मंगलवार, दिसंबर 19, 2006

दिल्ली का जीवन

भागदौड वाली इस जीवनशैली मे हर शक्स एक अनजानी सी दौड में अनजाने लक्ष्य के पीछे दौड रहा है। मैं भी अपनो से दूर ऐसे ही किसी अनजाने लक्ष्य के पीछे दौड रहा हूँ। क्या पाना है?, कैसे पाना है?,कुछ पता नही। क्या आपने किसी कुत्ते को अनजाने वाहन के पीछे भागते देखा है? सवाल यह नही कि वो क्यो भाग रहा है? अगर वह उस वाहन को पकड भी लेगा तो करेगा क्या? कभी अपने बारे मे सोचता हूँ तो "मुझे लगे रहो मुन्ना भाई" फिल्म मे विद्या बालान द्वारा कही लाईने याद आ जाती है :
शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है?
जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है?
पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है
भूल गये भीगते हुए टहलना क्या है?
सीरियल्स् के किरदारो का सारा हाल है मालूम
पर माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है?
अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यूं नहीं?
108 हैं चैनल् फ़िर दिल बहलते क्यूं नहीं?
इन्टरनैट से दुनिया के तो टच में हैं,
लेकिन पडोस में कौन रहता है जानते तक नहीं.
मोबाइल, लैन्डलाइन सब की भरमार है,
लेकिन जिग्ररी दोस्त तक पहुँचे ऐसे तार कहाँ हैं?
कब डूबते हुए सुरज को देखा था, याद है?
कब जाना था शाम का गुज़रना क्या है?
तो दोस्तों शहर की इस दौड़ में दौड़् के करना क्या है
जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है?
5 और 6 लाईने मुझ पर चरितार्थ नही होती है, क्योकि मैं अपने माता पिता से बहुत प्यार करता हूँ और दूरदर्शन देखना तो न के बराबर। मेरे को तो महानगरीय जींवन एक प्रोगाम की तरह लगता है, जिसमे न जाने कितनी प्रतिबंधिताये ( conditions )जैसे कि if, if else, while, do while और न जाने कितनी,देखने को मिलती है स्नातक तक तो सारी याद थी, पर अब नही हैं। छोटे शहरो मे आदमी को मिले एक अवकाश वह न जाने कितने सुखद अनुभव को समेटता हैं। जबकि दिल्ली जैसे शहरो मे उस अवकाश का पता ही नही चलता। कब सुबह, कब दोपहर और कब शाम हो जाती है पता ही नही लगता हैं। यहा तो दिल करता है कि काश दिन मे 36 या 48 घंटे होते तो कितना अच्छा होता। छोटे शहरो मे लोग जिन्दगी जीते है, जबकि महानगरो मे जिन्दगी काटी जाती है ।

जब मैं रूडकी मे जाँब करता था तो रविवार या किसी अन्य अवकाश का पूर्ण उपयोग करता था। उठाई अपनी धन्नो और चल दिये दोस्तो से मिलने। रास्ते मे पडने वाले मुख्य बाजार (Civil Lines)या कन्या विघालयो, महाविघालयो से गुजरने पर चकसुख का परमान्नंद लेने से कभी नही चुकता था। अगर साथ मे मित्र मंडली हो तो पूछो मत। दिल मे एक आस रहती थी कि कभी न कभी तो ईश्वर की कृपा से अपने अंधियारे आंगन मे भी उजाला होगा। शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक का परिक्रमण करने मे मुश्किल से एक घंटा लगता था। दिल्ली मे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुचने मे कितने पापड बेलने पडते है, इस को एक दिल्लीवासी ही समझ सकता है। ऐसे मे अवकाश का क्या खाक उपयोग करेगे। अत: सोने (sleep) के अलावा मुझे तो अवकाश का पूर्ण उपयोग करने का कोई दूसरा उपाय नही सुझता।

खैर जैसे भी है जीवन तो जीना ही पडता है। पर कोशिश यही करता हूँ कि इस कागजी फूल जैसी बनावटी जींवन का हिस्सा ना बनू।

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