शुक्रवार, अप्रैल 20, 2007

मेरी परिचय

नाम : गिरीश सिह,
जन्मतिथी :31 जनवरी 1983

इमेल: girish.singh एटदी रेट रेडिफमेल डाट काम
और girishsinghbisht एटदी रेट जीमेल डाट काम

जींवन के महत्वपूर्ण 21 साल, कहे तो जींदगी का एक अध्याय रूडकी मे बिताने के बाद लगभग 3 वर्षो से दिल्ली मे हूँ। रोजी रोटी जो कमानी है। कुछ सपने है जिन्हे पूरा करना चाहता हूँ। खेलो मे क्रिकेट, शतरंज फुटबाल पसंद करता हूँ। कम्प्यूटर गेम, चेटीग पर भी हाथ साफ है। थोडा बहुत किताबी कीडा भी हूँ पर वो बात अलग है कि आजकल तो समय नही पाता हूँ इस कार्य के लिये। इन्टरनेट पर जो पढ लिया वो ही काफी है। संगीत से काफी लगाव है। जगजीत सिह, किशोर, रफी, मुकेश और बर्मन दा के गाने ज्यादा पसंद करता हूँ।
अमिताभ बच्चन, शाहरूक खान, आशुतोष राणा पसंदीदा अभिनेता है। अभिनेत्रिया तो उम्र के साथ साथ बदलती रही। बचपन मे मधुबाला, रेखा पसंद थी कुछ समय के बाद ऐश, प्रिटी तत्पश्चात रानी ,प्रियंका और अब विघा बालान । कपडो मे जीन्स, टी-शर्ट पसंद करता हूँ। पर ज्यादातर साधारण वेशभुषा मे रहता हूँ। खाने मे चटपटा खाना पसंद करता हूँ। कभी-कभी कुछ नये व्यंजन वनाने की भी नाकाम कोशिश करता रहता हूँ। थोडा बहुत हाड ड्रिक का भी शौक पाल रखा है। पर अकेले मे कभी नही पीता हूँ। सही मे मै झूठ नही बोलता।
प्यार के मामले मे अब तक थोडा अनलक्की रहा हूँ, कारण शायद यही रहा होगा कि दिल के डिसीजन लेते समय मैने दिमाग को ज्यादा अहमियत दी। जींदगी के हाइवे पर काफी उतार चढाव देखे है। कभी खुशी का उजाला तो कभी दु:ख का अधेरा । अपनो को बैगाना एवं बैगानो को अपना बनते देखा है। एक संवेदनशील और कोआपरेटीव आदमी हूँ। जो कभी कभी एक कमजोरी भी लगती है,क्योकि आजकल ज्यादा कोआपरेटीवनेस दिखाते है तो लोग समझते है कि न जाने इसे क्या फायदा रहा है? और संवेदनशीलता तो लोगो को दिखावा लगती है।
दोस्तो मे काफी पसंद किया जाता हूँ। दुनिया को अपनी नजरो से देखना चाहता हूँ पर कम्बखत चश्मा बीच मे आ जाता है। किसी चीज से नफरत है तो वह है सुबह जल्दी उठना,बर्तन माझना और गन्दगी । पर क्या करे जब तक अकेले है तो इन चीजो से रोज दो-दो हाथ करने ही पडते है। मेरा मानना है कि जींदगी काफी छोटी होती है इसमे सिर्फ प्यार के लिये जगह होनी चाहिये,नफरत के लिये नही। वर्तमान एक उपहार है इसलिये तो अग्रेजी मे इसे present से उच्चारित करते है। मेरे हिसाब से काफी झक छेत ली मैने अपने बारे मे कुछ और पुछना हो तो मेल करे।

बुधवार, अप्रैल 04, 2007

48 वर्षो से नहाया ही नहीं

क्या आप यकीन करेंगे कि कोई व्यक्ति 48 साल तक बिना नहाये रह सकता है। लेकिन संबलपुर के धनेश्वर प्रधान की कहानी दूसरों से काफी हटकर है। उनकी उम्र इस समय लगभग 120 वर्ष है पर वे 48 वर्षो से नहाये नही है। है न कमाल कि बात? चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा करने वाले के शरीर में तरह-तरह की बीमारियाँ घर कर सकती हैं, लेकिन वे तो अभी भी भले-चंगे हैं। जीवन का शतकीय पारी खेल चुके प्रधान के बाजुओ मे अब भले हि पहले जितनी ताकत न हो, भले हि उन्हे लाठी का सहारा लेना पड़ता है, लेकिन वे अपना सारा काम खुद ही करते हैं। 48 वर्षो से अब तक न नहाने का रहस्य धनेश्वर प्रधान ने खोला नहीं है। पर पूछे जाने पर पता चला कि उन्हें गर्मी के दिनों में भी ठंड लगती है और वे आग जलाकर तापने बैठ जाते हैं। ऐसे स्वाधीनता सेनानी पर अब तक सरकार की कोई दृष्टि नहीं पड़ी है और वे गुमनाम सी जिंदगी जी रहे हैं। पूरी खबर यहाँ पढे

मंगलवार, अप्रैल 03, 2007

खोता बचपन

आजकल के शहरी बच्चो के बचपन को देखकर मेरे मन मे अकसर ये खयाल आत है कि क्या इन्हे वो बचपन नसीब हो रहा है जिसके ये हकदार है। क्या इनके बचपन को इनके माता पिता या अभिभावको ने उनके भविष्य को सुरक्षित करने को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इनके वर्तमान का गला घोट दिया है। मै इस बात से इनकार नही करता कि आज कल के संघर्षपूण माहौल देख कर इनके जीवन की सीढी के पहले पायदान को मजबूत करने की जरुरत है पर बच्चो के बचपन को भी नजरअंदाज न करे।

ज्यादातर घरो मे एक या दो ही बच्चे होते है । वे तरह-तरह की सुविधाओ के बीच पल रहे है। घर पर खाना उनकी इच्छानुसार ही बनाया जाता है। उनसे किसी तरह का घरेलू कार्य नही कराया जाता है। उन्हे विघालय से लाने और ले जाने के लिय आरामदेह गाङिया या बसे होती है। पढने के लिये सुन्दर किताबे एव लिखने के लिये रंग-बिरंगी कापिया होती है। स्कूली वेशभूषायें एवं जूते-मोजे भी कई प्रकार के होते है। स्कूल मे भी उन्हे घर जैसी सुख-सुविधायें उपलब्ध होती है। बडे-बडे हवादार कमरे, तरह-तरह के खेलो के लिये मैदान, अच्छी बैठक व्यवस्था, अच्छी पुस्तकालय, विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, स्पर्धायें इत्यादि। फिर भी बच्चो के माता पिता या अभिभावको की यही शिकायत रहती है कि बस्ते के बोझ से बच्चो का बचपन दब रहा है। परीक्षाओं का भी बच्चो पर काफी दबाव होता है। इन शिकायतों के चलते परीक्षाओं को सरल और बस्ते के बोझ को कम करने की कवायद चलती रहती है। परीक्षाओं को सरल करने के लिये कभी ग्रेड देकर काम चला लिया जाता है, तो कभी मौखिक या मासिक परीक्षाओं के परिणाम को देखकर दुसरी कक्षा मे भेज दिया जाता है।

बच्चो को बचपन से ही कुछ बनने के लिये प्रेरित किया जाता है। उनके सर्वागीण विकास के लिये मंह्गे खेलो से सम्बंन्धित विभिन्न संस्थाओं मे प्रवेश दिला दिया जाता है। मार्ग दर्शन के लिये अच्छे कोच नियुक्त किये जाते है। अब बच्चे बडे दिनो या गरमी की छुट्टियॉ खेलने-कूदने मे जाया नही करते बल्कि उन्हे विभिन्न प्रकार की हाबी क्लासो मे प्रवेश दिला दिया जाता है। गुल्ली डंड़े, कंच्चो,पतंग बाजी, छुपन्न-छुपाइ जैसे खेलो का स्थान हिंसक कम्पयूटर गेम्स एवं विडियो गेम्स ने ले लिया है। मेलो या हाट के बारे मे शायद हीं किसी को पता हो। बच्चे तो सिर्फ जूँ , वाट्ररपार्क जैसी जगहें जाना पसंद करते है। क्योंकि वो सिर्फ उन्ही के बारे मे जानते है। बच्चो पर इन तथाकथित सुख-सुविधाओ के साथ तनाव अनजाने ही लादा जाता है। रिश्ते नाते नही, दोस्त नहीं, मन भर का खेल नही, ज्यादा घूमना फिरना नही, और तो और भरपूर नीद को भी तरस जाते है ये बच्चे। दिन भर स्कूल मे, घर आकर होमवर्क, ट्यूशन और ट्यूशन वर्क मे ही दिन-रात गुजर जाते है। इन सब मे बचपन, बचपन की चंचलता, मस्ती दफन हो जाती है। इस कारण बच्चे कई बार अतृप्त, दुखी, उदास, चिड़चिडे, सबसे खफा से दिखाई देते है।

दसवी मे प्रवेश करते ही उस का सारे जग से रिश्ता तुड्वा दिया जाता है। न दोस्तो से मिलना, न घूमना-फिरना, न खेलना। घर को सोने का पिजरा बना दिया जाता है। 12वी का वर्ष तो अतिदक्षता को प्राप्त करने का वर्ष होता है। 12वी की पढाई के साथ-साथ विभिन्न करियर संबधी होने वाली परीक्षाओं का दबाव अलग से होता है। बच्चो के माता पिता या अभिभावक उन्हे वो बनाना चाह्ते है जो वे खुद न बन सके। सब कुछ हासिल करना ही जीवन का उदेश्शय बना दिया जाता है। जिसके कारण जीवन मे असफलता, अपयश के कटु अनुभवो को स्वीकारना उनके लिय अत्यन्त कठिन हो जाता है।

हमारा बचपन था जब हम कई तरह के अभावो मे जीते थे। हम घर के काम को अपनी जिम्मेदारी समझते थे, एक जोडी यूनिफार्म एव एक जोडी जूते-जुराब साल भर घिसते । किसी त्योहार पर अगर रात को 9 बजे तक घूमने कि आज्ञा मिलने पर स्वत्रंतत्रा का अनुभव करते, कुल्फी या आईसक्रिम मिलने पर आनंदित होते। रोटी के जगह पराठे मिलने पर माँ को धन्यवाद देते। जन्मदिन पर माता पिता के आशिर्वाद से तृप्त होना, विभिन्न संस्कारो वाला बचपन कितना सुखी था।

रिश्तो की मह्क से महकता, संस्कारो से जडा, आभावो मे भी जीवन को जीना, हर परिस्थिती का मुकाबला करना, जो मिल गया उसी मे सुखी होना, हार-जीत, सफलता-असफलता को समझना, यश- अपयश को स्वीकारना यही तो सीखा है हमने अपने बचपन से जो शायद आज की पीढी को नसीब नही हो रहा है।