बुधवार, दिसंबर 28, 2011

सीमा के रिश्तों पर एक संवेदनशील फ़िल्म


जीतू भाई जी के कहने पर लिटिल टैरोरिस्ट फिल्म देखी. फिल्म की अवधि कुल पन्द्रह मिनट की है. पन्द्रह मिनट में फिल्म खत्म हो जाती है, और हमारे जहन मे छोड़ जाती है ढेर सारे सवाल.

छोटी फ़िल्म बड़ी बात

फ़िल्म की कहानी सीमा पर बसे दो गाँवों के जीवन पर आधारित है जिनके बीच संबंध सिर्फ़ तनाव के हैं. एक ओर राजस्थान का एक गाँव है और दूसरी ओर पाकिस्तान. सीमा पर कंटीली बाड़ लगी है, पाकिस्तान की तरफ वाले गाँव मे बच्चे क्रिकेट खेल रहे है, लेकिन गेंद बाड़ को कहाँ जानती समझती है. उछली और इस पार चली आई. गेंद को यह भी नहीं मालूम कि वहाँ बारुदी सुरंगें बिछी हुई हैं. एक बच्चा है. बमुश्किल दस साल का, नाम “जमाल”. उसने बाड़ के नीचे से थोड़ी सी रेत हटाई और एक देश की सीमा लाँघ कर दूसरे देश में आ गया लेकिन अचानक सायरन बजने लगे और गोलियाँ बरसने लगीं. अभी वो कुछ समझता कि क्या हो रहा है, चारो ओर से अचानक गोलियों की बौछार होने लगती है, बच्चा जान बचाकर भागता है.

सेना के जवानो से बचते हुए उसे रास्ते में एक मास्टर जी मिलते है जो जवानो को गलत सूचना देकर उसे बचा लेते है. वह मास्टरजी के घर पनाह लेता है, जो काफी रहमदिल है, लेकिन मास्टरजी की भतीजी को इस बच्चे के घर आने पर एतराज है क्योंकि वो बच्चा एक मुसलमान है. मास्टरजी के घर में जमाल कुछ हक़ीक़तों से भी वाकिफ़ होता है.

मास्टरजी बच्चे को घर मे शरण देते है और सेना से छुपाने के लिये गन्जा बनाकर चुटिया बना देते है, ताकि वो हिन्दु दिखे ‌और उसका नामकरण “जवाहर” करते है. फिल्म मे इन्सानी रिश्तो पर बेहतर तरीके से रोशनी डाली गयी है.मास्टर साहब की भतीजी का जमाल के प्रति नफरत कई तरह के शैड लिये हुए है.

लेकिन जो दीवार इनसानों ने खड़ी की है वो अक्सर इंसानियत पर भारी पड़ती है.

उस ज़मीन पर जहाँ लोग रात-दिन 'पधारो म्हारो देस' गाते हैं वहीं एक कड़वी सच्चाई मुँह बाए खड़ी है. वो लड़की जिसे जमाल यानी जवाहर आपा कहता है उस मिट्टी के बर्तन को इसलिए तोड़ देती है क्योंकि उसमें एक मुसलमान ने खाना खाया है.

एक ओर इंसानियत है और दूसरी ओर सामाजिक दायरा

बाद मे मास्टर और उसकी भतीजी जमाल को सीमा पार छोड़ आते है, जाने से पहले बच्चा मास्टर और उसकी भतीजी से लिपट जाता है. जमाल अपने घर पहुँच चाता है.जहाँ उसकी माँ उसका बेसब्री से इन्तजार कर रही होती है, लेकिन उसके कटे बाल और चुटिया देखकर उसको मारती है.

लेकिन बच्चा रोने के बजाय सीमा पर कंटीली बाड़ो को देखकर जोरदार तरीके से हँसता है, उसकी हँसी मे भय, आतंक, दर्द, तिरस्कार और विस्मय का अदभुत मिलाप है, निर्देशक ने इस सीन को बहुत अच्छे तरीके से फिल्माया है.

कुल 15 मिनट की इस फ़िल्म को देखकर ऐसा लगता नहीं कि इसमें एक भी दृश्य अतिरिक्त है

एक छोटे से बच्चे के चेहरे पर भय, विस्मय और प्रेम सब कुछ इस तरह उभरता कि कुछ देर के लिए सिहरन पैदा हो जाती है

फ़िल्म दोनों ओर की कुछ सामाजिक कुरीतियों को भी निशाना बनाती है.

बुधवार, दिसंबर 07, 2011

फिल्म क्यों देखता हूँ

मै फिल्में क्यों देखता हूँ? मुझे अच्छा लगता है। अब आप पूछेगे क्यों अच्छा लगता है? अमा जैसे कि हम सभी लोग आक्सीजन, जल और हवा पर जीते हैं पर मन की खुराक कुछ और ही होती है। फिल्में मुझे भाती हैं। जब कभी मन खराब होता है तो यह मुझे गुदगुदाकर हंसा देती है, जब अकेला होता हूँ तो मेरा साथ देती हैं, जब मित्रो के साथ होता हूँ तो मजा दूगना कर देती है । जब से अपना आशियाना बदला है तब से शायद ही कोई फिल्म छोडी हो । आजकल तो हर नई फिल्म रिलीज होते ही एक या दो दिन में देख लेता हूँ । धन्यवाद देना चाहूँगा अपने मित्रों अजय, विकास और नितिन को जो मुझे कोई फिल्म छोड़ने नही देते है ।

मै अक्सर यही सोचाता हूँ कि मुझे किस तरह की फिल्में पसंद हैं पर सचाई यही लगती है कि स्थितिजन्य कारणों से कोई फिल्म पसंद आती है और कोई नहीं, कई बार उद्देश्यपूर्ण सिनेमा पसंद आ जाता है तो कई बार बेसिरपैर का धमाल भा जाता है। शायद इसीलिये द डर्टी पिक्चर’ और 'राकस्टार' पसंद आई पर 'देशी-ब्वायज' नहीं, 'दमादम' अच्छी लगी पर 'रा-वन' नहीं।

फिल्में देखना बचपन से ही पसंद है। बचपन में मोहल्ले के कुछ बड़े लडके उस समय वि सी आर पर फिल्म दिखाया करते थे, वो भी चन्दा एकत्रित करके। हर घर से पाँच या दस रुपये लिए जाते थे। बड़े-बूढ़ों और स्त्रियों को एक धार्मिक फिल्म दीखा दी जाती थी और बाद में अपनी पसंद कि फिल्में देखी जाती थी । पूरी रात फिल्म देखते रहते। अगर निद भी आ रही होती तो मुँह दो लेते। उस समय वि सी आर के सबसे नज़दीक बैठने की होड़ होती थी । वि सी आर का किराया 80 रूपये और कैसेट का 20 रूपये प्रती रात्रि शुल्क होता था । माह में एक बार इस तरह कि व्यवस्था कर ही दी जाती थी । कुछ समय बाद वि सी आर कि जगह सी डि प्लेयर ने ले ली। तब दोस्तों के यहा सी डि प्लेयर किराये पर लाकर फिल्में देखा करते थे। अपने खास मित्र नितिन के यहा तो काफी फिल्में देखी और इन्जाय करी।

फिल्में मुझे हर रूप में पसंद आती हैं, चाहे फेटासी, प्राइम प्रधान, हास्य हो या यथार्थ के नज़दीक। आजकल की फिल्मों में खास यह बात अच्छी लगती है कि तकनीक बढ़िया हुई है ।

रविवार, दिसंबर 04, 2011

द डर्टी पिक्चर : फिल्म समीक्षा

इस शुक्रवार फिल्म देखी ‘द डर्टी पिक्चर’ अर्थात गंदी फिल्म । अमा गलत मत समझियेगा मुझे गंदी फिल्म वैसी वाली नही जैसे काल्रेज के दिनों में देखते थे। बहुत प्रचार-प्रसार हुआ था फिल्म कि रिलीज से पह्ले । कोई कुछ ये कह रहा था तो कोई वो कह रहा था । मै भी थोड़ा उत्सुक था कि देखें तो सही क्या है इस फिल्म में। वैसे भी हमारे भाई समान मित्र विकास जी* ने इस फिल्म को हमें दिखाने कि पूरी व्य्व्स्था कर रखी थी। वो बात अलग है कि एक दिन पहले मेरे अन्य मित्र अजय जी ने उनके The Twilight Saga: Breaking Dawn को नकार चुके थे। (*जी का प्रयोग महानता दर्शाने के लिये व्यक्त किया गया है)
आप लोगो को तो में अपने चिट्ठे (बालाग) में पहले ही बता चूका हूँ कि विद्या बालन अपनी चहैती कटेग्री में आती थी वो बात अलग है कि समय के साथ साथ स्वाद भी बदलता रहता है। तो थोड़ा आप को फिल्म के बारे में बता दू ।

गांव से भागकर मद्रास आई रेशमा(विद्या बालन) की ख्वाहिश है कि वह भी फिल्मों में काम करे। यह किसी भी सामान्य किशोरी की ख्वाहिश हो सकती है। फर्क यह है कि निरंतर छंटनी से रेशमा की समझ में आ जाता है कि उसमें कुछ खास बात होनी चाहिए। जल्दी ही उसे पता चल जाता है कि पुरुषों की इस दुनिया में कामयाब होने के लिए उसके पास एक अस्त्र है.. उसकी अपनी देह। अभिनेत्री बनने के सपने को साकार करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। इस एहसास के बाद वह हर शर्म तोड़ देती है। रेशमा से सिल्क बनने में उसे समय नहीं लगता। पुरुषों में अंतर्निहित तन और धन की लोलुपता को वह खूब समझती है। सफलता की सीढि़यां चढ़ती हुई फिल्मों का अनिवार्य हिस्सा बन जाती है।

स्टारडम की ऊंचाईयों पर पहुंचने के बाद सिल्क को सच्चे प्यार की तलाश है। उसे कई लोग मिलते भी हैं मगर सब धोखा दे जाते है। सबसे पहले उनके को स्टार सूर्यकांत(नसीरुद्दीन शाह) उनकी जिंदगी में आते हैं मगर उन्हें सिल्क नहीं बल्कि उसके जिस्म से प्यार है। इसके बाद स्क्रिप्ट राइटर रमाकांत(तुषार कपूर)भी उन्हें उन्हें धोखा देकर उनका दिल तोड़ देते हैं ।

प्यार में मिले धोखे से सिल्क एकदम टूट जाती है और उसका करियर भी ढलान पर आने लगता है। अंत में निर्देशक (इब्राहीम) इमरान हाशमी के रूप में उन्हें सच्चा प्यार जरुर मिलता है मगर तब तक वो पूरी तरह से टूट चुकी होती है और आत्मह्त्या का फेसला चुन चुकी होती है ।

फिल्म की कहानी को इसका संगीत और दिलचस्प बनाता है। उह ला ला... और इश्क सूफियाना... जैसे गाने पहले ही जबरदस्त लोकप्रिय हो चुके हैं। उह ला ला... तो मेरा पेवरेट गाना बना हुआ है । इश्क सूफियाना अनावश्यक और ठूंसा हुआ लगता है पर चलाया जा सकता है।

क्यों देखें:सिल्क बनी विद्या की जबरदस्त अभिनय प्रतिभा और इस वीकेंड में अगर एक विशुद्ध मनोरंजक फिल्म देखने की इच्छा रखते हैं तो 'डर्टी पिक्चर' जरूर देखिएगा

क्यों न देखें: परिवार के साथ देखने लायक नही, दोहरे अर्थ वाले संवाद

मेरे दोनों मित्रों ने तो 'डर्टी पिक्चर' को पाँच में से 2 अंक दिये है पर मेरे हिसाब से 3 अंक तो बनते है।