुफ्त में मिल जाती है। दुकानदारो द्वारा अपनी दुकानो के आगे तक करीब 5 से 6 फुट की जगह पर समान रखना, कही पर भी ट्रैक्टर या ट्राली का खडा कर देना जैसे कारक भी ट्रैफिक की समस्या को जटील बना देते है। लेकिन इसकी वजह से कितनी अव्यवस्था होती है। लोगों को कितनी परेशानी होती है, यह सब जानते हैं।

शहरों और खासतौर पर बड़े शहरों के मास्टर प्लान के साथ मनमाने खिलवाड़ ने भी ट्रैफिक की समस्या को विकराल बना दिया है। जहाँ एक कोठी हुआ करती थी और 10-12 लोग रहा करते थे वहाँ अब ऊँची-ऊँची इमारते बन गई है जिनमें सैंकड़ों लोग रहते हैं। बडे बडे शोपिग सैटर, माल खुल गये है। शहर की व्यस्तम सडको पर हर 10 मिनट के बाद लगता जाम प्रत्येक आने जाने वाले के लिए परेशानी का कारण बनता है। 40-50 किलोमीटर प्रति घंटा की चाल से 1 किलोमीटर का सफर तय करने मे मुश्किल से डेढ मिनट लगता है पर यहा तो आधा किलोमीटर का सफर तय करने मे ही 10 मिनट लग जाते है। सड़के रबड़ की तो बनी है नहीं जिन्हे चाहे जितना खीच कर बडा कर लो । ज़ाहिर है कि उनकी अपनी एक क्षमता है जो समाप्त हो सकती है।

यह भी एक विडंबना है कि पिछले दो दशकों में पंचवर्षीय योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्र के लिए राशि बढ़ रही है लेकिन ग्रामीण इलाकों से शहरों-महानगरों की ओर लोगों का पलायन रुकने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में ट्रैफिक की समस्या अब भयावह रूप लेती जा रही है। पर इस संकट को सुलझाने की कोई कारगर योजना नजर नहीं आ रही। अगर आपके पास कोई सामाधान है तो जरूर बताये

शुक्रवार, मार्च 09, 2007

फिल्म समीक्षा - निशब्द

अधेड उम्र के पुरूष या महिला का अपनी बेटा/बेटी के उम्र के लडके/लडकी के साथ प्यार, आकषर्ण भारतीय दर्शको के लिये कोई नया विषय नही है। निशब्द से पहले भी कई फिल्मे इस विषय पर बन चुकी है जैसे दूसरा आदमी, लम्हे, लीला, तुम, छोटी सी लव स्टोरी और जांर्गस पार्क। इन फिल्मो मे इस तरह के रिश्ते की पेचदीगियो और उनके भावो को परदे पर दर्शाने का प्रयास किया गया था। पर क्या भारतीय दर्शक इस विषय पर बनी फिल्म देखने के लिये मानसिक रूप से तैयार है? पर मानना पडेगा रामगोपाल वर्मा को जिन्होने इस संवेदनशील को चुना और बडी शिद्रदत के साथ पर्दे पर उतारा भी है। इस फिल्म के जरिये उन्होने साबित कर दिया है कि वो संवेदनशील विषयो पर भावुक फिल्मे बना सकते है। बहुत से लोग इसे एडरिन लापन की "लोलिता" की कांपी बताते है पर ऐसा कुछ नही है, केवल समानता है तो सिर्फ विषय कि और कुछ नही।

फिल्म कि शुरूआत होती है विजय (अमिताभ बच्चन, ज्यादातर फिल्मो मे उनका यही नाम होता है) से, जो पेशे से एक वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर है। अपनी पत्नी रेवती और बेटी रितु (श्रद्धा आर्य) के साथ एक हिल स्टेशन मे रहते है। एक बार की सहेली जिया (जिया खान) उसके साथ छुटटीया बिताने उसके घर आती है। तलाकशुदा माँ बाप की बेटी जिया भावनात्मक रूप से बेहद कमजोर है। विजय से पहली ही मुलाकात मे जिया उसकी तरफ आर्कषित हो जाती है। इसे पहली नजर का प्यार कहो या विपरिताकर्षण । दोनो एक दूसरे कि तरफ खीचे चले जाते है। विजय को अपने प्यार को व्यक्त करने के लिये शब्द ही नही मिलते। वह अपनी भावना को करने मे खुद को दोषी महसूस करता है। इस कारण वह आत्महत्या के बारे मे भी सोचता है। वह असंमनजस मे है। एक तरफ उसकी भावनाए है, तो दूसरी तरफ जिम्मेदारी। जैसा कि होता ही है प्यार छुपाये नही छुपता। रितु को अपने पिता और जिया के प्यार के बारे मे पता लग जाता है। तब आता है सब के जींवन मे सुनामी जैसा कहर। विजय को अपने दंद्ध एव जिम्मेदारी की के बीच फैसला लेना पडता है और जिम्मेदारी की जीत होती है । विजय, जिया को अपने घर से निकल जाने का आदेश देते है पर इस से पहले अपनी पत्नी और बेटी के सामने जिया से प्यार को स्वीकारते है। जिया चली जाती है और विजय अपनी यादो मे जिया को बसाए हुए है। इसी के साथ फिल्म खत्म हो जाती है ।

फिल्म ठीक-ठाक बन पडी है पर फिल्म की गति बहुत धीमी है। इन्टरवल के बाद तो और भी 2-3 पंचर हो जाते है। अमित राय की सिनेमेट्रोग्राफी काफी बेहतरीन है, मन्नार के चाय के बागान एव हरी भरी वादीयो को अच्छी तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म में संगीत दिया है विशाल भारद्वाज और अमर मोहिले ने और बोल लिखे हैं फरहद, साजिद ने। इसमें बिग बी और जिया खान ने खुद ही गाने गाए है। पाश्र्वसंगीत भी अच्छा है। थोडी मेलोडी के बीच मे स्वर ध्वनिया अधिक कारगर लगती है। लगता है लेखक महाशय कहानी के बीच मे कही उलझ गये थे जिस कारण फिल्म के मध्य भाग मे ठहराव सा प्रतीत होता है। संवाद द्रश्यो को अच्छी तरह से न फिल्मा पाना भी नकारात्मक असर डालता है। अभिनय के मामले मे अमिताभ बच्चन तो कमाल करते ही है। आँखो से अपना सारा दर्द ब्यान करने मे सफल हुए है। जिया ने भी अच्छा अभिनय किया है। रेवती, श्रद्धा आर्य, नासीर ने अपने कार्य के साथ न्याय किया है। सब कुछ मिलाकर फिल्म को देखा जा सकता है अगर आप इस विषय के अनकहे दर्द को झेलना चाहते है तो। और हाँ फिल्म को देखने के बाद अपनी प्रतिक्रिया लिखना मत भुलना।

बुधवार, मार्च 07, 2007

विश्व कप क्रिकेट का कार्यक्रम एवं स्वरूप

वेस्टइंडीज़ में हो रहे क्रिकेट महासंग्राम 2007 में 16 टीमें हिस्सा ले रही है। इन 16 टीमों को चार-चार के चार ग्रुप में बाँटा गया है। इस बार के विश्व कप में ग्रुप का निर्धारण करते समय पिछले साल विश्व कप के कार्यक्रमों की घोषणा के समय की आईसीसी रैंकिंग के आधार पर टीमों को वरीयता दी गई है।

ग्रुप ए

ऑस्ट्रेलिया (1)
दक्षिण अफ़्रीका (5)
स्कॉटलैंड (12)
हौलेन्ड (16)

ग्रुप बी

श्रीलंका (2)
भारत (8)
बांग्लादेश (11)
बरमूडा (15)

ग्रुप सी

न्यूज़ीलैंड (3)
इंग्लैंड (7)
कीनिया (10)
कनाडा (14)

ग्रुप डी

पाकिस्तान (4)
वेस्टइंडीज़ (6)
ज़िम्बाब्वे (9)
आयरलैंड (13)

(कोष्टक मे दी गई टीम रैकिक अप्रैल 2005 मे आईसीसी द्रारा जारी)


11 मार्च: उदघाटन समारोह

ग्रुप मैच

13 मार्च: ग्रुप डी- वेस्टइंडीज़ और पाकिस्तान (जमैका)
14 मार्च: ग्रुप ए- ऑस्ट्रेलिया और स्कॉटलैंड ( सेंट किट्स)

14 मार्च: ग्रुप सी- कीनिया और कनाडा (सेंट लूसिया)
15 मार्च: ग्रुप बी- श्रीलंका और बरमूडा (त्रिनिडाड)
15 मार्च: ग्रुप डी- ज़िम्बाब्वे और आयरलैंड (जमैका)
16 मार्च: ग्रुप ए- दक्षिण अफ़्रीका और हौलेन्ड (सेंट किट्स)
16 मार्च: ग्रुप सी- इंग्लैंड और न्यूज़ीलैंड (सेंट लूसिया)
17 मार्च: ग्रुप बी- भारत बांग्लादेश (त्रिनिडाड)
17 मार्च: ग्रुप डी- पाकिस्तान और आयरलैंड (जमैका)
18 मार्च: ग्रुप ए- ऑस्ट्रेलिया और हौलेन्ड (सेंट किट्स)
18 मार्च: ग्रुप सी- इंग्लैंड और कनाडा (सेंट लूसिया)
19 मार्च: ग्रुप बी- भारत और बरमूडा (त्रिनिडाड)
19 मार्च: ग्रुप डी- वेस्टइंडीज़ और ज़िम्बाब्वे (जमैका)

20 मार्च: ग्रुप ए- दक्षिण अफ़्रीका और स्कॉटलैंड (सेंट किट्स)
20 मार्च: ग्रुप सी- न्यूज़ीलैंड और कीनिया (सेंट लूसिया)
21 मार्च: ग्रुप बी- श्रीलंका और बांग्लादेश (त्रिनिडाड)
21 मार्च: ग्रुप डी- ज़िम्बाब्वे और पाकिस्तान (जमैका)
22 मार्च: ग्रुप ए- स्कॉटलैंड और हौलेन्ड (सेंट किट्स)
22 मार्च: ग्रुप सी- न्यूज़ीलैंड और कनाडा (सेंट लूसिया)
23 मार्च: ग्रुप बी- भारत और श्रीलंका (त्रिनिडाड)
23 मार्च: ग्रुप डी- वेस्टइंडीज़ और आयरलैंड (जमैका)
24 मार्च: ग्रुप ए- ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ़्रीका (सेंट किट्स)
24 मार्च: ग्रुप सी- इंग्लैंड और कीनिया (सेंट लूसिया)
25 मार्च: ग्रुप बी- बरमूडा और बांग्लादेश (त्रिनिडाड)


(ग्रुप ए बी और सी के मैच भारतीय समयानुसार साय 7:00 बजे तथा ग्रुप डी के मैच भारतीय समयानुसार साय 8:00 बजे प्रारम्भ होगे।)

सुपर-8

27 मार्च: एंटिगा- डी-2 और ए-1
28 मार्च: गयाना- ए-2 और बी-1
29 मार्च: एंटिगा- डी-2 और सी-1
30 मार्च: गयाना- डी-1 और सी-2
31 मार्च: एंटिगा- ए-1 और बी-2
01 अप्रैल: गयाना- डी-2 और बी-1
02 अप्रैल: एंटिगा- बी-2 और सी-1
03 अप्रैल: गयाना- डी-1 और ए-2
04 अप्रैल: एंटिगा- सी-2 और बी-1
07 अप्रैल: गयाना- बी-2 और ए-2
08 अप्रैल: एंटिगा- ए-1 और सी-2
09 अप्रैल: गयाना- डी-1 और सी-1
10 अप्रैल: ग्रेनाडा- डी-2 और ए-2
11 अप्रैल: बारबाडोस- सी-2 और बी-2
12 अप्रैल: ग्रेनाडा- बी-1 और सी-1
13 अप्रैल: बारबाडोस- ए-1 और डी-1
14 अप्रैल: ग्रेनाडा- ए-2 और सी-1
15 अप्रैल: बारबाडोस- बी-2 और डी-1
16 अप्रैल: ग्रेनाडा- ए-1 और बी-1
17 अप्रैल: बारबाडोस- ए-2 और सी-2
18 अप्रैल: ग्रेनाडा- डी-1 और बी-1
19 अप्रैल: बारबाडोस- डी-2 और बी-2
20 अप्रैल: ग्रेनाडा- बी-1 और सी-1
21 अप्रैल: बारबाडोस- डी-2 और सी-2

(अंकों के आधार पर चार शीर्ष टीमों को सेमी फ़ाइनल में जगह मिलेगी, सभी मैच भारतीय समयानुसार साय 8:00 बजे प्रारम्भ होगे।)

सेमी फ़ाइनल
24 अप्रैल: जमैका- दूसरी टीम और तीसरी टीम (भारतीय समयानुसार साय 8:15 बजे प्रारम्भ)
25 अप्रैल: सेंट लूसिया- पहली टीम और चौथी टीम (भारतीय समयानुसार साय 7:15 बजे प्रारम्भ)

फ़ाइनल
28 अप्रैल: बारबाडोस (पहले सेमी फ़ाइनल का विजेता और दूसरे सेमी फ़ाइनल का विजेता, भारतीय समयानुसार साय 7:15 बजे प्रारम्भ)

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ग्रुप मैचों में जीत के लिए टीम को दो अंक, टाई और मैच रद्द होने पर एक अंक मिलेगे । ग्रुप मैचों के बाद हर ग्रुप की दो शीर्ष टीमों को सुपर-8 में जगह मिलेगी । अगर दो टीमों को बराबर अंक मिले, तो टाई ब्रेकर के आधार पर फ़ैसला होगा। टाई ब्रेकर में टीमों के ज़्यादा मैच जीतने के औसत, रन को भी आधार बनाया जा सकता है।

ग्रुप मैचों में जीत के लिए टीम को दो अंक, टाई और मैच रद्द होने पर एक अंक मिलेगे । ग्रुप मैचों के बाद हर ग्रुप की दो शीर्ष टीमों को सुपर-8 में जगह मिलेगी । अगर दो टीमों को बराबर अंक मिले, तो टाई ब्रेकर के आधार पर फ़ैसला होगा। टाई ब्रेकर में शीर्ष टीम के निर्धारण के लिये टीम के ज़्यादा मैच जीतने के औसत, रन गति को भी आधार बनाया जा सकता है ।

सुपर-8 में कुल 24 मैच खेले जाएँगे । सुपर-8 में पहुँचने वाली टीम ग्रुप मैच में जिस टीम से पहले लड चुकी है, उसे छोड़कर बाक़ी सभी टीमों से मैच खेलेगी । अर्थात सुपर-8 मे प्रत्येक टीम को 6 अन्य टीमो से लडना होगा । सुपर-8 में पहुँचने वाली टीमों को ग्रुप मैचों में जितने अंक मिले हैं, वो सुपर-8 में भी उनके खाते में जुड़ जाएँगे । सुपर-8 की चार शीर्ष टीमें सेमी फ़ाइनल में पहुँचेंगी। सुपर-8 में वरीयता ग्रुप मैचों की तरह ही दी गई है । सुपर-8 में पहुँचने वाली टीमों को ग्रुप मैचों में जितने अंक मिले हैं, वो सुपर-8 में भी उनके खाते में जुड़ जाएँगे। सुपर-8 की चार शीर्ष टीमें सेमी फ़ाइनल में पहुँचेंगी। इन चार शीर्ष टीमों मे से दो टीमे फाइनल मे पहुचेगी।






शनिवार, मार्च 03, 2007

नोटपेड का डायरी कि तरह उपयोग

इन्टरनेट के मायाजाल मे उल-जलुल हरकते करते करते मुझे एक नये ब्रहम ज्ञान की प्राप्ति हुई। नोटपेड का डायरी कि तरह उपयोग करने का तरीका । मुझे काफी अच्छा लगा। कौन इस के जन्मदाता है ये तो पता नही चला परन्तु मैने सोचा शायद हमारे कुछ मित्रो को इस के बारे मे जानकारी न हो। अत: अपने ब्लाग मे इसका उल्लेख करना उचित समझा। तो महाशय तैयार हो जाये ब्रहम ज्ञान का रसपान करने के लिये।

  1. ये तो आप लोगो को पता ही होगा कि नोटपेड को कैसे खोलते है। नही पता तो घबराने की कोई आवश्यकता नही है, हम बताते है। स्ट्रार्ट पर किल्लिक करे, प्रोग्राम मे जाये, असशिरीज मे किल्लिक करे। नोटपेड दिखाई दिया ना तो बिना रूके किल्लिक कर दे।हा तो खुल गया आपका का कोरा कागज ।
  2. अब लिखे .LOG (लिखने के लिये बडे अक्षरो का प्रयोग करे)लिखना शुरू कि लाइन मे ही है। एन्टर दबा दे।
  3. अब वक्त है इस पोथी को सहजने का अर्थात सेव करने का। सेव कर दे अपनी मन मुताबिक स्थान पर मन मुताबिक नाम से जैसे कि डांयरी, मेरी डांयरी इत्यादि ।
  4. अब अपनी सेव की पोथी को खोले। देखा महाशय चम्तकार आपकी पोथी मे आपके कम्प्युटर की घडी के मुताबिक समय और तिथी आ गई है। लिखिये अपनी गाथा और सेव कर दे। जब आप अगली बार पोथी खोलेगे तो एक लाइन छोड कर नयी समय और तिथी आ जायेगी।

तो देर किस बात की है आजमाइये इसे।

शुक्रवार, फ़रवरी 23, 2007

मेरा गाँव

मेरा गाँव, गाँव का नाम सुनते ही न जाने कितनी ही स्मृतिया एक के बाद एक मानस पटल पर क्रिड्रा करने लगती है। पुराना मकान, सीढीनुमा हरे भरे खेत, चीड, देवदार, साल, सागौन के पेडो से भरे जंगल और प्यारा सा बचपन। बहुत पहले पिताजी हमे शहर ले आये थे। तब मे शायद 3 या 4 साल का रहा हूँगा। पिताजी को सरकारी आवास मिला हुआ था। उसी मे बचपन के दूसरे चरण का प्रारम्भ हुआ। गाँव का बचपन धूमिल होता गया और शहरी बचपन नये पायदान पर।

मै 15 वषौ के बाद गाँव गया था, वो भी इजा के पिताजी को बार बार कहने पर कि देख तो आइये हमारा मकान कैसा है। खेतीहर जमीन हमने जिन लोगौ को दी है,वो ढंग से खेती करते है भी कि नही। जमीन बंजर तो नही छोडी हुई है। मकान कही से टूटा तो नही है। तब मै इजा के गाँव से जुडे इस प्रेम को नही समझ पाता था।

गाँव आकर पुरानी यादे ताजा हो गयी,गाँव की चढाई मे बच्चो का समूह,कंधे पर बस्ता,हाथ मे कमेट की दवात,जेब मे लाइन खीचने का धागा लिये स्कूल जाते थे,आज भी जाते है। फर्क है तो ये कि पहले गाँव वाले लडकियो को स्कूल नही भेजते थे, अब भेजते है। मेरे समय मे स्कूल कि इमारत कच्ची थी, अब पक्की हो गयी है। पुराने समय मे अगर किसी गाँव मे या किसी आदमी को कोई संदेश या न्यौत देना होता था तो उस आदमी को बता दिया जाता था जो उस गाँव के संर्पक मे हो या उस आदमी का परिचित हो। गाँव के लोग इसी तरह से संदेशो का आदान प्रदान करते थे। अब तो एक छोटा सा पोस्ट आफिस भी है। फोन इत्यादि की सुविधाये भी पहुचने लगी है। दवाई इत्यादि के लिये पहले 20 किलोमीटर दूर जाना पडता था,पर अब छोटे से सरकारी अस्पताल के खुल जाने से छोटी छोटी बीमारियो का ईलाज वही पर हो जाता है।

गाँव की खेती के तो क्या कहने। जंगल से खेतो की खाद के लिये पतेल, पिरोउ के जाल गोठ मे संचित किये जाते है और बाद मे गोबर के साथ डालो मे भरकर खेत मे डाल दिये थे। अब भी वही प्रथा चली आ रही है। गेंहूँ,जौ,धान,मडुआ,काकुनी,गहत,भट्र की खेती उसी तरह से होती है। खाद वही पुरानी और पानी के लिये देवराज इंन्द्र पर निर्भरता। बिना खाद पानी के जमीन से आशा भी क्या की जा सकती है। कमरतोड मेहनत और फल वही, मुटठी भर अनाज। पर मजाल है गाँव वाले मेहनत करना छोड दे।

पिताजी कहते थे कि पहले गाँव मे पहुचने के लिए लगभग 30 या 35 किलोमीटर पैदल चलना पडता था पर अब तो मोटर मार्ग बन गया है। कई टैक्सी, जीपे एव सरकारी बसे रोजाना आती जाती है। गाँव से अब मु्श्किल से आधे किलोमीटर की चढाई चढनी पडती है। मोटर मार्ग के कारण बहुत सी सुविधाये मिल गयी है।आजकल तो ये हालात है की ह्लद्रानी\अल्मोडे से खरीदे समान मे एव स्थानीय बाजार से खरीदे समान मे 2 या 3 प्रतिशत का अंतर होता है। गाँव के लोग रात्रि मे उजाले के मिट्रटी के तेल की ढिबरी का प्रयोग करते थे। अब तो गाँव मे बिजली पहुच गयी है।

लगभग 15 वर्षो मे छोटी मोटी सुविधाऔ के बावजूद मेरा गाँव वैसा ही है जैसा मैने छोडते समय देखा था। गाँव का मूल स्वरूव एव चरित्र बिल्कुल भी नही बदला है। तीज त्यौहारो और धार्मिक मान्यताऔ की उमंग वही पुरानी है। हुडुक, ढोल, मशीनबाज जैसे ठेठ वाद्ययन्तो की थाप पर रात भर झवाड और लोक गीत के बोल गुजते है। आज भी होली मे होलियारो की टोलिया हर घर के आगन मे जाकर होली गाती है, आशिष देती है। होलियारो के पीछे पीछे होता है बच्चो का समूह जो हर घर मे बटने वाले गुड की डलिया इकटृठा करते है। क्या मिठास होती है उस गुड मे। दिवाली पर सभी लोग एक दूसरे के घर जाकर बधाईया देते है। घूघूती, हरेला, मकर संक्राती पहले की भाँती मनाये जाते है।

कहते है जब कोई परिवर्तन होता है तो उसके साथ साथ उस से जुडी अन्य चीजो मे भी छोटे मोटे परिवर्तन होते है। कुछ अच्छे कुछ बुरे। इतने अच्छे परिवर्तनो के साथ कुछ बुरे परिवर्तन भी हुए है। पहले शराब को कोई जानता भी नही था, मगर अब शराब गाँव की जिन्दगी मे कडवाहट घोलती जा रही है। पाश्चातय संस्कृति की हवा से मेरा गाँव भी अछूता नही रहा है। समय एवं परिस्थितियो के साथ गाँव के संदर्भ एवं परिभाषाए अवश्य बदल जाती है पर गाँव कभी नही मरता, वह आज भी जिन्दा है मेरे अन्दर....स्टिल एलाइव। मैं भगवान से यही प्रार्थना करता हूँ कि मेरा गाँव खूब फले फूले और तरक्की करे।

गुरुवार, फ़रवरी 22, 2007

क्रिकेट महासंग्राम मे टीम इंडिया


विश्वकप के लिये भारतीय चयनकर्ताओ ने 15 रणबांकुरो को चुन लिया है। वेस्टइंडीज मे होने वाले क्रिकेट महासंग्राम मे टीम इंडिया के विभिन्न खिलाडियो से भारतीय प्रशंसको को बहुत सी उम्मीदे है। क्या भारतीय रणबांकुरे देश के करोडो लोगो की उम्मीदो पर खरे उतर पायेगे ? या हर बार कि तरह फुस, यह तो भविष्य ही बतायेगा। आइये नजर डालते है 15 रणबांकुरो पर और उनसे जुडी भारतीय प्रशंसको कि उम्मीदे :


राहुल द्रविड: मिस्टर वाल, मिस्टर कूल जैसे संबोधनो से जडीत क्रिकेटर इस बार भारतीय सेना के सेनापती है। आपने हाट कप्तानी करनी है एव बल्ले का भी बखुबी उपयोग करना है।

सचिन तेद्रुलकर: लिटिल मास्टर आपने पिछली बार की तरह इस बार भी रनो कि झडी लगानी है। अगर आप नही चल पाये तो समझो किले का एक द्रार टूट चुका है और दुश्मन कभी भी हावी हो सकता है।

सौरव गागुली: बंगाल टाइगर से लोगो को उम्मीद है कि वो दहाडे। अगर वो दहाडेगे तभी तो विपक्षी टीम मे दबाव बढेगा। आपको दिखाना है कि शेर, शेर होता चाहे वह जंगल मे रहे या कही और।

वीरेद्र सहवाग: मुल्तान के सुल्तान पर चयनकर्ताओ ने जो दाव लगाया है आशा है वो इसे विफल नही होने देगे। आप चाहे किसी भी क्रम मे बल्लेबाजी करे पर करे अपने ही अंदाज मे।

महेद्र सिह धोनी: झारखंड के इस सपूत मे किसी भी गेदबाज को मैदान के बाहर का रास्ता दिखाने का दम है पर जरूरत है तो थोडा कूल रहने की। गर्म खाना खाने से हमेशा मुह जलता है, थोडा ठंडा कर खाये।

युवराज सिह: फील्डिग मे जान लगा देनी है पर बेवजाह मे ही कूदना-फादना नही है, क्योकि काफी समय अनफिट रहने के बाद वापसी हुई है। आपने अभी काफी क्रिकेट खेलनी है।

राबिन उथप्पा: दमदार शरीर होने के साथ साथ आपको दमदार शाट लगाते हुए देखना अच्छा लगता है पर इस फार्म को बेरोकटोक जारी रखना।

दिनेश कार्तिक: मैच मे बल्लेबाजी करने का मौका मिले या न मिले पर कूद - फाद कर रन जरूर बचाने है ताकि 15-20 रन कि बढत मिल सके।

अनिल कुंबले: जंबो आपको गेदबाजी के साथ-साथ "रनिग बिटवीन द विकेट" पर भी ध्यान देना है क्योकि हो सकता है आपको निचले क्रम मे बल्लेबाजी करने का मौका भी मिल सकता है।

हरभजन सिह: भज्जी आपको गेदबाजी पर काफी ध्यान देना है क्योकि हो सकता है किसी मैच मे आप अकेले ही स्पिनर हो। पर आपने अपने धर्मगुरू के कथन "सवा लाख से एक लडाउ ता गुरू गोविंद सिंह नाम कहाउ" को चरिर्थाथ करना है।

जहीर खान: टीम से बाहर होकर अच्छे प्रदर्शन के जरिये टीम मे आना कोई आप से सीखे। गेदबाजी के साथ-साथ सही लाइन लेथ पर भी ध्यान देना होगा ।

मुनाफ पटेल: चयनकर्ताओ को इस गेदबाज पर काफी भरोसा है। अपनी गेदबाजी की धार को कायम रख कर उनके भरोसे को कायम रखना।

इरफान पठान: कृपया अपनी गेदबाजी पर ध्यान दे क्योकि घातक गेदबाजी के जरिये ही आप टीम इंडिया को जीत दिला सकते है।

अजित अगारकर: टीम को ब्रेकथुरू दिलाना आपको भली - भाती आता है, पर रनो पर हाथ ढिला रखना और घातक गेदबाजी करना

श्रीसंत: माना कि आप अच्छे डांसर है पर आप टीम मे गेदबाजी के लिये रखे गये है। कृपया अपना होमवर्क पूरा कर अपनी गेदबाजी पर ध्यान दे ।


विश्व कप के लिए चुनी गई भारतीय टीम
राहुल द्रविड़ (कप्तान), सचिन तेंदुलकर (उप-कप्तान), वीरेंदर सहवाग, सौरभ गाँगुली, युवराज सिंह, महेंद्र सिंह धोनी, अनिल कुंबले, हरभजन सिंह, रॉबिन उथप्पा, दिनेश कार्तिक, ज़हीर ख़ान, अजित अगरकर, मुनाफ़ पटेल, श्रीसंत, इरफ़ान पठान.

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

क्या ईश्वर देखा है तुमने ?


कहते है जिसे ईश्वर
क्या देखा है तुमने
जिसने सारा संसार बनाया
क्या देखा है तुमने ।।

संसार में इंसान आया
इंसान मे शैतान समाया
शैतान के कारण बनता दु:ख
और दु:ख मे छिपता सुख ।।

कैसी है ये भाग्य विडम्बना
ईश्वर से इंसान बना
दु:खो एव सुखो के मेल से
एक नया संसार बना ।।

दु:ख और सुख है
एक भंवर की भांती
जिसमे फस गये तो
फसे रहते दिन राती ।।

न फसे तो सिर्फ शून्य
शून्य मे फिर ईश्वर
कहते है और जिसे परमेश्वर
क्या देखा है तुमने ।।

पर बंधी है एक विश्वास की डोरी
रचना की जिसने इस सृष्टि की
वह ईश्वर है, वह ईश्वर है
न देखा है तुमने न देखा है मैने ।।

सोमवार, जनवरी 08, 2007

नववर्ष का स्वागत

सभी भारतीयो को नववर्ष की हार्दीक शुभकामनाएँ । भारतवर्ष जिसे लोग आजकल "इंडिया" कह कर संबोधित करते है, मे जिस धूमधाम एवं महोत्सव के रूप मे नववर्ष मनाया जाता है, उसे देखकर मुझे ऐसा आभास होता है कि वह समय अब ज्यादा दूर नही जब हम पश्चिमी देशो के बृहद संस्करण मे पूरी तरह तब्दील हो जायेगे। वैसे तो अंग्रेजीयत के प्रभाव से हमारा देश अमेरिका व ब्रिटेन जैसा ही लगता है पर कुछ तो बात थी जो हमे इन सब से अलग रखती थी। दिल मे कुछ भंम्र था पर नववर्ष की महामाया मे इस बार वह भी टूट गया।

नववर्ष के उपलक्ष्य मे कही "डिस्को थैक" तो कही पर "कैबरे" का आयोजन किया जा रहा था। पबो, रेस्टोरेंटो, होटलो ने इस अवसर पर कई रंगारंग कार्यक्रमो का आयोजन किया था। इन आयोजनो को पूर्ण करने मे किसी प्रकार की कमी नही छोडी जा रही थी। विघुत छटा से लेकर पुष्प सजावट तक की गई तैयारिया अवर्णनीय थी। मेरी मस्तिक को यह बात हिलोरे मार रही थी कि जिस शहर मे बिजली की समस्या का रोज का रोना रहता है, मे अचानक से क्या चमत्कार हो गया कि बिजली का उत्पादन एकदम से बढ गया।

मेरे सहमित्रो ने भी ऐसे ही एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। मुझे भी आयोजन मे उपस्थित होकर कार्यक्रम कि शोभा बढाने के लिये आमन्त्रित किया गया था। जब मे कार्यक्रम मे पहुचा तो हर एक मेहमान पूर्ण जोश के साथ अपने-अपने कार्यो मे लीन थे। काम के प्रति इतनी लग्न मैने आज तक नही देखी थी। मेरे एक मित्र ने विभिन्न प्रकार की मदिरा से युक्त एक जाम से मेरा स्वागत किया और नृत्य के लिये प्रेरित किया। नृत्य तो मेरे लिये माउन्ट एवरेष्ट चढने से भी कठिन कार्य के समान है अत: मैने सहमित्रो का नृत्य देखना ही उचित समझा। कुछ किशोर नाम मात्र के पहनी किशोरियो के साथ नृत्य का आन्नद लेने के दौरान चिपकने का भी प्रयास कर रहे थे। मेरी समझ मे नही आ रहा था कि बाहर इतनी कडाके की ठंड है और ये किशोरियो गर्म क्यो है। शायद बाद मे तो इतने कपडे भी बोझ लगने लगेगे इन्हे। मंच पर विभिन्न प्रकार के पाँप और फिल्मी गानो का नान-स्टाप कार्यक्रम चल रहा था। बीडी जलइले... और दिल्ली की सर्दी... जैसे गानो की झडी लगी थी।

मैने भी 1-2 घंटा कार्यक्रम का पूर्ण आन्नद लिया। पर मुझे जल्द ही अहसास हुआ कि अगर मैं इस माहौल मे और ज्यादा देर रहा तो घर पहुचना मेरे लिये दूभर हो जायेगा। अत: मैने कार्यक्रम से निकलने मे ही भलाई समझी। घर पहुचने पर कब निद्रा ने मुझे अपने आँचल मे ढका पता ही नही चला। आँख खुली तो मस्तिक मे हल्का सा दर्द सा महसूस हो रहा था और बाहर सूरज चाचू मुस्कुरा रहे थे। नववर्ष मे उनका प्रथम दिन जो था।